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दो जून की रोटी पर भारी कोरोना महामारी

दो जून की रोटी(2 june ki roti) महज एक मुहावरा नहीं है बल्कि ये वो हकीकत है जो हर किसी को नहीं नसीब होती है. कोरोना काल में हाल और भी बेहाल है. कोरोना काल में कई ऐसे परिवार हैं जिन्हें दो जून की रोटी खाने को नहीं मिल रही है. रोज कमाने और रोज खाने वालों के हालात ये हैं कि कोरोना के कारण वे घरों में बंद हैं. ऐसे में जब उन्हें काम नहीं मिल रहा तो दो जून की रोटी कहां से मिले...

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Published : Jun 2, 2021, 9:05 AM IST

वाराणसी: वैसे तो हर महीने 2 तारीख पड़ती है, लेकिन जून के महीने में पड़ने वाली 2 तारीख थोड़ी अलग और खास होती है. यह वह तारीख है जो इंसान को उस दो वक्त की रोटी की सच्चाई बता देती है, जिसके लिए वह पूरे जीवन संघर्ष करता है. बदलते समय और तकनीक के बाद 2 जून की तारीख को 2 जून की रोटी के नाम से सोशल मीडिया पर खूब ट्रेंड कराया जाता है. 2 जून की रोटी यानी जीवन के सफर में दो वक्त के खाने का प्रबंध. कहने और सुनने में तो ये बड़ा ही सरल और आसान शब्द लगता है, लेकिन सच में उन लोगों के सामने इस वक्त 2 जून की रोटी का बड़ा संकट है जो रोज कमाते हैं और रोज खाते हैं. कोरोना के इस कठिन दौर में जब देश के अधिकांश हिस्सों में आंशिक कर्फ्यू है और कुछ राज्य लॉकडाउन लगाकर इस वायरस की संक्रमण को रोकने का प्रयास कर रहे हैं, तब 2 जून की रोटी का प्रबंध करना ऐसे लोगों के लिए एक चैलेंज बन चुका है. सड़क के किनारे पकौड़ी बेचने वाले हों या पंचर बनाने वाले या फिर गाड़ियों की मरम्मत करने वाले हर कोई बेहाल है. हालात यह है कल तक हर दिन मेहनत करने के बाद दो वक्त की रोटी का प्रबंध करने वाले इन लोगों के सामने अब 2 जून की रोटी का संकट खड़ा है.

देखें ईटीवी भारत की खास रिपोर्ट.

कौन आएगा गाड़ी बनवाने
बनारस के महमूरगंज इलाके में सड़क किनारे छोटी सी गुमटी में गाड़ियों की मरम्मत करने वाले संतोष बीते 40 दिनों से बेरोजगार थे. इसकी बड़ी वजह यह थी कि कोरोना के संक्रमण को रोकने के लिए प्रदेश आंशिक लॉकडाउन से जूझ रहा था. इसके पहले पिछले साल जब लॉकडाउन लगाया गया था, तब भी संतोष के सामने बड़ा संकट था, लेकिन तब मदद करने वालों की लंबी भीड़ थी. इस बार तो हालात बदल गए हैं. आंशिक कर्फ्यू में मदद नहीं मिली और हालत और हालात दोनों बिगड़ते चले गए. संतोष बताते हैं कि 40 दिन तक घर पर बैठे रहने के बाद मंगलवार को उन्होंने पहली बार दुकान खोली है, लेकिन सुबह से शाम तक सिर्फ एक ही गाड़ी मरम्मत के लिए आई. जिसके बाद उन्हें महज 150 रुपये की आमदनी हुई. अब सवाल बड़ा है कि इतने रुपयों से वह 2 जून की रोटी का प्रबंध करें तो करें कैसे.

पान की दुकानों पर भी ताला
ये हालात अकेले संतोष के नहीं हैं, बल्कि संतोष के ही क्षेत्र में पान की दुकान लगाने वाले आशीष भी बीते 45 दिनों से घर पर ही कैद हैं. आशीष का कहना है कि पान की गुमटी में रोज 500 से 700 रुपये की आमदनी हो जाया करती थी, लेकिन इस कठिन महामारी के वक्त में उनके सामने तो 50 रुपये कमाने का भी संकट खड़ा हो गया है. कई दिनों से दुकान बंद चल रही थी. अब 1 जून से दुकान तो खुल गई है, लेकिन 2 जून की रोटी का संकट टला नहीं है.

राजन के सामने संकट बड़ा
हालात यहीं पर नहीं सुधर रहे हैं. साइकिल की मरम्मत करके 2 जून की रोटी का प्रबंध करने वाले राजन के आगे भी कुछ ऐसा ही संकट है. राजन का कहना है कि न कोई साइकिल बनवाने आता है, न ही पंचर, हालात यह हैं कि दो वक्त के खाने के लिए उन्हें लोगों के सामने हाथ फैलाने पड़ रहे हैं, क्योंकि एक साइकिल की मरम्मत के बाद मुश्किल से 20 से 25 रुपये ही मिलते हैं. ऐसी स्थिति में वह अब करें तो करें क्या?

उम्मीद से लगाते हैं ठेला लेकिन...
वहीं सिगरा क्षेत्र में पकौड़ी और ब्रेड पकौड़ा बेचने वाले योगेंद्र किराए पर ठेला लेकर हर रोज इस उम्मीद के साथ घर से निकल रहे हैं कि शाम तक घर जाने से पहले उनका और उनके परिवार का पेट भरने के लिए पर्याप्त पैसे इकट्ठा हो जाएंगे, लेकिन महामारी के इस दौर में जब इंसान इंसान के नजदीक जाने से कतरा रहा है तब उनका बनाया सामान कौन खरीदेगा. यह भी सवाल बड़ा है. योगेंद्र का कहना है कि पहले जहां 500 से 1000 रुपये प्रतिदिन कमाकर वह घर जाते थे, अब तो 100 रुपये कमाना भी मुश्किल हो गया है. हालात ऐसे हैं कि 2 जून की रोटी की व्यवस्था उनके लिए अब पहाड़ तोड़ने बराबर हो गई है. इस महामारी काल में रोज कमाने रोज खाने वालों के ये हालात बड़े कठिन हैं और 2 जून की रोटी का जुगाड़ न कर पाना अपने आप में पूरी व्यवस्था पर ही सवाल उठाने के लिए काफी है.

वाराणसी: वैसे तो हर महीने 2 तारीख पड़ती है, लेकिन जून के महीने में पड़ने वाली 2 तारीख थोड़ी अलग और खास होती है. यह वह तारीख है जो इंसान को उस दो वक्त की रोटी की सच्चाई बता देती है, जिसके लिए वह पूरे जीवन संघर्ष करता है. बदलते समय और तकनीक के बाद 2 जून की तारीख को 2 जून की रोटी के नाम से सोशल मीडिया पर खूब ट्रेंड कराया जाता है. 2 जून की रोटी यानी जीवन के सफर में दो वक्त के खाने का प्रबंध. कहने और सुनने में तो ये बड़ा ही सरल और आसान शब्द लगता है, लेकिन सच में उन लोगों के सामने इस वक्त 2 जून की रोटी का बड़ा संकट है जो रोज कमाते हैं और रोज खाते हैं. कोरोना के इस कठिन दौर में जब देश के अधिकांश हिस्सों में आंशिक कर्फ्यू है और कुछ राज्य लॉकडाउन लगाकर इस वायरस की संक्रमण को रोकने का प्रयास कर रहे हैं, तब 2 जून की रोटी का प्रबंध करना ऐसे लोगों के लिए एक चैलेंज बन चुका है. सड़क के किनारे पकौड़ी बेचने वाले हों या पंचर बनाने वाले या फिर गाड़ियों की मरम्मत करने वाले हर कोई बेहाल है. हालात यह है कल तक हर दिन मेहनत करने के बाद दो वक्त की रोटी का प्रबंध करने वाले इन लोगों के सामने अब 2 जून की रोटी का संकट खड़ा है.

देखें ईटीवी भारत की खास रिपोर्ट.

कौन आएगा गाड़ी बनवाने
बनारस के महमूरगंज इलाके में सड़क किनारे छोटी सी गुमटी में गाड़ियों की मरम्मत करने वाले संतोष बीते 40 दिनों से बेरोजगार थे. इसकी बड़ी वजह यह थी कि कोरोना के संक्रमण को रोकने के लिए प्रदेश आंशिक लॉकडाउन से जूझ रहा था. इसके पहले पिछले साल जब लॉकडाउन लगाया गया था, तब भी संतोष के सामने बड़ा संकट था, लेकिन तब मदद करने वालों की लंबी भीड़ थी. इस बार तो हालात बदल गए हैं. आंशिक कर्फ्यू में मदद नहीं मिली और हालत और हालात दोनों बिगड़ते चले गए. संतोष बताते हैं कि 40 दिन तक घर पर बैठे रहने के बाद मंगलवार को उन्होंने पहली बार दुकान खोली है, लेकिन सुबह से शाम तक सिर्फ एक ही गाड़ी मरम्मत के लिए आई. जिसके बाद उन्हें महज 150 रुपये की आमदनी हुई. अब सवाल बड़ा है कि इतने रुपयों से वह 2 जून की रोटी का प्रबंध करें तो करें कैसे.

पान की दुकानों पर भी ताला
ये हालात अकेले संतोष के नहीं हैं, बल्कि संतोष के ही क्षेत्र में पान की दुकान लगाने वाले आशीष भी बीते 45 दिनों से घर पर ही कैद हैं. आशीष का कहना है कि पान की गुमटी में रोज 500 से 700 रुपये की आमदनी हो जाया करती थी, लेकिन इस कठिन महामारी के वक्त में उनके सामने तो 50 रुपये कमाने का भी संकट खड़ा हो गया है. कई दिनों से दुकान बंद चल रही थी. अब 1 जून से दुकान तो खुल गई है, लेकिन 2 जून की रोटी का संकट टला नहीं है.

राजन के सामने संकट बड़ा
हालात यहीं पर नहीं सुधर रहे हैं. साइकिल की मरम्मत करके 2 जून की रोटी का प्रबंध करने वाले राजन के आगे भी कुछ ऐसा ही संकट है. राजन का कहना है कि न कोई साइकिल बनवाने आता है, न ही पंचर, हालात यह हैं कि दो वक्त के खाने के लिए उन्हें लोगों के सामने हाथ फैलाने पड़ रहे हैं, क्योंकि एक साइकिल की मरम्मत के बाद मुश्किल से 20 से 25 रुपये ही मिलते हैं. ऐसी स्थिति में वह अब करें तो करें क्या?

उम्मीद से लगाते हैं ठेला लेकिन...
वहीं सिगरा क्षेत्र में पकौड़ी और ब्रेड पकौड़ा बेचने वाले योगेंद्र किराए पर ठेला लेकर हर रोज इस उम्मीद के साथ घर से निकल रहे हैं कि शाम तक घर जाने से पहले उनका और उनके परिवार का पेट भरने के लिए पर्याप्त पैसे इकट्ठा हो जाएंगे, लेकिन महामारी के इस दौर में जब इंसान इंसान के नजदीक जाने से कतरा रहा है तब उनका बनाया सामान कौन खरीदेगा. यह भी सवाल बड़ा है. योगेंद्र का कहना है कि पहले जहां 500 से 1000 रुपये प्रतिदिन कमाकर वह घर जाते थे, अब तो 100 रुपये कमाना भी मुश्किल हो गया है. हालात ऐसे हैं कि 2 जून की रोटी की व्यवस्था उनके लिए अब पहाड़ तोड़ने बराबर हो गई है. इस महामारी काल में रोज कमाने रोज खाने वालों के ये हालात बड़े कठिन हैं और 2 जून की रोटी का जुगाड़ न कर पाना अपने आप में पूरी व्यवस्था पर ही सवाल उठाने के लिए काफी है.

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