वाराणसी : पितरों को तृप्त कर उनका आशीर्वाद लेने के लिए पितृपक्ष के 15 दिन विशेष पूजन पाठ होता है. हर दिन पितरों को जल देना, पिंड दान करना और काला तिल अर्पण कर विधि विधान से पूजन संपन्न करना यह इन दिनों काशी में गंगा घाट से लेकर पिशाच मोचन कुंड तक देखने को मिल रहा है. घरों में भी लोग विधि-विधान से तर्पण इत्यादि कर पितरों का आशीर्वाद प्राप्त करने में जुटे हैं. लेकिन क्या आप जानते हैं कि पितृपक्ष के दौरान किया जाने वाला श्राद्ध कर्म और इसमें इस्तेमाल होने वाला काला तिल, जौ, आटा और पानी का क्या महत्व है. आइए हम आपको बताते हैं शास्त्रों में इनका क्या विशेष महत्व बताया गया है पितृपक्ष के दौरान.
श्राद्ध कर्म में इस्तेमाल किए जाने वाले पदार्थों का महत्व
15 दिन के पितृपक्ष में लोग अपने पितरों को खुश करने के लिए व उनकी कृपा उन पर बनी रहने के लिए श्राद्ध कर्म करते हैं. इस 15 दिन लोग पितरों को जल देने के साथ ही काले तिल का प्रयोग कर संकल्प करते हैं. इस दौरान हाथ के बीच की ऊंगली में कुशा की अंगूठी भी पहनी जाती है. इतना ही नहीं जब पिंड जमीन पर रखे जाते हैं तो उसके पहले कुशा को जमीन पर रखकर उस पर पिंड रखने का विधान है.
पिशाचमोचन तीर्थ के पुरोहित पंडित मुन्नालाल बताते हैं
ईटीवी भारत से बातचीत में पुरोहित पंडित मुन्नालाल बताते हैं कि हिंदू धर्म शास्त्र में पितृपक्ष के 15 दिन के दौरान पिंडदान तर्पण व जल देने का विशेष महत्व माना जाता है. इसमें इस्तेमाल किए जाने वाले काले तिल जौ और आटे के साथ इस्तेमाल किए जाने वाला पानी और कुशा का विशेष महत्व है. प्रेत 3 प्रकार के होते हैं, राजस, तामस, सात्विक, चौथा प्रेत मन का भ्रम है. इन तीन तरह के प्रेत योनि के लिए काला तिल, जौ का आटा और जल का प्रयोग किया जाता है.
काले तिल का प्रयोग तामसी प्रेत के लिए किया जाता है जो शिव का स्वरूप हैं. जबकि चावल का प्रयोग ब्रह्मा के लिए होता है और जौ का उपयोग भगवान विष्णु के लिए किया जाता है. इन 15 दिनों तक पिंड व जल के माध्यम से पितरों तक भोजन व पानी पहुंचा कर उन्हें पूरे साल भर के लिए तृप्त करने का काम किया जाता है. ताकि उनका आशीर्वाद पूरे साल मिलता क्योंकि ईश्वर से पहले पितरों का आशीर्वाद महत्वपूर्ण होता है.
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कुश का विशेष महत्व
पुरोहित मुन्नालाल बताते हैं कि श्राद्ध कर्म और तर्पण में इन चीजों के इस्तेमाल के अलावा सबसे महत्वपूर्ण है कुशा का इस्तेमाल. क्योंकि कुशा सबसे शुद्ध मानी जाती है. कुशा के आसन पर बैठकर उंगली में कुशा नुमा अंगूठी पहन कर ही श्राद्ध कर्म इत्यादि करने का विधान है. यहां तक कि कन्यादान के दौरान भी कुशा उंगली में पहन कर संकल्प पूरा करने पर ही कन्यादान की रस्म पूरी मानी जाती है.