वाराणसी: कार्तिक माह की देवोत्थानी एकादशी आज है. इसे देव प्रबोधिनी, हरिप्रबोधिनी, डिठवन या देवउठनी (देवोत्थान) एकादशी के नाम से भी जाना जाता है. साथ ही भगवान शालिग्राम के साथ तुलसी मां का विवाह धूमधाम से किया जाता है. आज से ही शुभ काज शुरू हो जाते हैं. कार्तिक शुक्लपक्ष की एकादशी तिथि से कार्तिक पूर्णिमा तक शुद्ध देशी घी के दीपक जलाने से जीवन के सभी प्रकार के पापों से मुक्ति मिलती है. बता दें कि भगवान श्रीविष्णु आषाढ़ शुक्ल एकादशी के दिन क्षीरसागर में योगनिद्रा में चार माह के लिए लीन रहते हैं. इस अवधि में कोई भी शुभ काज नहीं होते हैं. आज चार माह की योग निद्रा में लीन श्रीहरि जागते हैं. इसी के साथ शुभ काज भी शुरू हो जाते हैं.
स्मार्त व वैष्णवजन व्रत रखकर भगवान श्रीविष्णुजी की आराधना करके उनसे आशीर्वाद प्राप्त करेंगे. देवउठनी एकादशी से भीष्म पंचक व्रत भी रखा जाता है. भीष्म पितामह ने एकादशी से पूर्णिमा तक पाण्डवों को उपदेश दिया था. उपदेश की समाप्ति पर भगवान श्रीकृष्ण ने भीष्म पंचक व्रत की मान्यता स्थापित की तभी से इस व्रत का विधान चला आ रहा है.
देवउठनी एकादशी का व्रत महिला व पुरुष दोनों के लिए समान रूप से फलदायी है. भगवान श्रीहरि विष्णुजी की विशेष कृपा से जीवन के समस्त पापों का नाश हो जाता है. साथ ही जीवन में सुख-समृद्धि, आरोग्य व सौभाग्य की प्राप्ति होती है.
ज्योतिषविद विमल जैन ने बताया कि कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि 22 नवम्बर, बुधवार को रात्रि 11 बजकर 05 मिनट पर लगेगी जो कि अगले दिन 23 नवम्बर, गुरुवार को रात्रि 9 बजकर 03 मिनट तक रहेगी.
उत्तराभाद्रपद नक्षत्र 22 नवम्बर, बुधवार को सायं 6 बजकर 37 मिनट से 23 नवम्बर, गुरुवार को सायं 5 बजकर 16 मिनट तक रहेगा. हरिप्रबोधिनी एकादशी का व्रत 23 नवम्बर, गुरुवार को रखा जाएगा. आज के दिन व्रत-उपवास रखकर भगवान् श्रीविष्णु जी की विशेष पूजा- अर्चना करने का विधान है. व्रतकर्ता को प्रातः काल समस्त दैनिक कृत्यों से निवृत्त हो स्वच्छ वस्त्र धारणकर अपने आराध्य देवी- देवता की पूजा-अर्चना के पश्चात् देव प्रबोधिनी एकादशी के व्रत एवं भगवान श्रीविष्णुजी की पूजा-अर्चना का संकल्प लेना चाहिए.
तत्पश्चात् उनकी महिमा में श्रीविष्णु सहस्रनाम, श्रीपुरुषसूक्त तथा श्रीविष्णुजी से सम्बन्धित मन्त्र ॐ श्रीविष्णवे नमः' का जप करना चाहिए. हरिशयनी एकादशी (29 जून, गुरुवार) से प्रारम्भ चातुर्मास्य का व्रत, यम, नियम, संयम आदि का समापन आज देव (हरि) प्रबोधिनी एकादशी (23 नवम्बर, गुरुवार) को हो जाएगा.
पूजा का विधान
ज्योतिषविद विमल जैन ने बताया कि आज के दिन गन्ने का मण्डप बनाकर शालिग्राम जी के साथ तुलसीजी का विवाह रचाया जाता है. मान्यता के मुताबिक देवप्रबोधिनी एकादशी से कार्तिक पूर्णिमा तक तुलसीजी की रीति- रिवाज व धार्मिक विधि-विधान से पूजा-अर्चना का विशेष महत्व है. इस दिन भगवान गणपति एवं शालिग्राम जी की भी पूजा की जाती है. व्रत के दिन फलाहार ग्रहण करना चाहिए, अन्न ग्रहण का निषेध है. एकादशी तिथि की रात्रि में जागरण करके भगवान् श्रीविष्णु की श्रद्धा, आस्था भक्तिभाव के साथ आराधना करना शुभ फलकारी माना गया है. इस दिन गंगा स्नान या स्वच्छ जल से स्नान करके देव अर्चना के पश्चात् ब्राह्मण को उपयोगी वस्तुओं का दान करना चाहिए. उन्होंने बताया कि माता तुलसी और शालिग्राम के विवाह के लिए माता तुलसी को रखने के बाद उन पर चुनरी चढ़कर एक मौली के टुकड़े से शालिग्राम और तुलसी का गठबंधन करना चाहिए. इसके साथ ही फल इत्यादि भगवान को अर्पित करने चाहिए. अंत में विवाह संपन्न होने के बाद बेदी की फेरी लेकर प्रभु का आशीर्वाद लेना चाहिए.
तुलसी विवाह कथा
श्रीमद्भगवत पुराण के अनुसार एक बार सृष्टि के कल्याण के उद्देश्य से भगवान विष्णु ने राजा जालंधर की पत्नी वृंदा का सतीत्व भंग कर दिया. इस पर सती वृंदा ने उन्हें श्राप दे दिया और भगवान विष्णु पत्थर बन गए, जिस कारणवश प्रभु को शालिग्राम भी कहा जाता है. भक्तगण इस रूप में भी उनकी पूजा करते हैं. इसी श्राप से मुक्ति पाने के लिए भगवान विष्णु को अपने शालिग्राम स्वरूप में तुलसी से विवाह करना पड़ा था. कालांतर में तुलसी विवाह का चलन परंपरा बन गया.
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