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अगर कल्पवास करने आ रहे है तो, इस मिट्टी के 'चूल्हे' को लेना मत भूलिएगा

विश्व के सबसे बड़े आध्यात्मिक समागम प्रयागराज संगम तट पर माघ मेला लगने में कुछ ही दिन रह गए हैं. मेला के दौरान संगम में पुण्य की डुबकी लगाने के लिए आने वाले श्रद्धालुओं के स्वागत के लिए एक ओर जोर शोर से तैयारियां चल रही है, तो वहीं स्थानीय लोगों ने भी सेवा सत्कार के लिए तैयारियां जोरों पर हैं. मेले में आने वाले श्रद्धालुओं को भोजन-प्रसाद बनाने में परेशानी न हो इसके लिए गोबर के उपले और मिट्टी के चूल्हे बनाने में स्थानीय महिलाएं जुटी हैं. अब इन्हें इंतजार है तो केवल श्रद्धालुओं के आगमन का.

मिट्टी के 'चूल्हे' को लेना मत भूलिएगा
मिट्टी के 'चूल्हे' को लेना मत भूलिएगा
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Published : Dec 17, 2021, 8:47 AM IST

प्रयागराज: दुनिया भर में आस्था की नगरी कहे जाने वाला प्रयागराज के संगम तट पर कुछ ही दिनों में माघ मेला लगने वाला है. जहां किसी न्योते के बगैर देश दुनिया से लोग संगम की रेती पर आस्था की डुबकी लगाने आते हैं. वही प्रशासन उनके लिए संगम क्षेत्र में तंबुओं की नगरी, पांटून पुल सहित अन्य व्यवस्थाएं करने में जुट गया है. साथ ही साथ गांव-देहात में कल्पवासी कल्पवास का ताना बाना बुनने लगे हैं. कल्पवासियों का कल्पवास पूरी सुचिता और शुद्धता के साथ पूर्ण हो, इसके लिए गंगा किनारे की बस्ती में उपले और मिट्टी के चूल्हे तैयार किए जा रहे हैं, जिनको यहां की स्थानीय महिलाएं तैयार कर रही हैं.


संगम की रेती पर दूर दराज से आकर श्रद्धालु एवं साधु संत एक मास का तीर्थ पुरोहित द्वारा व्यवस्थित शिविर में रहकर कल्पवास करते हैं. उस दौरान यहां पर मिट्टी से बने चूल्हे, बोरसी और गोबर से बने उपलों की मांग अधिक हो जाती है. चूल्हे पर खाना पकाने, बोरसी में उपला जलाकर हाथ पैर सेंकने की कड़ाके की सर्दी में आवश्यकता पड़ती है.

इस मिट्टी के 'चूल्हे' को लेना मत भूलिएगा

तंबुओं के नगर में एक माह कल्पवास करने वालों के टेंट में वैसे तो गैस सिलिंडर के प्रयोग होने लगे हैं, मगर अब भी ऐसे कल्पवासी और साधु-संत हैं, जो मिट्टी के चूल्हे पर बना भोजन ही ग्रहण करते हैं. क्योंकि कल्पवास में शुद्धता को पहली प्राथमिकता माना जाता है. इसके लिए मिट्टी के बने चूल्हे और गोबर के बने उपले शुद्धता की कसौटी पर खरे माने जाते हैं. यह बात वर्षों से गंगा तट पर मिट्टी का चूल्हा तैयार करने वाली महिलाओं को भली भांति पता है. इसीलिए वह कल्पवास का समय आने पर बिना किसी आर्डर के दो माह पहले से यह काम शुरू कर देती हैं.वर्षों से माघ और कुंभ मेला के लिए मिट्टी के खास चूल्हे बनाने वाली महिलाएं कहती है कि वह अब भी रोज औसतन 40-50 चूल्हे बना लेती है. इस साल भी महिलाओं ने सैकड़ों चूल्हों को तैयार कर लिया है और अभी मिट्टी का चूल्हा बनाने में व्यस्त हैं.वहीं उपले पाथने का भी काम कर रही महिलाएं बताती हैं कि यह उपले ठंड में कल्पवासी जलाते हैं. उपले आम तौर पर कल्पवासियों को कड़ाके की ठंड में हाथ-पैर सेंकने में मदद मिलती है. कुल मिलाकर यह कह सकते हैं कि साधु-संतों व कल्पवासियों की पहली पसंद होते हैं गाय का गोबर और गंगा की मिट्टी के बने चूल्‍हे.
यह भी पढ़ें- आखिर निषाद समाज सभी दलों के लिए क्यों बना है दुलारा...?



वर्तमान में वैसे तो माघ मेले में आने वाले तमाम श्रद्धालु गैस सिलेंडर आदि साथ लेकर आते हैं और उसी पर भोजन बनाते हैं, लेकिन यहां पर कल्पवास करने वाले भोजन प्रसाद बनाने के लिए मिट्टी के चूल्हों का ही इस्तेमाल करते हैं जिनमें आग जलाने के लिए गोबर के उपले व लकड़ी का प्रयोग करते हैं. खाना बनाने के साथ साथ ठंड से बचने के लिए भी श्रद्धालु उपले का प्रयोग करते हैं जो कि चूल्हा 50 से 70 रुपये में है जबकि 100 रुपये से 120 रुपये में सौ उपले मिलते हैं. इसलिए माघ मेले के लिए तीन-चार माह पहले से चूल्हे और उपले बनाने की तैयारी शुरू कर दी जाती है.


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प्रयागराज: दुनिया भर में आस्था की नगरी कहे जाने वाला प्रयागराज के संगम तट पर कुछ ही दिनों में माघ मेला लगने वाला है. जहां किसी न्योते के बगैर देश दुनिया से लोग संगम की रेती पर आस्था की डुबकी लगाने आते हैं. वही प्रशासन उनके लिए संगम क्षेत्र में तंबुओं की नगरी, पांटून पुल सहित अन्य व्यवस्थाएं करने में जुट गया है. साथ ही साथ गांव-देहात में कल्पवासी कल्पवास का ताना बाना बुनने लगे हैं. कल्पवासियों का कल्पवास पूरी सुचिता और शुद्धता के साथ पूर्ण हो, इसके लिए गंगा किनारे की बस्ती में उपले और मिट्टी के चूल्हे तैयार किए जा रहे हैं, जिनको यहां की स्थानीय महिलाएं तैयार कर रही हैं.


संगम की रेती पर दूर दराज से आकर श्रद्धालु एवं साधु संत एक मास का तीर्थ पुरोहित द्वारा व्यवस्थित शिविर में रहकर कल्पवास करते हैं. उस दौरान यहां पर मिट्टी से बने चूल्हे, बोरसी और गोबर से बने उपलों की मांग अधिक हो जाती है. चूल्हे पर खाना पकाने, बोरसी में उपला जलाकर हाथ पैर सेंकने की कड़ाके की सर्दी में आवश्यकता पड़ती है.

इस मिट्टी के 'चूल्हे' को लेना मत भूलिएगा

तंबुओं के नगर में एक माह कल्पवास करने वालों के टेंट में वैसे तो गैस सिलिंडर के प्रयोग होने लगे हैं, मगर अब भी ऐसे कल्पवासी और साधु-संत हैं, जो मिट्टी के चूल्हे पर बना भोजन ही ग्रहण करते हैं. क्योंकि कल्पवास में शुद्धता को पहली प्राथमिकता माना जाता है. इसके लिए मिट्टी के बने चूल्हे और गोबर के बने उपले शुद्धता की कसौटी पर खरे माने जाते हैं. यह बात वर्षों से गंगा तट पर मिट्टी का चूल्हा तैयार करने वाली महिलाओं को भली भांति पता है. इसीलिए वह कल्पवास का समय आने पर बिना किसी आर्डर के दो माह पहले से यह काम शुरू कर देती हैं.वर्षों से माघ और कुंभ मेला के लिए मिट्टी के खास चूल्हे बनाने वाली महिलाएं कहती है कि वह अब भी रोज औसतन 40-50 चूल्हे बना लेती है. इस साल भी महिलाओं ने सैकड़ों चूल्हों को तैयार कर लिया है और अभी मिट्टी का चूल्हा बनाने में व्यस्त हैं.वहीं उपले पाथने का भी काम कर रही महिलाएं बताती हैं कि यह उपले ठंड में कल्पवासी जलाते हैं. उपले आम तौर पर कल्पवासियों को कड़ाके की ठंड में हाथ-पैर सेंकने में मदद मिलती है. कुल मिलाकर यह कह सकते हैं कि साधु-संतों व कल्पवासियों की पहली पसंद होते हैं गाय का गोबर और गंगा की मिट्टी के बने चूल्‍हे.
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वर्तमान में वैसे तो माघ मेले में आने वाले तमाम श्रद्धालु गैस सिलेंडर आदि साथ लेकर आते हैं और उसी पर भोजन बनाते हैं, लेकिन यहां पर कल्पवास करने वाले भोजन प्रसाद बनाने के लिए मिट्टी के चूल्हों का ही इस्तेमाल करते हैं जिनमें आग जलाने के लिए गोबर के उपले व लकड़ी का प्रयोग करते हैं. खाना बनाने के साथ साथ ठंड से बचने के लिए भी श्रद्धालु उपले का प्रयोग करते हैं जो कि चूल्हा 50 से 70 रुपये में है जबकि 100 रुपये से 120 रुपये में सौ उपले मिलते हैं. इसलिए माघ मेले के लिए तीन-चार माह पहले से चूल्हे और उपले बनाने की तैयारी शुरू कर दी जाती है.


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