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दिवाली पर बनारसी गणेश-लक्ष्मी की मूर्तियों का है विशेष महत्व, वक्त के थपेड़ों में खत्म हो रहा यह कारोबार

वाराणसी में दीपावली (Diwali in Varanasi) पर गंगा की मिट्टी से तैयार गणेश-लक्ष्मी की मूर्तियां (Ganesh-Lakshmi idols) सबसे अद्भुत मानी जाती हैं. यहां की बनी मर्तियों को दिल्ली, मुंबई, पटना, गया तक भेजा जाता है. लेकिन यह मोहल्ला अनूठी कला के क्षेत्र में दम तोड़ता नजर आ रहा है.

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By ETV Bharat Uttar Pradesh Team

Published : Nov 10, 2023, 8:58 AM IST

Updated : Nov 10, 2023, 9:15 AM IST

मूर्तियों के कारीगर महिलाओं ने बताया.

वाराणसी: ईश्वर की सबसे सुंदर रचना इंसान है. इंसान को बनाने के बाद भगवान भी यही सोचते होंगे कि उनकी यह संरचना कितनी अद्भुत है, जो धरती पर उनके द्वारा भेजे जाने के बाद खुद उनको ही बना देती है. यानी जिस इंसान को भगवान ने बनाया है, उसी इंसान ने भगवान का निर्माण करना शुरु कर दिया है. यह सत्य उन मूर्तिकारों पर बिल्कुल सटीक बैठता है जो देश और दुनिया के कोने कोने में भगवान की प्रतिमाओं को अपनी सोच और विचारों से गढ़ते हैं.

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गणेश-लक्ष्मी की मूर्तियां तैयार करती कमला देवी.

वाराणसी में मूर्तियों की अद्भुत और अनूठी कला
सबसे बड़ी बात यह है कि जिस भगवान को इंसान ने कभी देखा ही नहीं है. इसके बावजूद भी उसकी मूरत या छवि की कल्पना करते हुए उनको मिट्टी के सांचे में उतार देता है. भगवान की सुंदर-सुंदर प्रतिमाओं के बनाने का काम मूर्तिकार करते हैं और ऐसी ही एक अद्भुत और अनूठी कला को धर्म नगरी वाराणसी में सदियों से आकृति देकर अपना पेट पालने का काम कुछ मूर्तिकार करते आ रहे हैं. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि बनारस में दीपावली के मौके पर बनाई जाने वाली गणेश लक्ष्मी की यह आकृतियां सिर्फ बनारस में ही तैयार होती हैं.

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गणेश-लक्ष्मी की मूर्तियों की अलग है ठाठ.

बनारस की मूर्ति कला विलुप्त की कगार पर
गंगा की मिट्टी और बिना किसी केमिकल कलर के तैयार होने वाली इन मूर्तियों को तीली वाली मूर्तियों के नाम से जाना जाता है लेकिन वक्त के साथ समय के कुचक्र में बनारस का यह पुश्तैनी कारोबार दम तोड़ता नजर आ रहा है. हालत यह है कि जो काम कल तक पूरे मोहल्ले में दर्जनों परिवारों तक फैला था. अब वह गिने चुने दो-तीन परिवारों में ही सिमट गया है. जिसके बाद अब यह सोचना लाजमी है कि अगर यह बनारस की मूर्ति कला विलुप्त हो गई तो आखिर इनको सुरक्षित और संरक्षित करने के साथ इन्हें जीवित रखने का काम कौन करेगा ? क्योंकि सरकार भी इन मूर्तिकारों से अपनी नजरें फेरे हुए है.

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65 वर्षीय कमला देवी गणेश-लक्ष्मी की मूर्तियां बनाने की एक्सपर्ट हैं.
अनूठी कला के लिए मशहूर है मुहल्लायूं तो बनारस अपनी कला संस्कृति और सभ्यता के लिए जाना जाता है. यहां की गुलाबी मीनाकारी हो या लकड़ी के खिलौने, बनारसी पान हो या बनारसी साड़ियां बहुत सी ऐसी कलाकृतियां और काम है जो बनारस को पूरे विश्व में एक अलग पहचान दिलाता है. ऐसे ही कामों में बनारस के लक्सा इलाके में पड़ने वाला प्रजापतियों का एक मोहल्ला है. कल तक इस मोहल्ले को बनारस की सबसे अनूठी कला के लिए जाना जाता था. अब यह मोहल्ला अनूठी कला के क्षेत्र में दम तोड़ता हुआ नजर आ रहा है. दीपावली के त्यौहार के साथ ही अन्य त्योहारों पर बनारस के इस मोहल्ले में तैयार होने वाली मूर्तियों की धमक हर जगह हुआ करती थी. लेकिन वक्त के थपेड़ों ने इस कारोबार के आगे बड़ा संकट पैदा कर दिया है.
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मूर्तियों से 2 से 3 लाख का कारोबार होता है.

कारीगरों के सामने बड़ा संकट
हालांकि अभी भी दीपावली पर वाराणसी समेत पूर्वांचल के तमाम जिलों के अलावा दिल्ली, मुंबई, पटना, गया तक मूर्तियों को भेजा जाता है. इसके अलावा नेपाल बॉर्डर तक इन मूर्तियों को भेजा जाता है. वहां पर मूर्तियां बेचने वाले कारोबारी बनारस की गंगा की मिट्टी, सिंदूर और आलता के बल पर तैयार होने वाली इन मूर्तियों का अच्छा खासा कारोबार करते हैं लेकिन इन मूर्तियों को तैयार करने वाले कारीगरों के सामने बड़ा संकट है. खास तौर पर उन महिलाओं के आगे जो अपने परिवार को छोड़कर इन मूर्तियों को बनाकर पूरे साल अपने परिवार का पेट पालने की जुगत में लगी रहती हैं.

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मधु प्रजापति मूर्तियों में कलाकारी करते हुए.

प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्तियों की बढ़ी मांग
ऐसे ही कई पीढियों से काम करने वाली मधु प्रजापति भी लंबे वक्त से इस काम से जुड़ी हुई हैं. मधु ने ईटीवी भारत को बताया कि कम से कम उनकी 10वीं या 12वीं पीढ़ी इस काम को कर रही है. वह जिस मोहल्ले में रहते हैं. उसे मोहल्ले का हर मकान पहले उन्हीं लोगों का हुआ करता था. उनके समाज के लोग जगह-जगह इन मूर्तियों को बनाकर इसकी सप्लाई का काम करते थे, क्योंकि यह गंगा की मिट्टी से बनने वाली मूर्तियां सिर्फ बनारस में ही तैयार होती हैं. जिनको तीली वाली मूर्तियों के नाम से जाना जाता है. इन मूर्तियों की पवित्रता मिट्टी से होने की वजह से इनको और भी खास माना जाता है. वर्तमान समय में प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्तियों की डिमांड और कोलकाता की फैशनेबल मूर्तियों की डिमांड बढ़ती जा रही है और हमारे इस कारोबार से जुड़े लोगों की संख्या भी बेहद कम हो गई है. पहले इस मोहल्ले में ही लगभग 15 से ज्यादा परिवार इस काम से जुड़े थे लेकिन अब सिर्फ 2 या 3 परिवार ही बचे हैं.

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गंगा की मिट्टी से तैयार गणेश-लक्ष्मी की मूर्तियां.
खरीदारों की संख्या भी घटीमधु ने बताया कि अब नई पीढ़ी इस काम में नहीं आना चाहती है. इस काम में मुनाफा कम होने की वजह से वर्तमान समय में लोग इस काम को छोड़कर नौकरी या अन्य काम करने में लगे हैं. मधु ने बताया कि उनके पति भी एक जगह नौकरी करते हैं, क्योंकि घर का खर्च पूरे साल चलाना मुश्किल होता है. सिर्फ त्यौहार के वक्त घर की लगभग चार-पांच महिलाएं मिलकर इन मूर्तियों को तैयार करने का काम करती हैं. अपने बच्चों और अपने घर की चिंता को छोड़कर वह साल भर की मेहनत का प्रतिफल पाने की इच्छा से मूर्तियां बनाती हैं. लगभग एक से डेढ़ लाख रुपये कमाकर वह इन मूर्तियों को तैयार करके अपने घर का खर्च और पेट पालने का प्रयास करती हैं. इसके साथ ही वक्त के थपेड़ों ने अब इस कारोबार पर बड़ा असर डाला है. अब मिट्टी भी जल्दी मिलती नहीं और खरीदारों की संख्या भी धीरे-धीरे कम हो रही है, जो कारोबार हर साल पहले 5 से 7 लाख रुपए में होता था. वह सिमट कर दो से तीन लाख पर आ गया है. धीरे-धीरे इसकी संख्या कम हो रही है और यह कला भी विलुप्त होती जा रही है.

वर्तमान पीढ़ी हो गई है दूर
मधु प्रजापति ने बताया कि उनकी सास कमला देवी इस काम को लगभग 50 सालों से कर रही हैं. शादी के बाद से ही वह इस काम में वह लग गई थी और इस काम की एक्सपर्ट मानी जाती हैं लेकिन अब आंखें काम न करने की वजह से वह भी इस काम को धीरे-धीरे छोड़ रही हैं. उनके बच्चे और वर्तमान पीढ़ी इस काम को छूना ही नहीं चाहती है. कम प्रॉफिट और ज्यादा मेहनत के कारण लोग इस काम से दूर हो रहे हैं.

सरकार नही दे रही ध्यान
सबसे बड़ी बात यह है कि सरकार बनारस की अन्य कलाओं को तो संरक्षित कर रही है. लेकिन तीली वाली इन मूर्तियों पर किसी का ध्यान ही नहीं है. जबकि यह सिर्फ बनारस की कला है, अगर यह बनारस से विलुप्त हो गई तो फिर इसे पुनः जीवित करना मुश्किल हो जाएगा. इसलिए सरकार को प्रजापति समाज की इस कला को सुरक्षित और संरक्षित करने के लिए मिट्टी का प्रबंध करने के साथ ही अन्य चीजों पर भी ध्यान देना चाहिए, ताकि वह इस काम को आगे बढ़ते हुए इसे जीवित रख सकें.

इस कला को नई पहचान मिलनी चाहिए
मूर्तियों की एक्सपर्ट 65 वर्षीय कमला देवी ने बताया कि अब इस काम में प्रॉफिट नहीं रह गया है. 40 से 45 रुपया लगाकर एक मूर्ति बनती है और 70 से 80 रुपए में बिकती है. एक मूर्ति पर 30 से 35 का भी फायदा नहीं होता है. जबकि मेहनत बहुत ज्यादा लगती है. इसलिए सरकार को भी इस तरफ ध्यान देना चाहिए. सरकार को कम से कम इस कला को सुरक्षित करने के लिए लोगों की मदद करनी चाहिए. उन्होंने कहा कि बनारस के इस प्रजापति परिवार को भी एक नई पहचान मिलनी चाहिए.

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मूर्तियों के कारीगर महिलाओं ने बताया.

वाराणसी: ईश्वर की सबसे सुंदर रचना इंसान है. इंसान को बनाने के बाद भगवान भी यही सोचते होंगे कि उनकी यह संरचना कितनी अद्भुत है, जो धरती पर उनके द्वारा भेजे जाने के बाद खुद उनको ही बना देती है. यानी जिस इंसान को भगवान ने बनाया है, उसी इंसान ने भगवान का निर्माण करना शुरु कर दिया है. यह सत्य उन मूर्तिकारों पर बिल्कुल सटीक बैठता है जो देश और दुनिया के कोने कोने में भगवान की प्रतिमाओं को अपनी सोच और विचारों से गढ़ते हैं.

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गणेश-लक्ष्मी की मूर्तियां तैयार करती कमला देवी.

वाराणसी में मूर्तियों की अद्भुत और अनूठी कला
सबसे बड़ी बात यह है कि जिस भगवान को इंसान ने कभी देखा ही नहीं है. इसके बावजूद भी उसकी मूरत या छवि की कल्पना करते हुए उनको मिट्टी के सांचे में उतार देता है. भगवान की सुंदर-सुंदर प्रतिमाओं के बनाने का काम मूर्तिकार करते हैं और ऐसी ही एक अद्भुत और अनूठी कला को धर्म नगरी वाराणसी में सदियों से आकृति देकर अपना पेट पालने का काम कुछ मूर्तिकार करते आ रहे हैं. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि बनारस में दीपावली के मौके पर बनाई जाने वाली गणेश लक्ष्मी की यह आकृतियां सिर्फ बनारस में ही तैयार होती हैं.

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गणेश-लक्ष्मी की मूर्तियों की अलग है ठाठ.

बनारस की मूर्ति कला विलुप्त की कगार पर
गंगा की मिट्टी और बिना किसी केमिकल कलर के तैयार होने वाली इन मूर्तियों को तीली वाली मूर्तियों के नाम से जाना जाता है लेकिन वक्त के साथ समय के कुचक्र में बनारस का यह पुश्तैनी कारोबार दम तोड़ता नजर आ रहा है. हालत यह है कि जो काम कल तक पूरे मोहल्ले में दर्जनों परिवारों तक फैला था. अब वह गिने चुने दो-तीन परिवारों में ही सिमट गया है. जिसके बाद अब यह सोचना लाजमी है कि अगर यह बनारस की मूर्ति कला विलुप्त हो गई तो आखिर इनको सुरक्षित और संरक्षित करने के साथ इन्हें जीवित रखने का काम कौन करेगा ? क्योंकि सरकार भी इन मूर्तिकारों से अपनी नजरें फेरे हुए है.

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65 वर्षीय कमला देवी गणेश-लक्ष्मी की मूर्तियां बनाने की एक्सपर्ट हैं.
अनूठी कला के लिए मशहूर है मुहल्लायूं तो बनारस अपनी कला संस्कृति और सभ्यता के लिए जाना जाता है. यहां की गुलाबी मीनाकारी हो या लकड़ी के खिलौने, बनारसी पान हो या बनारसी साड़ियां बहुत सी ऐसी कलाकृतियां और काम है जो बनारस को पूरे विश्व में एक अलग पहचान दिलाता है. ऐसे ही कामों में बनारस के लक्सा इलाके में पड़ने वाला प्रजापतियों का एक मोहल्ला है. कल तक इस मोहल्ले को बनारस की सबसे अनूठी कला के लिए जाना जाता था. अब यह मोहल्ला अनूठी कला के क्षेत्र में दम तोड़ता हुआ नजर आ रहा है. दीपावली के त्यौहार के साथ ही अन्य त्योहारों पर बनारस के इस मोहल्ले में तैयार होने वाली मूर्तियों की धमक हर जगह हुआ करती थी. लेकिन वक्त के थपेड़ों ने इस कारोबार के आगे बड़ा संकट पैदा कर दिया है.
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मूर्तियों से 2 से 3 लाख का कारोबार होता है.

कारीगरों के सामने बड़ा संकट
हालांकि अभी भी दीपावली पर वाराणसी समेत पूर्वांचल के तमाम जिलों के अलावा दिल्ली, मुंबई, पटना, गया तक मूर्तियों को भेजा जाता है. इसके अलावा नेपाल बॉर्डर तक इन मूर्तियों को भेजा जाता है. वहां पर मूर्तियां बेचने वाले कारोबारी बनारस की गंगा की मिट्टी, सिंदूर और आलता के बल पर तैयार होने वाली इन मूर्तियों का अच्छा खासा कारोबार करते हैं लेकिन इन मूर्तियों को तैयार करने वाले कारीगरों के सामने बड़ा संकट है. खास तौर पर उन महिलाओं के आगे जो अपने परिवार को छोड़कर इन मूर्तियों को बनाकर पूरे साल अपने परिवार का पेट पालने की जुगत में लगी रहती हैं.

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मधु प्रजापति मूर्तियों में कलाकारी करते हुए.

प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्तियों की बढ़ी मांग
ऐसे ही कई पीढियों से काम करने वाली मधु प्रजापति भी लंबे वक्त से इस काम से जुड़ी हुई हैं. मधु ने ईटीवी भारत को बताया कि कम से कम उनकी 10वीं या 12वीं पीढ़ी इस काम को कर रही है. वह जिस मोहल्ले में रहते हैं. उसे मोहल्ले का हर मकान पहले उन्हीं लोगों का हुआ करता था. उनके समाज के लोग जगह-जगह इन मूर्तियों को बनाकर इसकी सप्लाई का काम करते थे, क्योंकि यह गंगा की मिट्टी से बनने वाली मूर्तियां सिर्फ बनारस में ही तैयार होती हैं. जिनको तीली वाली मूर्तियों के नाम से जाना जाता है. इन मूर्तियों की पवित्रता मिट्टी से होने की वजह से इनको और भी खास माना जाता है. वर्तमान समय में प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्तियों की डिमांड और कोलकाता की फैशनेबल मूर्तियों की डिमांड बढ़ती जा रही है और हमारे इस कारोबार से जुड़े लोगों की संख्या भी बेहद कम हो गई है. पहले इस मोहल्ले में ही लगभग 15 से ज्यादा परिवार इस काम से जुड़े थे लेकिन अब सिर्फ 2 या 3 परिवार ही बचे हैं.

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गंगा की मिट्टी से तैयार गणेश-लक्ष्मी की मूर्तियां.
खरीदारों की संख्या भी घटीमधु ने बताया कि अब नई पीढ़ी इस काम में नहीं आना चाहती है. इस काम में मुनाफा कम होने की वजह से वर्तमान समय में लोग इस काम को छोड़कर नौकरी या अन्य काम करने में लगे हैं. मधु ने बताया कि उनके पति भी एक जगह नौकरी करते हैं, क्योंकि घर का खर्च पूरे साल चलाना मुश्किल होता है. सिर्फ त्यौहार के वक्त घर की लगभग चार-पांच महिलाएं मिलकर इन मूर्तियों को तैयार करने का काम करती हैं. अपने बच्चों और अपने घर की चिंता को छोड़कर वह साल भर की मेहनत का प्रतिफल पाने की इच्छा से मूर्तियां बनाती हैं. लगभग एक से डेढ़ लाख रुपये कमाकर वह इन मूर्तियों को तैयार करके अपने घर का खर्च और पेट पालने का प्रयास करती हैं. इसके साथ ही वक्त के थपेड़ों ने अब इस कारोबार पर बड़ा असर डाला है. अब मिट्टी भी जल्दी मिलती नहीं और खरीदारों की संख्या भी धीरे-धीरे कम हो रही है, जो कारोबार हर साल पहले 5 से 7 लाख रुपए में होता था. वह सिमट कर दो से तीन लाख पर आ गया है. धीरे-धीरे इसकी संख्या कम हो रही है और यह कला भी विलुप्त होती जा रही है.

वर्तमान पीढ़ी हो गई है दूर
मधु प्रजापति ने बताया कि उनकी सास कमला देवी इस काम को लगभग 50 सालों से कर रही हैं. शादी के बाद से ही वह इस काम में वह लग गई थी और इस काम की एक्सपर्ट मानी जाती हैं लेकिन अब आंखें काम न करने की वजह से वह भी इस काम को धीरे-धीरे छोड़ रही हैं. उनके बच्चे और वर्तमान पीढ़ी इस काम को छूना ही नहीं चाहती है. कम प्रॉफिट और ज्यादा मेहनत के कारण लोग इस काम से दूर हो रहे हैं.

सरकार नही दे रही ध्यान
सबसे बड़ी बात यह है कि सरकार बनारस की अन्य कलाओं को तो संरक्षित कर रही है. लेकिन तीली वाली इन मूर्तियों पर किसी का ध्यान ही नहीं है. जबकि यह सिर्फ बनारस की कला है, अगर यह बनारस से विलुप्त हो गई तो फिर इसे पुनः जीवित करना मुश्किल हो जाएगा. इसलिए सरकार को प्रजापति समाज की इस कला को सुरक्षित और संरक्षित करने के लिए मिट्टी का प्रबंध करने के साथ ही अन्य चीजों पर भी ध्यान देना चाहिए, ताकि वह इस काम को आगे बढ़ते हुए इसे जीवित रख सकें.

इस कला को नई पहचान मिलनी चाहिए
मूर्तियों की एक्सपर्ट 65 वर्षीय कमला देवी ने बताया कि अब इस काम में प्रॉफिट नहीं रह गया है. 40 से 45 रुपया लगाकर एक मूर्ति बनती है और 70 से 80 रुपए में बिकती है. एक मूर्ति पर 30 से 35 का भी फायदा नहीं होता है. जबकि मेहनत बहुत ज्यादा लगती है. इसलिए सरकार को भी इस तरफ ध्यान देना चाहिए. सरकार को कम से कम इस कला को सुरक्षित करने के लिए लोगों की मदद करनी चाहिए. उन्होंने कहा कि बनारस के इस प्रजापति परिवार को भी एक नई पहचान मिलनी चाहिए.

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Last Updated : Nov 10, 2023, 9:15 AM IST
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