वाराणसी: कोविड-19 महामारी ने लोगों के सामाजिक, आर्थिक और मानसिक सभी पहलुओं पर गहरा आघात किया है. शेयर मार्केट, बड़ी कंपनियां या फिर छोटे दुकानदार कोई भी इसके प्रभाव से अछूता नहीं है. मल्टीनेशनल कंपनियां, बड़े उद्योगपति तो जैसे-तैसे खुद का बिजनेस संभाले हुए हैं, लेकिन कुटीर उद्योग और छोटा व्यवसाय कर अपना जीवनयापन करने वालों के सामने जीविकोपार्जन की एक बड़ी मुसीबत है, जिसका वे हर दिन सामना कर रहे हैं.
कोरोना बना अभिशाप
कोरोना काल में छोटे व्यापारियों, लॉन्ड्री का व्यापार करने वाले धोबियों की स्थिति बेहद ही खराब है. कोरोना के चलते उनके पास ग्राहक नहीं पहुंच रहे हैं, जिससे धोबियों के सामने पैसे की समस्या खड़ी हो गई है. ईटीवी भारत ने वाराणसी में रह रहे धोबियों की स्थिति के बारे में जानने की कोशिश की. इस दौरान हमारी टीम ने जाना कि कोरोना ने इस व्यवसाय से जुड़े लोगों पर कितना आघात किया है. वाराणसी के कोनिया धोबी घाट पर काम करने वाले धोबी मदन लाल ने बताया कि कोरोना उनके लिए अभिशाप बन गया है. उनकी मानें तो जब से कोरोना आया है, उनका धंधा चौपट हो गया है. मदन लाल के सामने खाने के लाले पड़े हैं. मदन लाल को एक कपड़े के धोने का मात्र 16 रुपये मिलते हैं. वह भी इन दिनों बंद पड़ा हुआ है. कोरोना के कारण बहुत सारे लोग अपने कपड़े धुलने के लिए नहीं दे रहे हैं. धोबी मदन लाल ने बताया कि उन्हें खुद भी कपड़े धोने में डर सा लगने लगा है.
परिवार के लिए जोखिम उठा रहे धोबी
धोबी मनोज कन्नौजिया ने बताया कि वह मजबूर हैं और अपने परिवार का पेट पालने के लिए जोखिम उठा रहे हैं. मनोज कन्नौजिया ने बताया कि इन दिनों वे ग्राहक के कपड़े को लेकर सभी सावधानियां बरतते हैं, लेकिन फिर भी मन में डर सा बना हुआ है. जिला धोबी घाट बचाओ संघर्ष समिति के महामंत्री अनिल कन्नौजिया ने जानकारी दी कि पहले दिन भर में खूब कपड़े धुल दिया करते थे, लेकिन इन दिनों बस 2-4 कपड़े धुल रहे हैं. वह भी कभी-कभी ही धुलने को मिल रहे हैं. ऐसे में कैसे होगा कुछ समझ नहीं आ रहा है.
अजनबियों से नहीं ले रहे कपड़े
कपड़े प्रेस करने वाले बाबू कनौजिया बताते हैं कि इन दिनों धंधा एकदम चौपट चल रहा है. हालत यह है कि न कारीगर को खर्च दे पा रहे हैं और तो और दुकान का किराया तक भी नहीं निकल पा रहा है इसके साथ ही बिजली का बिल भी नहीं चुका पा रहे हैं. दुकान पर ग्राहक एकदम न के बराबर आ रहे हैं. आजकल सभी ग्राहकों से कपड़े भी नहीं लिए जा रहे हैं. रूटीन के ग्राहकों से तो कपड़े आसानी से ले रहे हैं, लेकिन जो अजनबी हैं, उनसे कपड़े लेने में डर लग रहा है. बाबू कनौजिया ने बताया कि एक कपड़े को धुलकर प्रेस करने की कीमत 35 रुपये होती है, जिसमें 16 रुपये कारीगर को देना होता है. पहले तो होटल, रेस्टोरेंट और लोगों की यूनीफार्म धुलने, प्रेस करने के लिए आ जाती थी, लेकिन कोरोना से यह सब बंद है, जिसके चलते बहुत घाटा हो रहा है.