वाराणसी: गरुण पुराण के अनुसार पितरों को खुश करने और उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए एक साल में 15 दिन पितृ पक्ष के लिए निहित किए गए हैं. आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर तक अमावस्या तक के समय को पितृ पक्ष कहा जाता है. जिसमें मनुष्य तर्पण श्राद्ध और ब्राह्मणों को भोज कराकर अपने पितरों को खुश करने की कोशिश करता है. शुक्रवार से पितृपक्ष की शुरुआत हो चुकी है, यूं तो पितृपक्ष के मौके पर बिहार के गया में जाकर तर्पण करने का विशेष महत्व बताया गया है लेकिन बहुत कम लोग यह जानते हैं कि गया से पहले धर्मनगरी वाराणसी के एक स्थान पर श्राद्ध कर्म, तर्पण करना आवश्यक होता है. यह वह स्थान है, जहां भगवान विष्णु और गणेश के निर्देश पर पिशाच योनि से मुक्ति के लिए ब्राह्मणों आदि ने तर्पण व स्नान कर इससे मुक्ति पाई थी.
पिशाच मोचन कुंड में पिंडदान करने से पिशाच योनी से मिलती है मुक्ति
धर्मनगरी वाराणसी स्थित पिशाच मोचन कुंड अपने आप में महातीर्थ के रूप में जाना जाता है. ऐसी मान्यता है कि भगवान विष्णु के आदेश पर एक पिशाच नाम के ब्राह्मण ने प्रेत-बाधा से मुक्ति के लिए यहां स्नान किया और उसको प्रेत योनि से मुक्ति मिल गई थी.
पंडा मुन्ना महाराज ने ईटीवी भारत को जानकारी देते हुए बताया कि गया में पितरों का श्राद्ध कर्म और तर्पण किया जाता है लेकिन मृत आत्माएं यदि पितरों में न मिली हो तो वह प्रेत योनि में भटकती रहती है, जिससे बचने के लिए काशी के पिशाच मोचन कुंड पर त्रिपिंडी श्राद्ध कराने का विशेष महत्व है. त्रिपिंडी श्राद्ध पितृ दोष से मुक्ति और पिशाच योनि में भटक रही आत्माओं को पितरों के साथ मिलाने का काम करती हैं. इसके लिए श्राद्धकर्म तर्पण करने वाले व्यक्ति को इस सरोवर में नहाकर तर्पण और पिंडदान इत्यादि करना होता है.
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भगवान गणेश भी पिशाच बाधा से मुक्ति के लिए यहां आए थे
जानकार बताते हैं कि जब गंगा का अवतरण भी धरती पर नहीं हुआ था उससे पहले का या पिशाच मोचन कुंड काशी में मौजूद है और खुद भगवान गणेश भी पिशाच बाधा से परेशान होने के बाद एक ब्राह्मण को लेकर यहां पहुंचे थे. गंगा स्नान के बाद भी जब उसको मुक्ति नहीं मिली तो पिशाच मोचन कुंड पर पहुंचकर उन्होंने उसे स्नान कराया, जिसके बाद उन्हें प्रेत बाधा से मुक्ति मिली थी यह कुंड अपने आप में बहुत महत्व रखता है, यही वजह है कि पितृपक्ष के 15 दिन बड़ी संख्या में लोगों का यहां आना होता है. अपने पितरों को प्रेत बाधा से मुक्ति दिलाकर उन्हें पितरों में मिलाने के उद्देश्य से काशी में पहला तर्पण कर लोग गया के लिए प्रस्थान करते हैं.