लखनऊ: उत्तर प्रदेश सरकार में पांच बार कैबिनेट मंत्री और राजनीति के बाहुबली नेता रहे हरिशंकर तिवारी का मंगलवार को 91 वर्ष की आयु में निधन हो गया. पूर्वांचल की धरती पर राजनीति की एक नई विधा लिखने वाले हरिशंकर तिवारी के निधन की सूचना मिलते ही गोरखपुर के धर्मशाला स्थित उनके आवास पर समर्थकों की भीड़ जुट गई. अपने पीछे वे दो बेटे और एक बेटी छोड़ गए हैं. आइए जानते हैं कि कैसे छात्र जीवन से राजनीति शुरू करने वाले पंडित हरिशंकर तिवारी पूर्वांचल का एक बड़ा नाम बन गए. सरकार किसी की भी हो, वो मंत्री जरूर बनते थे. यूपी की राजनीति में माफिया राज शुरू करने वाले हरिशंकर तिवारी से जुड़े कई ऐसे किस्से हैं, जिन्हें आज हम बताते हैं.
छात्र जीवन से लेकर माफिया राज तक तय किया जीवन
70 का दशक था और उस वक्त जय प्रकाश नारायण की क्रांति से कांग्रेस को मिलने वाली चुनौतियों का असर पूरे देश में पड़ रहा था. राजनीति के लिहाज से सबसे महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश में भी जेपी मूमेंट रफ्तार पकड़ रहा था. इस मूमेंट में विश्वविद्यालयों के छात्रसंघ से जुड़े छात्र नेता भी जुड़ने लगे, जिससे विश्वविद्यालयों में कई गुट एक-दूसरे के सामने आ गए. इसी झगड़े में एक नाम उभरकर आया गोरखपुर विश्वविद्यालय में पड़ने वाले हरिशंकर तिवारी का. उन्होंने अपना गुट मजबूत किया और ब्राह्मण छात्रों को अपने साथ जोड़ा. इस दौरान हरिशंकर तिवारी के सामने बलवंत सिंह गैंग सबसे बड़ी चुनौती बना हुआ था. दोनों गुटों में अक्सर वर्चस्व कायम करने और ठेका लेने को लेकर झगड़े होते थे.
ब्राह्मण नेता बनकर बाहुबली बने हरिशंकर
छात्र राजनीति से ब्राह्मणों के नेता बनकर उभर चुके हरिशंकर तिवारी के सामने बलवंत सिंह बड़ी चुनौती था. हर ठेके को लेने के लिए गोलियां चलानी पड़ रही थीं और एक के बाद एक दर्जनों मुकदमे दर्ज हो रहे थे. ऐसे में हरिशंकर तिवारी ने माफिया से माननीय बनना तय किया. वर्ष 1985 के विधानसभा चुनाव में जेल में रहते हुए गोरखपुर की चिल्लूपार सीट से निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर पर्चा भरा. इस चुनाव में हरिशंकर कांग्रेस के मार्कंडेय नंद को 21,728 वोटों से हराकर विधायक बन गए. ऐसा पहली बार था, जब कोई जेल के अंदर रहकर चुनाव जीत गया. उनकी इस जीत ने पूर्वांचल को एक बाहुबली नेता दे दिया था. हरिशंकर तिवारी के खिलाफ दो दर्जन से अधिक मामले दर्ज किए गए. इन मामलों में हत्या, हत्या की कोशिश, किडनैपिंग, छिनैती, रंगदारी, वसूली, सरकारी काम में बाधा डालने जैसे न जाने कितने ही मामले थे. हालांकि, कोर्ट ने उनके खिलाफ लगे सभी मुकदमों को खारिज कर दिया था.
ठाकुर बनाम ब्राह्मण गैंगवार का हिस्सा बने हरिशंकर
30 अगस्त 1979 को गोरखपुर के बड़े ठाकुर नेता कोड़ीराम विधानसभा सीट के विधायक रविंद्र सिंह की हत्या हो गई. कहा जाता है कि इस हत्याकांड को हरिशंकर तिवारी के एक शूटर ने अंजाम दिया था. रविंद्र सिंह की हत्या के बाद अब पूर्वांचल को जरूरत थी एक ऐसे ठाकुर नेता की जो हरिशंकर तिवारी को मजबूत टक्कर दे सके. ऐसे में सामने आए वीरेंद्र प्रताप शाही, जिनकी हरिशंकर से रेलवे के ठेकों को लेकर पहले से ही आदावत चल रही थी. वीरेंद्र सिंह महाराजगंज में तो हरिशंकर तिवारी गोरखपुर में अपनी सरकार चलाने लगे. आम लोग अपनी समस्या थानों में नहीं, बल्कि दोनों के दरबार में निपटाते थे.
हरिशंकर की शरण में श्रीप्रकाश शुक्ला
वर्ष 1993, हरिशंकर तिवारी ठेके पट्टों को पाने के लिए पूर्वांचल में अपनी दहशत कायम कर रहे थे. इस दौरान उनके गैंग में एक के बाद एक शूटर कम हो रहे थे. ऐसे में उन्हें एक ऐसा सख्स मिलने वाला था, जिसने कुछ ही समय में पूरे देश को हिलाकर रख दिया था. इसकी शुरुआत होती है एक छेड़खानी के मामले से. दरअसल, अध्यापक के बड़े बेटे श्रीप्रकाश शुक्ला की बहन के साथ एक लड़के ने छेड़खानी कर दी. ये बात श्रीप्रकाश को पता चली तो उसने उस व्यक्ति की सरेआम गोली मारकर हत्या कर दी. इसके बाद पुलिस उसे हर जगह तलाशने लगी. अपने बेटे को बचाने के लिए श्रीप्रकाश शुक्ला के पिता हरिशंकर तिवारी के पास गए और उनसे मदद मांगी. कहा जाता है कि हरिशंकर ने श्रीप्रकाश शुक्ल को संरक्षण दिया और उसे बैंकॉक भेज दिया. जब वापस आया तो वह हरिशंकर तिवारी के लिए काम करने लगा. कुछ ही दिनों में श्रीप्रकाश शुक्ला के नाम से लोग थड़थड़ कांपने लगे थे. 1997 में श्रीप्रकाश शुक्ला ने लखनऊ में सरेराह महराजगंज के विधायक और हरिशंकर तिवारी के सबसे बड़े दुश्मन वीरेंद्र शाही की हत्या कर दी.
सरकार किसी की भी हो हरिशंकर का मंत्री बनना तय था
कहा जाता है कि उत्तर प्रदेश में सरकार किसी की भी बने. लेकिन, उस सरकार में हरिशंकर मंत्री जरूर बनते थे. वो भाजपा, समाजवादी पार्टी और बसपा में मंत्री रहे. वर्ष 1996 में कल्याण सिंह की सरकार बनी तो साइंस एंड टेक्नॉलाजी मिनिस्टर बने. वर्ष 2000 में स्टांप रजिस्ट्रेशन मंत्री, 2001 में राजनाथ सरकार हो या 2002 में मायावती सरकार हरिशंकर तिवारी मंत्री बनाए गए. यहां तक समाजवादी पार्टी से दूर-दूर तक राजनीतिक संबंध न होने के बाद भी हरिशंकर तिवारी 2003 में सपा की सरकार बनते ही पाला पलटते हुए मंत्री बन गए.
हार ने रोकी राजनीतिक पारी
हरिशंकर तिवारी 22 वर्ष तक विधायक रहे. इस दौरान वो दो बार हारे थे. सही कहा जाए तो इसी हार ने उनकी सियासत खत्म करनी शुरू कर दी. 2007 में उन्हें बसपा प्रत्याशी राजेश त्रिपाठी ने 6,933 वोटों से हरा दिया. वर्ष 2012 के चुनाव में भी वो हार गए. इन दोनों हार को देखकर उन्होंने तय किया कि अब वो सक्रिय राजनीति से दूरी बना लेंगे. इसलिए उन्होंने अपनी राजनीतिक विरासत दोनों बेटों को सौंप दी. बड़े बेटे कुशल तिवारी वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में बसपा से सांसद बने. हालांकि, 2014 और 2019 का चुनाव हार गए. हरिशंकर के दूसरे बेटे विनय शंकर तिवारी 2017 में चिल्लूपार सीट से बसपा के टिकट पर चुनाव जीत गए. हालांकि, 2022 में वो भी हार गए.
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