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दीयों वाली दिवाली भी रोशन न कर सकी कुम्हारों के घर

यूपी के वाराणसी में कुम्हारों की स्थिति बेहद दयनीय है. यहां रहने वाले मिट्टी के जादूगर आज एक-एक रोटी के लिए मोहताज हैं. उन्हें उम्मीद थी कि दिवाली पर उनकी खूब बिक्री होगी, जिससे उनका खर्च चलेगा, लेकिन उनकी उम्मीदों पर पानी फिर गया. इस बार ग्राहक दुकानों पर नहीं ठहर रहे हैं. इस वजह से कुम्हारों की हालत खराब हो चली है.

स्पेशल रिपोर्ट.
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Published : Nov 14, 2020, 8:02 PM IST

वाराणसी: दिवाली यानी कि दीप की अवली, जिसे हम दीपों की श्रृंखला कहते हैं. जिस शब्द से दिवाली की उत्पत्ति हुई. आज वही शब्द अपने अस्तित्व के लिए जद्दोजहद कर रहा है. जी हां! लॉकडाउन में तो कुम्हारों को एक फूटी कौड़ी नहीं मिली, लेकिन उनकी बची आस दिवाली थी, जिसके लिए कुम्हार जी जान से मेहनत कर रहे थे, मगर दिवाली ने भी उनकी आस को पूरी तरीके से तोड़ दिया. यह दिवाली भी कुम्हारों के लिए निराशा वाली रही. मुनाफे के नाम पर उनको कुछ नहीं मिला. जैसे-तैसे कुम्हार अपना गुजारा कर रहे हैं. उन्हें अभी भी इसकी उम्मीद है कि आने वाले दिन उनके लिए अच्छे होंगे.

कुम्हारों का हाल जानने के लिए ईटीवी भारत की टीम कुम्हारों के बीच गई और उनसे बातचीत की. इस दौरान दिवाली की आस और मुनाफे को लेकर कुम्हारों ने अपने मिली-जुली प्रतिक्रिया दी. किसी का कहना रहा कि सरकार की पहल का फायदा हुआ है, तो कोई अभी भी मायूस है कि धरातल पर कुछ नहीं बदल सकता है.
स्पेशल रिपोर्ट.
क्या है कुम्हारों का कहना
राजेश कुमार का कहना रहा कि मुनाफा आधा-आधा रहा है, लेकिन सरकार ने बहुत अच्छी पहल की है. इससे थोड़ा लाभ भी है. लेकिन आर्थिक तंगी हमें बहुत ज्यादा देखनी पड़ रही है. इसकी वजह से हम सब बेहद परेशान हैं. वहीं कुम्हार राजनाथ ने बताया कि हम पूरी तरीके से टूट गए हैं. फायदा बिल्कुल भी नहीं है. लॉकडाउन ने हमें एक दम तोड़ दिया. हम कर्ज लेकर रोजी-रोटी चला रहे हैं. इस बार भी कोई मुनाफा नहीं हुआ. हमें उम्मीद थी कि शायद इस बार कुछ दीयों की बिक्री हो जाएगी और हमारा घर चल पाएगा, लेकिन नहीं. जो हजार रुपये मिल रहे हैं, वह नमक तेल में ही लग जा रहे हैं.
नहीं मिल रही मेहनताना
वहीं एक अन्य कुम्हार का कहना है कि हमारी जितनी लागत होती है, हमको उतना मुनाफा नहीं मिल पाता. हम दूर से मिट्टी ले करके आते हैं और कड़ी मेहनत से काम करते हैं. लेकिन इसके बाद भी हमारा मिट्टी का सामान ज्यादा दिख नहीं बिक रहा है. सरकार भले ही प्रयास कर रही है, लेकिन इन प्रयासों के बावजूद भी लोग मिट्टी के सामानों को ज्यादा नहीं खरीद रहे हैं. हमने सोचा था कि इस बार हमें मुनाफा होगा, लेकिन नहीं हो रहा. जो दीया 50 से 100 रुपये सैकड़ा बिकना चाहिए था, वह दीया भी 25 रुपये सैकड़ा बिक रहा है. इसमें न हमारी मिट्टी की लागत निकल रही है और न ही हमारा मेहनताना.


दीपों पर झालरों की चकाचौंध भारी
लोगों के घर को रोशन करने वाले कुम्हारों को आज अपने घर के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ रही है. आज चाक की मिट्टी भी अपने वजूद की तलाश कर रही है. एक दौर रहा करता था, जब कुम्हार दिवाली का इंतजार करते थे. लेकिन अब दिवाली भी मानो उनके लिए आम दिनों जैसी ही हो गई है. यूं तो दीपों के पर्व दीपावली और मिट्टी के दीयों का चोली दामन का साथ है, लेकिन आज भी दीपों से जगमगाती दिवाली पर आधुनिक झालरों की चकाचौंध भारी पड़ रही है.

वाराणसी: दिवाली यानी कि दीप की अवली, जिसे हम दीपों की श्रृंखला कहते हैं. जिस शब्द से दिवाली की उत्पत्ति हुई. आज वही शब्द अपने अस्तित्व के लिए जद्दोजहद कर रहा है. जी हां! लॉकडाउन में तो कुम्हारों को एक फूटी कौड़ी नहीं मिली, लेकिन उनकी बची आस दिवाली थी, जिसके लिए कुम्हार जी जान से मेहनत कर रहे थे, मगर दिवाली ने भी उनकी आस को पूरी तरीके से तोड़ दिया. यह दिवाली भी कुम्हारों के लिए निराशा वाली रही. मुनाफे के नाम पर उनको कुछ नहीं मिला. जैसे-तैसे कुम्हार अपना गुजारा कर रहे हैं. उन्हें अभी भी इसकी उम्मीद है कि आने वाले दिन उनके लिए अच्छे होंगे.

कुम्हारों का हाल जानने के लिए ईटीवी भारत की टीम कुम्हारों के बीच गई और उनसे बातचीत की. इस दौरान दिवाली की आस और मुनाफे को लेकर कुम्हारों ने अपने मिली-जुली प्रतिक्रिया दी. किसी का कहना रहा कि सरकार की पहल का फायदा हुआ है, तो कोई अभी भी मायूस है कि धरातल पर कुछ नहीं बदल सकता है.
स्पेशल रिपोर्ट.
क्या है कुम्हारों का कहना
राजेश कुमार का कहना रहा कि मुनाफा आधा-आधा रहा है, लेकिन सरकार ने बहुत अच्छी पहल की है. इससे थोड़ा लाभ भी है. लेकिन आर्थिक तंगी हमें बहुत ज्यादा देखनी पड़ रही है. इसकी वजह से हम सब बेहद परेशान हैं. वहीं कुम्हार राजनाथ ने बताया कि हम पूरी तरीके से टूट गए हैं. फायदा बिल्कुल भी नहीं है. लॉकडाउन ने हमें एक दम तोड़ दिया. हम कर्ज लेकर रोजी-रोटी चला रहे हैं. इस बार भी कोई मुनाफा नहीं हुआ. हमें उम्मीद थी कि शायद इस बार कुछ दीयों की बिक्री हो जाएगी और हमारा घर चल पाएगा, लेकिन नहीं. जो हजार रुपये मिल रहे हैं, वह नमक तेल में ही लग जा रहे हैं.
नहीं मिल रही मेहनताना
वहीं एक अन्य कुम्हार का कहना है कि हमारी जितनी लागत होती है, हमको उतना मुनाफा नहीं मिल पाता. हम दूर से मिट्टी ले करके आते हैं और कड़ी मेहनत से काम करते हैं. लेकिन इसके बाद भी हमारा मिट्टी का सामान ज्यादा दिख नहीं बिक रहा है. सरकार भले ही प्रयास कर रही है, लेकिन इन प्रयासों के बावजूद भी लोग मिट्टी के सामानों को ज्यादा नहीं खरीद रहे हैं. हमने सोचा था कि इस बार हमें मुनाफा होगा, लेकिन नहीं हो रहा. जो दीया 50 से 100 रुपये सैकड़ा बिकना चाहिए था, वह दीया भी 25 रुपये सैकड़ा बिक रहा है. इसमें न हमारी मिट्टी की लागत निकल रही है और न ही हमारा मेहनताना.


दीपों पर झालरों की चकाचौंध भारी
लोगों के घर को रोशन करने वाले कुम्हारों को आज अपने घर के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ रही है. आज चाक की मिट्टी भी अपने वजूद की तलाश कर रही है. एक दौर रहा करता था, जब कुम्हार दिवाली का इंतजार करते थे. लेकिन अब दिवाली भी मानो उनके लिए आम दिनों जैसी ही हो गई है. यूं तो दीपों के पर्व दीपावली और मिट्टी के दीयों का चोली दामन का साथ है, लेकिन आज भी दीपों से जगमगाती दिवाली पर आधुनिक झालरों की चकाचौंध भारी पड़ रही है.

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