वाराणसी: दिवाली यानी कि दीप की अवली, जिसे हम दीपों की श्रृंखला कहते हैं. जिस शब्द से दिवाली की उत्पत्ति हुई. आज वही शब्द अपने अस्तित्व के लिए जद्दोजहद कर रहा है. जी हां! लॉकडाउन में तो कुम्हारों को एक फूटी कौड़ी नहीं मिली, लेकिन उनकी बची आस दिवाली थी, जिसके लिए कुम्हार जी जान से मेहनत कर रहे थे, मगर दिवाली ने भी उनकी आस को पूरी तरीके से तोड़ दिया. यह दिवाली भी कुम्हारों के लिए निराशा वाली रही. मुनाफे के नाम पर उनको कुछ नहीं मिला. जैसे-तैसे कुम्हार अपना गुजारा कर रहे हैं. उन्हें अभी भी इसकी उम्मीद है कि आने वाले दिन उनके लिए अच्छे होंगे.
कुम्हारों का हाल जानने के लिए ईटीवी भारत की टीम कुम्हारों के बीच गई और उनसे बातचीत की. इस दौरान दिवाली की आस और मुनाफे को लेकर कुम्हारों ने अपने मिली-जुली प्रतिक्रिया दी. किसी का कहना रहा कि सरकार की पहल का फायदा हुआ है, तो कोई अभी भी मायूस है कि धरातल पर कुछ नहीं बदल सकता है.
दीपों पर झालरों की चकाचौंध भारी
लोगों के घर को रोशन करने वाले कुम्हारों को आज अपने घर के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ रही है. आज चाक की मिट्टी भी अपने वजूद की तलाश कर रही है. एक दौर रहा करता था, जब कुम्हार दिवाली का इंतजार करते थे. लेकिन अब दिवाली भी मानो उनके लिए आम दिनों जैसी ही हो गई है. यूं तो दीपों के पर्व दीपावली और मिट्टी के दीयों का चोली दामन का साथ है, लेकिन आज भी दीपों से जगमगाती दिवाली पर आधुनिक झालरों की चकाचौंध भारी पड़ रही है.