वाराणसी: गुलामी की बेड़ियों में जकड़े हिन्दुस्तान को बरसों तक अंग्रेज़ों के ज़ुल्मो सितम को झेलना पड़ा. 1857 की क्रांति से शुरू हुई आज़ादी की लड़ाई 1947 में जाकर अंजाम तक पहुंची. करीब 200 साल की दासता के बाद हिन्दुस्तान ने आजाद हवा में सांस ली. 1857 की क्रांति ने आजादी के संघर्ष को गति देने का काम किया , लेकिन बनारस में 1857 की क्रांति से 58 साल पहले ही 1799 में आजादी का बिगुल बजाया गया था, जिसकी बानगी आज भी यहां के एक कब्रिस्तान में देखने को मिलती है. चौंकाने वाली बात ये है कि इस कब्रिस्तान पर अब भी अंग्रेजों का कब्जा है. ईटीवी भारत की स्पेशल सीरीज़ यूपी एक खोज में आपको इसके पीछे के रहस्य से अवगत कराएगा.
जिस ख़ास कब्रिस्तान की बात हम कर रहे हैं वो बनारस के चौकाघाट इलाके में मौजूद है और यहां कि सैकड़ों कब्र अंग्रेजी हुकूमत की मौजूदगी की गवाह हैं. एक तरफ जहां ये आजादी के संघर्ष की कहानी को बयां करती हैं वहीं आजाद हिंदुस्तान की धरती पर अंग्रेजी हुकूमत के अब तक काबिज होने के सुबूत भी देती हैं..
उस एक समझौते ने... दरअसल, वाराणसी के चौकाघाट मकबूल आलम रोड इलाके में एक ईसाइयों का कब्रिस्तान है. ईसाई समुदाय के इस कब्रिस्तान में एक हिस्सा ऐसा है जहां अब भी किसी गैर ब्रिटिश व्यक्ति को दफनाने की इजाजत नहीं है या यूं कहिए कि यहां पर अब भी ब्रिटेन का ही शासन चल रहा है. इस बारे में काशी हिंदू विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के प्रोफेसर डॉ. राजीव श्रीवास्तव ने बताया कि जब हिन्दुस्तान आज़ाद हुआ तो उस समय ब्रिटेन और भारत के बीच एक समझौता हुआ था. वह समझौता था ब्रिटेन की स्थायी संपत्तियों को लेकर, जो भारत से नहीं ले जाई जा सकती थी. इसमें कब्रिस्तान सबसे महत्वपूर्ण था.
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इस कब्रिस्तान में दफन हैं कई अंग्रेज अधिकारी: डॉ. राजीव ने बताया कि भारत के अलग-अलग हिस्से में अंग्रेजी हुकूमत के कई कब्रिस्तान हैं. जहां अंग्रेजी शासनकाल के बड़े शासक, हुकूमत के कई अधिकारी और उस वक्त क्रांतिकारियों के गुस्से का निशाना बने कई अंग्रेज सैनिक और अधिकारी इन कब्रिस्तानों में दफन किए गए थे. उस वक्त किए गए समझौते को आज भी देश की सरकार मानती है. यही वजह है कि बनारस के इस कब्रिस्तान में एक दो नहीं बल्कि सैकड़ों ऐसी कब्र मौजूद हैं, जो 1804, 1806, 1830 और 1800 ईस्वी से लेकर 1925-26 तक की हैं.
यहां मौजूद है 200 साल से भी अधिक पुरानी कब्र: डॉ. राजीव ने बताया कि यहां पर अंग्रेजी हुकूमत के बड़े अधिकारियों से लेकर अंग्रेजी शासनकाल में कई बड़े पैसे वाले लोगों के परिवारों की कब्र मौजूद हैं. आज भी ब्रिटेन से बहुत से लोग समय-समय पर आकर इन कब्र पर मोमबत्ती जलाकर, इनकी सफाई करके अपनों को याद करते हैं. समझौते के मुताबिक इन कब्रिस्तानों के ऊपर आज भी वर्तमान भारत सरकार कोई निर्माण नहीं कर सकती है, न ही इनका इस्तेमाल अपने किसी कार्य में कर सकती है. यही वजह है कि आज यह सारे कब्रिस्तान की हालत काफी खराब हो गई है. यहां मौजूद सैकड़ों या यूं कहिए 200 साल से भी ज्यादा पुरानी कब्र अब पूरी तरह से खंडहर में तब्दील होने लगी है. सबसे बड़ी बात यह है कि यहां ऐसी कब्र भी हैं जो 2 मंजिल की हैं. एक ही कमरे में परिवार के एक से ज्यादा सदस्यों को भी दफनाया गया है.
1799 में फूंका गया था बिगुल: इस कब्रिस्तान में एक तरफ जहां ब्रिटेन की मौजूदगी का एहसास होता है तो दूसरी ओर गुलाम भारत की पहले क्रांति की तपिश को भी महसूस किया जा सकता है, जिसका बिगुल 1857 से 58 साल पहले 1799 में फूंका गया था. यहां पर एक ऐसी कब्र मौजूद है, जो सबसे ऊंची और अनोखी कब्र कही जाती है. डॉ. राजीव ने बताया कि उस वक्त अवध के 18 वर्षीय नवाब मिर्जा वजीर अली खान के नेतृत्व में नवाब ने सात अंग्रेज सैनिक अफसरों को मौत के घाट उतार दिया था. इस बात की गवाही मकबूल आलम रोड का यह ईसाई कब्रिस्तान देता है. उन्हें उन अंग्रेजों सैनिकों और अधिकारियों का कातिल बताते हुए जब दफन करने की कार्यवाही पूरी की गई तो कब्र में उन सैनिकों और अधिकारियों के साथ इन्हें मौत के घाट उतारने वाले वजीर अली खान का नाम भी पत्थर पर उकेरा गया.
कब्र पर दर्ज है वजीर अली का नाम: डॉ. राजीव ने बताया कि इस बड़ी कब्र को उस वक्त के तत्कालीन अंग्रेजी कमांडर जॉर्ज फ्रेड्रिक चेरी की कब्र कहा जाता है. इसी कब्र पर एक तरफ जहां हमले में मारे गए कमांडर चेरी कैप्टन कौनवे, रॉबर्ट ग्राहम, रिचर्ड इवांस जैसे अंग्रेज अधिकारी जब इस कब्रिस्तान में दफन किए गए तो उस वक्त वजीर अली की गिरफ्तारी और फांसी की सज़ा के बाद अंग्रेजी हुकूमत ने इतिहास के पन्नों में वजीर अली का नाम अंग्रेजी अफसरों की कब्र के पत्थर पर उन्हें मारने वाले हत्यारे के रूप में दर्ज किया, जो आज भी इस कब्रिस्तान में मौजूद है. सबसे बड़ी बात यह है कि यह सारा लिखित तथ्य भी उस अधिकारिक गजट में मौजूद है जो अंग्रेजी हुकूमत के बाद उत्तर प्रदेश और बनारस को लेकर लिखा गया. उत्तर प्रदेश गजट वाराणसी की किताब में इस पूरे वाकए का जिक्र आज भी मौजूद है जो इस पूरे घटनाक्रम को पुख्ता करता है.
समझौते के मुताबिक इस कब्रिस्तान का रखरखाव और मेनटेनेंस ब्रिटिश सरकार के ज़िम्मे है. हालांकि कब्रिस्तान की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है. लेकिन इस कब्रिस्तान में आकर ब्रितानी हुकूमत की याद ज़रूर ताज़ा हो जाती है.
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