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नैमिषारण्य की पावन धरती पर 3 मार्च से शुरू होगी चौरासी कोस की परिक्रमा, जानें परिक्रमा का पूरा रहस्य

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Published : Mar 1, 2022, 8:56 PM IST

सीतापुर जिले के मिश्रिख-नैमिषारण्य तीर्थ पर चौरासी कोसीय परिक्रमा की तैयारियां पूरी हो चुकी हैं. इस धार्मिक परिक्रमा में यह विशेष बात है कि सीतापुर में पड़ने वाले इस धार्मिक तीर्थ स्थल की आधी परिक्रमा का प्रतिनिधित्व हरदोई जनपद करता है. यह गंगा-जमुना तहजीब का प्रत्यक्ष उदाहरण है.

चौरासी कोसीय परिक्रमा
चौरासी कोसीय परिक्रमा

सीतापुरः मिश्रिख-नैमिषारण्य तीर्थ क्षेत्र की विश्व विख्यात चौरासी कोसीय धार्मिक होली परिक्रमा का शुभारम्भ युगों-युगों से होता चला आ रहा है. सतयुग में महर्षि दधीचि के द्वारा यह परिक्रमा की गई थी. इसका अनुसरण हर युग में होता चला आ रहा है. त्रेतायुग में भगवान श्रीराम ने अपने कुटुंबजनों के साथ इस क्षेत्र की परिक्रमा की थी. द्वापरयुग में श्रीकृष्ण के अलावा पांडवों द्वारा इस क्षेत्र की परिक्रमा की गई थी. कलयुग में उसी का अनुसरण किया जा रहा है.

यह क्षेत्र विश्व का केंद्र बिंदु माना जाता है. यहीं से सृष्टि की रचना का भी आरंभ होना बताया जाता है. यहीं आदि गंगा गोमती नदी के तट पर मनु सतरूपा द्वारा हजारों वर्षों तक कठोर तप किया गया था. इस चौरासी कोस की भूमि पर 33 कोटि देवी देवताओं ने वास किया है. यहीं र 88 हजार ऋषियों ने अपने-अपने आश्रम बनाकर कठिन तपस्या भी की है. इसके प्रमाण मिश्रिख और नैमिषारण्य में आज भी मौजूद है .


ऐसे हुआ 84 कोसीय परिक्रमा का शुभारंभ

शास्त्रों में उल्लेख मिलता है. सतयुग काल में वृत्तासुर नामक दैत्य ने देवलोक पर आक्रमण कर दिया था. देवताओं ने देवलोक की रक्षा के लिए वृत्तासुर पर अपने दिव्य अस्त्रों का प्रयोग किया. परंतु सभी अस्त्र-शस्त्र उसके कठोर शरीर से टकराकर चूर-चूर हो गए. अंत में देवराज इंद्र को अपने प्राण बचाकर भागना पड़ा. वह ब्रह्मा-विष्णु व शिवजी की शरण में पहुंचे तो तीनों देवताओं ने कहा कि अभी संसार में ऐसा कोई शस्त्र नहीं है जिससे वृत्तासुर दैत्य का वध हो सके.

त्रिदेवों की यह बात सुनकर इंद्र मायूस हो गये. इन्द्र देव की स्थिति को देखकर भगवान शिव ने उन्हें उपाय बताया कि पृथ्वी लोक पर परम तपस्वी महर्षि दधीचि रहते है. उन्होंने तप साधना से अपनी हड्डियों को इतना कठोर बना लिया है कि उनकी हड्डियों से बज्र नामक अमोघ अस्त्र बनाकर ही वृत्तासुर दैत्य का विनास हो सकता है.

उनकी शरण में जाओ और क्षमा याचना करके लोक कल्याण हेतु अस्थियों का दान करने की याचना करो. इंद्र ने ऐसा ही किया. वह मिश्रिख क्षेत्र स्थित उनके आश्रम पर आए और महर्षि दधीचि को पूरा वृतांत बताया. उनसे अस्थियों का दान देने के लिए क्षमा याचना की. परंतु महर्षि दधीचि ने अपनी अस्थियों का दान देने से पहले तीर्थाटन की इच्छा जताई.

इस दौरान महर्षि दधीचि ने इंद्र से कहा, 'देवराज मैंने अपने जीवन काल में एक भी तीर्थ नहीं किया है. सिर्फ तप, साधना में ही लीन रहा हूं. मेरी इच्छा है कि संसार के समस्त तीर्थों और समस्त देवताओं के दर्शन कर लूं. फिर अपनी अस्थियों का दान कर दूंगा. यह सुनकर इंद्र देव सोच में पड़ गए. उन्होंने सोचा कि महर्षि सभी तीर्थ करने चले गए तो बहुत समय बीत जाएगा. इस पर देवराज इंद्र ने संसार के समस्त तीर्थों और 33 कोटि (श्रेष्ठ) देवी-देवताओं को मिश्रिख नैमिषारण्य क्षेत्र में आमंत्रित किया. सभी को चौरासी कोस की परिधि में अलग अलग स्थान दिया.

पढ़ेंः महाशिवरात्रि 2022 : श्रंगीरामपुर धाम का जल भगवान शिव पर चढ़ाने से होते मनोरथ पूर्ण


महर्षि दधीचि एक-एक कर सभी तीर्थों और देवताओं के दर्शन करते हुए कुछ ही समय में अपने आश्रम पहुंचे. यहां सभी तीर्थों के जल को एक सरोवर में मिलाया गया. उसी में स्नान करके फाल्गुन मास की पूर्णिमा तिथि को गायों से अपने शरीर को चटवाकर अस्थियों का दान देवताओं को दे दिया. जिस तीर्थ में संसार के सभी तीर्थों के जल को मिलाया गया, उसे ही आज दधीचि कुंड तीर्थ के नाम से जाना जाता है.

जिस जगह यह कुंड स्थित है, उस क्षेत्र को मिश्रित तीर्थ के नाम से जाना जाता है. तभी से प्रत्येक वर्ष फाल्गुन मास की प्रतिपदा तिथि से शुरू होने वाले इस क्षेत्र के 84 कोसीय परिक्रमा में लाखों की संख्या में साधू संत व श्रद्धालु भाग लेने आते है. मान्यता है कि जो भी श्रद्धाभाव से यहां की चौरासी कोसीय परिक्रमा कर लेता है, वह चौरासी लाख योनियों के बंधन से मुक्त हो जाता है.

3 मार्च से इस धार्मिक परिक्रमा का होगा शुभारंभ

2 मार्च बुधवार अमावस्या नैमिषारण्य, 3 मार्च गुरुवार प्रथम पड़ाव कोरौना, 4 मार्च शुक्रवार पड़ाव हर्रैया, 5 मार्च शनिवार नगवा कोथांवा, 6 मार्च रविवार गिरधरपुर उमरारी, 7 मार्च सोमवार साक्षी गोपालपुर, 8 मार्च मंगलवार देवगवां, 9 मार्च बुधवार मडे़रुवा, 10 मार्च गुरुवार जरिगवां, 11 मार्च शुक्रवार नैमिषारण्य, 12 मार्च शनिवार कोल्हुवा बरेठी, 13 मार्च रविवार से मिश्रिख का पंचकोसी परिक्रमा तथा 17 मार्च को सभी परिक्रमार्थी दधीचि कुंड तीर्थ में बुड़की स्नान कर अपने अपने गृह जनपदों को वापस चले जाएंगे.

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सीतापुरः मिश्रिख-नैमिषारण्य तीर्थ क्षेत्र की विश्व विख्यात चौरासी कोसीय धार्मिक होली परिक्रमा का शुभारम्भ युगों-युगों से होता चला आ रहा है. सतयुग में महर्षि दधीचि के द्वारा यह परिक्रमा की गई थी. इसका अनुसरण हर युग में होता चला आ रहा है. त्रेतायुग में भगवान श्रीराम ने अपने कुटुंबजनों के साथ इस क्षेत्र की परिक्रमा की थी. द्वापरयुग में श्रीकृष्ण के अलावा पांडवों द्वारा इस क्षेत्र की परिक्रमा की गई थी. कलयुग में उसी का अनुसरण किया जा रहा है.

यह क्षेत्र विश्व का केंद्र बिंदु माना जाता है. यहीं से सृष्टि की रचना का भी आरंभ होना बताया जाता है. यहीं आदि गंगा गोमती नदी के तट पर मनु सतरूपा द्वारा हजारों वर्षों तक कठोर तप किया गया था. इस चौरासी कोस की भूमि पर 33 कोटि देवी देवताओं ने वास किया है. यहीं र 88 हजार ऋषियों ने अपने-अपने आश्रम बनाकर कठिन तपस्या भी की है. इसके प्रमाण मिश्रिख और नैमिषारण्य में आज भी मौजूद है .


ऐसे हुआ 84 कोसीय परिक्रमा का शुभारंभ

शास्त्रों में उल्लेख मिलता है. सतयुग काल में वृत्तासुर नामक दैत्य ने देवलोक पर आक्रमण कर दिया था. देवताओं ने देवलोक की रक्षा के लिए वृत्तासुर पर अपने दिव्य अस्त्रों का प्रयोग किया. परंतु सभी अस्त्र-शस्त्र उसके कठोर शरीर से टकराकर चूर-चूर हो गए. अंत में देवराज इंद्र को अपने प्राण बचाकर भागना पड़ा. वह ब्रह्मा-विष्णु व शिवजी की शरण में पहुंचे तो तीनों देवताओं ने कहा कि अभी संसार में ऐसा कोई शस्त्र नहीं है जिससे वृत्तासुर दैत्य का वध हो सके.

त्रिदेवों की यह बात सुनकर इंद्र मायूस हो गये. इन्द्र देव की स्थिति को देखकर भगवान शिव ने उन्हें उपाय बताया कि पृथ्वी लोक पर परम तपस्वी महर्षि दधीचि रहते है. उन्होंने तप साधना से अपनी हड्डियों को इतना कठोर बना लिया है कि उनकी हड्डियों से बज्र नामक अमोघ अस्त्र बनाकर ही वृत्तासुर दैत्य का विनास हो सकता है.

उनकी शरण में जाओ और क्षमा याचना करके लोक कल्याण हेतु अस्थियों का दान करने की याचना करो. इंद्र ने ऐसा ही किया. वह मिश्रिख क्षेत्र स्थित उनके आश्रम पर आए और महर्षि दधीचि को पूरा वृतांत बताया. उनसे अस्थियों का दान देने के लिए क्षमा याचना की. परंतु महर्षि दधीचि ने अपनी अस्थियों का दान देने से पहले तीर्थाटन की इच्छा जताई.

इस दौरान महर्षि दधीचि ने इंद्र से कहा, 'देवराज मैंने अपने जीवन काल में एक भी तीर्थ नहीं किया है. सिर्फ तप, साधना में ही लीन रहा हूं. मेरी इच्छा है कि संसार के समस्त तीर्थों और समस्त देवताओं के दर्शन कर लूं. फिर अपनी अस्थियों का दान कर दूंगा. यह सुनकर इंद्र देव सोच में पड़ गए. उन्होंने सोचा कि महर्षि सभी तीर्थ करने चले गए तो बहुत समय बीत जाएगा. इस पर देवराज इंद्र ने संसार के समस्त तीर्थों और 33 कोटि (श्रेष्ठ) देवी-देवताओं को मिश्रिख नैमिषारण्य क्षेत्र में आमंत्रित किया. सभी को चौरासी कोस की परिधि में अलग अलग स्थान दिया.

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महर्षि दधीचि एक-एक कर सभी तीर्थों और देवताओं के दर्शन करते हुए कुछ ही समय में अपने आश्रम पहुंचे. यहां सभी तीर्थों के जल को एक सरोवर में मिलाया गया. उसी में स्नान करके फाल्गुन मास की पूर्णिमा तिथि को गायों से अपने शरीर को चटवाकर अस्थियों का दान देवताओं को दे दिया. जिस तीर्थ में संसार के सभी तीर्थों के जल को मिलाया गया, उसे ही आज दधीचि कुंड तीर्थ के नाम से जाना जाता है.

जिस जगह यह कुंड स्थित है, उस क्षेत्र को मिश्रित तीर्थ के नाम से जाना जाता है. तभी से प्रत्येक वर्ष फाल्गुन मास की प्रतिपदा तिथि से शुरू होने वाले इस क्षेत्र के 84 कोसीय परिक्रमा में लाखों की संख्या में साधू संत व श्रद्धालु भाग लेने आते है. मान्यता है कि जो भी श्रद्धाभाव से यहां की चौरासी कोसीय परिक्रमा कर लेता है, वह चौरासी लाख योनियों के बंधन से मुक्त हो जाता है.

3 मार्च से इस धार्मिक परिक्रमा का होगा शुभारंभ

2 मार्च बुधवार अमावस्या नैमिषारण्य, 3 मार्च गुरुवार प्रथम पड़ाव कोरौना, 4 मार्च शुक्रवार पड़ाव हर्रैया, 5 मार्च शनिवार नगवा कोथांवा, 6 मार्च रविवार गिरधरपुर उमरारी, 7 मार्च सोमवार साक्षी गोपालपुर, 8 मार्च मंगलवार देवगवां, 9 मार्च बुधवार मडे़रुवा, 10 मार्च गुरुवार जरिगवां, 11 मार्च शुक्रवार नैमिषारण्य, 12 मार्च शनिवार कोल्हुवा बरेठी, 13 मार्च रविवार से मिश्रिख का पंचकोसी परिक्रमा तथा 17 मार्च को सभी परिक्रमार्थी दधीचि कुंड तीर्थ में बुड़की स्नान कर अपने अपने गृह जनपदों को वापस चले जाएंगे.

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