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यहां हुई थी देव दीपावली की शुरुआत, एक हजारा दीपक के स्तंभ से जगमगाता था काशी का हर घाट

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Published : Nov 4, 2022, 10:14 AM IST

वाराणसी में सभी त्यौहार खत्म होने के बाद कार्तिक के अंतिम दिन एक ऐसा पर्व मनाया जाता है, जिसकी महिमा का वर्णन पुराणों में भी है. इसका नाम है "देव दीपावली". इस दीपावली की शुरुआत काशी के एक ऐसे घाट से हुई जहां पर एक नहीं बल्कि पांच नदियों का समागम है. देखिए यह रिपोर्ट

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काशी देव दीपावली

वाराणसी: कार्तिक का महीना हमेशा से त्योहारों का महीना कहा जाता है. क्योंकि प्रकाश पर्व दीपावली और छठ मैया के पूजन के साथ ही तमाम त्यौहार इस दौरान मनाए जाते हैं. लेकिन, ऐसा भी माना जाता है कि दीपावली के बाद छठ पूजन जैसे ही खत्म होता है, वैसे ही त्योहारों की श्रंखला भी धीरे-धीरे सिमटना शुरू हो जाती है. काशी में सब त्यौहार खत्म होने के बाद कार्तिक के अंतिम दिन एक ऐसा पर्व मनाया जाता है. जिसकी महिमा का वर्णन पुराणों में भी वर्णित है.

जानकारी देते आचार्य वागीश दत्त शास्त्री

यह पर्व अब इंटरनेशनल लेवल पर एक अलग पहचान बना चुका है. इसका नाम है "देव दीपावली". नाम से ही प्रतीत होता है कि यह पर्व देवताओं की दीपावली के रूप में मनाया जाता है. लेकिन, कम लोगों को ही पता है कि इस एक दीपावली की शुरुआत काशी के एक ऐसे घाट से हुई जहां पर एक नहीं बल्कि पांच नदियों का समागम है. इस घाट पर एक हजारा दीपक जलाकर सैकड़ों साल पहले 17वीं शताब्दी में इस पर्व की शुरुआत की गई थी. देखते ही देखते यह पर्व काशी के 84 घाटों से होते हुए सात समंदर पार तक काशी की गरिमा और महिमा का बखान कर रहा है. आइए हम आपको बताते हैं काशी की देव दीपावली का वह पुरातन राज जिसने इस पर्व को आज नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया है.

दरअसल, काशी परंपरा और संस्कृति को संजोकर रखने वाली वह माला है जिसमें ना जाने कितने अनगिनत मोती आज भी पीरो कर रखे गए हैं. इन्हीं मोतियों में शामिल है देव दीपावली का पर्व. इस बार 7 नवंबर को यह पर्व पूरे धूमधाम के साथ काशी में मनाया जाएगा. 10 लाख से ज्यादा दिए जलाने की तैयारी भी काशी में की गई है. 84 घाटों के अलावा गंगा उस पार भी दीपक जगमगाएंगे और काशी एक अद्भुत रूप में दिखाई देगी.


इन सबके बीच काशी के पंचगंगा घाट का महत्व अपने आप में बेहद महत्वपूर्ण है. क्योंकि यही वही घाट है जहां से इस देव दीपावली पर्व की शुरुआत मानी जाती है. यदि शिवपुराण की मानें तो जब त्रिपुरासुर राक्षस के आतंक से पूरा जग परेशान था. देवता त्राहिमाम कर रहे थे. तब, भगवान शिव ने उस राक्षस का वध करके सभी देवताओं को उसके आतंक से मुक्ति दिलाई थी. तभी से भोलेनाथ को त्रिपुरारी के नाम से जाना जाने लगा. भोलेनाथ की तरफ से त्रिपुरासुर के वध के बाद उन की नगरी काशी में आकर देवताओं ने गंगा घाटों पर दीपक जलाकर भोलेनाथ को नमन किया था और उन्हें धन्यवाद अर्पित किया था. एक कथानक तो यह है. लेकिन, दूसरा जब काशी में भगवान विश्वेश्वर के शिवलिंग की स्थापना हुई उसके बाद अहिल्याबाई होल्कर ने 17वीं शताब्दी में भगवान भोलेनाथ के पुनः काशी आगमन पर पंचगंगा घाट पर स्नान करने के बाद यहां पर एक हजार स्तंभ दीपक बनवाया था. इसमें एक बार में 1000 दीपक पत्थरों की श्रंखला पर जगमगाते थे. वह दीपक स्तम्भ आज भी यहां मौजूद है. इसके अतिरिक्त दो अन्य राजाओं के 100 दीपक का स्तंभ और 500 दीपक का स्तंभ भी यहां पर बनवाया गया. जिनमें से एक तो है. लेकिन, एक समय के साथ खत्म हो गया.

इसे भी पढ़े-काशी के इन परिवारों के लिए खुशियों का उजाला लेकर आया देव दीपावली का पर्व, जानिए कैसे


केंद्रीय देव दीपावली महा समिति के अध्यक्ष और देव दीपावली को इस स्तर तक ले जाने के प्रयास करने वालों में शामिल आचार्य वागीश दत्त शास्त्री ने बताया कि पंचगंगा घाट पर ही देव दीपावली का उद्भव माना जाता है. ऐसी मान्यता है कि सबसे पहले इसी घाट पर हजारों स्तंभ दीपक जलाकर हर कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन देव दीपावली का पर्व मनाया जाता था. पुराणों में वर्णित इस दीपावली को देव दीपावली देवताओं की दीपावली के रूप में कहा जाता है. अहिल्याबाई होल्कर ने इसकी शुरुआत पुनः करके काशी को एक नया पर्व मनाने का मौका दिया था. तभी से यह परंपरा चली आ रही है और समय के साथ यह परंपरा स्मार्ट होती गई. काशी के घाटों पर इसका विस्तार होता चला गया. आज इस रूप में यह पर्व पूरी दुनिया के सामने हैं. इसे मनाने के लिए सिर्फ देश ही नहीं बल्कि, दुनिया के कोने-कोने से लोग काशी पहुंचते हैं.

सबसे बड़ी बात यह है कि कार्तिक मास में एक तरफ जहां गंगा स्नान का अपना महत्व है. वहीं, पंचगंगा घाट पर डुबकी लगाने का विशेष महत्व माना जाता है. ऐसी मान्यता है कि पंचगंगा घाट पर कार्तिक मास में स्नान मात्र से ही सारी बाधाओं और पापों से मुक्ति मिल जाती है. इसकी बड़ी वजह यह है कि पंचगंगा घाट पर पांच नदियों का समागम माना जाता है. इन पांच नदियों में गंगा, यमुना, सरस्वती, किरण और धुतपापा शामिल हैं. यह सभी नदियां यहां पर गुप्त रूप में एक साथ मिलती हैं और यह वह पवित्र स्थान है जहां पर संत कबीर दास को उनके गुरु रामानंद की तरफ से दीक्षा मिली थी. इस घाट का महत्व अपने आप में अद्भुत है. इसी परंपरा को निभाते हुए लोग यहां दीपदान करने दूर-दूर से आते हैं.

यह भी पढ़े-इस बार देव दीपावली से पहले वाराणसी नगर निगम के सामने बड़ा चैलेंज, घाटों पर लगा कीचड़ का अंबार

वाराणसी: कार्तिक का महीना हमेशा से त्योहारों का महीना कहा जाता है. क्योंकि प्रकाश पर्व दीपावली और छठ मैया के पूजन के साथ ही तमाम त्यौहार इस दौरान मनाए जाते हैं. लेकिन, ऐसा भी माना जाता है कि दीपावली के बाद छठ पूजन जैसे ही खत्म होता है, वैसे ही त्योहारों की श्रंखला भी धीरे-धीरे सिमटना शुरू हो जाती है. काशी में सब त्यौहार खत्म होने के बाद कार्तिक के अंतिम दिन एक ऐसा पर्व मनाया जाता है. जिसकी महिमा का वर्णन पुराणों में भी वर्णित है.

जानकारी देते आचार्य वागीश दत्त शास्त्री

यह पर्व अब इंटरनेशनल लेवल पर एक अलग पहचान बना चुका है. इसका नाम है "देव दीपावली". नाम से ही प्रतीत होता है कि यह पर्व देवताओं की दीपावली के रूप में मनाया जाता है. लेकिन, कम लोगों को ही पता है कि इस एक दीपावली की शुरुआत काशी के एक ऐसे घाट से हुई जहां पर एक नहीं बल्कि पांच नदियों का समागम है. इस घाट पर एक हजारा दीपक जलाकर सैकड़ों साल पहले 17वीं शताब्दी में इस पर्व की शुरुआत की गई थी. देखते ही देखते यह पर्व काशी के 84 घाटों से होते हुए सात समंदर पार तक काशी की गरिमा और महिमा का बखान कर रहा है. आइए हम आपको बताते हैं काशी की देव दीपावली का वह पुरातन राज जिसने इस पर्व को आज नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया है.

दरअसल, काशी परंपरा और संस्कृति को संजोकर रखने वाली वह माला है जिसमें ना जाने कितने अनगिनत मोती आज भी पीरो कर रखे गए हैं. इन्हीं मोतियों में शामिल है देव दीपावली का पर्व. इस बार 7 नवंबर को यह पर्व पूरे धूमधाम के साथ काशी में मनाया जाएगा. 10 लाख से ज्यादा दिए जलाने की तैयारी भी काशी में की गई है. 84 घाटों के अलावा गंगा उस पार भी दीपक जगमगाएंगे और काशी एक अद्भुत रूप में दिखाई देगी.


इन सबके बीच काशी के पंचगंगा घाट का महत्व अपने आप में बेहद महत्वपूर्ण है. क्योंकि यही वही घाट है जहां से इस देव दीपावली पर्व की शुरुआत मानी जाती है. यदि शिवपुराण की मानें तो जब त्रिपुरासुर राक्षस के आतंक से पूरा जग परेशान था. देवता त्राहिमाम कर रहे थे. तब, भगवान शिव ने उस राक्षस का वध करके सभी देवताओं को उसके आतंक से मुक्ति दिलाई थी. तभी से भोलेनाथ को त्रिपुरारी के नाम से जाना जाने लगा. भोलेनाथ की तरफ से त्रिपुरासुर के वध के बाद उन की नगरी काशी में आकर देवताओं ने गंगा घाटों पर दीपक जलाकर भोलेनाथ को नमन किया था और उन्हें धन्यवाद अर्पित किया था. एक कथानक तो यह है. लेकिन, दूसरा जब काशी में भगवान विश्वेश्वर के शिवलिंग की स्थापना हुई उसके बाद अहिल्याबाई होल्कर ने 17वीं शताब्दी में भगवान भोलेनाथ के पुनः काशी आगमन पर पंचगंगा घाट पर स्नान करने के बाद यहां पर एक हजार स्तंभ दीपक बनवाया था. इसमें एक बार में 1000 दीपक पत्थरों की श्रंखला पर जगमगाते थे. वह दीपक स्तम्भ आज भी यहां मौजूद है. इसके अतिरिक्त दो अन्य राजाओं के 100 दीपक का स्तंभ और 500 दीपक का स्तंभ भी यहां पर बनवाया गया. जिनमें से एक तो है. लेकिन, एक समय के साथ खत्म हो गया.

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केंद्रीय देव दीपावली महा समिति के अध्यक्ष और देव दीपावली को इस स्तर तक ले जाने के प्रयास करने वालों में शामिल आचार्य वागीश दत्त शास्त्री ने बताया कि पंचगंगा घाट पर ही देव दीपावली का उद्भव माना जाता है. ऐसी मान्यता है कि सबसे पहले इसी घाट पर हजारों स्तंभ दीपक जलाकर हर कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन देव दीपावली का पर्व मनाया जाता था. पुराणों में वर्णित इस दीपावली को देव दीपावली देवताओं की दीपावली के रूप में कहा जाता है. अहिल्याबाई होल्कर ने इसकी शुरुआत पुनः करके काशी को एक नया पर्व मनाने का मौका दिया था. तभी से यह परंपरा चली आ रही है और समय के साथ यह परंपरा स्मार्ट होती गई. काशी के घाटों पर इसका विस्तार होता चला गया. आज इस रूप में यह पर्व पूरी दुनिया के सामने हैं. इसे मनाने के लिए सिर्फ देश ही नहीं बल्कि, दुनिया के कोने-कोने से लोग काशी पहुंचते हैं.

सबसे बड़ी बात यह है कि कार्तिक मास में एक तरफ जहां गंगा स्नान का अपना महत्व है. वहीं, पंचगंगा घाट पर डुबकी लगाने का विशेष महत्व माना जाता है. ऐसी मान्यता है कि पंचगंगा घाट पर कार्तिक मास में स्नान मात्र से ही सारी बाधाओं और पापों से मुक्ति मिल जाती है. इसकी बड़ी वजह यह है कि पंचगंगा घाट पर पांच नदियों का समागम माना जाता है. इन पांच नदियों में गंगा, यमुना, सरस्वती, किरण और धुतपापा शामिल हैं. यह सभी नदियां यहां पर गुप्त रूप में एक साथ मिलती हैं और यह वह पवित्र स्थान है जहां पर संत कबीर दास को उनके गुरु रामानंद की तरफ से दीक्षा मिली थी. इस घाट का महत्व अपने आप में अद्भुत है. इसी परंपरा को निभाते हुए लोग यहां दीपदान करने दूर-दूर से आते हैं.

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