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अवध के झूमरों में झलकती है नवाबों की शान; अंग्रेज भी रहे मुरीद, विदेशों तक छाई इसकी महीन कारीगरी - AWADH NAWABS CHANDELIERS

राजा-महाराजा के महलों से लेकर शाही इमारतों तक झूमरों की खूबसूरती नवाबी ठाट का अहसास कराती है.

Jhumar
Jhumar (Photo Credit: ETV Bharat)
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By ETV Bharat Uttar Pradesh Team

Published : Feb 7, 2025, 12:00 PM IST

लखनऊ: झूमर न सिर्फ रोशनी का माध्यम रहे हैं, बल्कि नवाबी दौर की शानो-शौकत और भव्यता के प्रतीक रहे. झूमर बनाने वाले कारीगर कालिदास चौधरी ने बताया कि अंग्रेज भी इन झूमरों के मुरीद थे. वे झूमर को सेट करने भारत आते थे. कालिदास बताते हैं कि पुराने झूमरों को बनाते-बनाते वो कारीगर बन गए. पिछले 50 साल से यह काम कर रहे कालीदास के झूमर अमेरिका, ब्रिटेन, नेपाल सहित कई देशों में पहुंच चुके हैं.

ETV Bharat ने झूमर कारीगर कालिदास से बात की. उनसे झूमर के इतिहास, इनकी भव्यता, उत्सवधर्मिता के बारे में जाना. उन्होंने बताया कि नवाबों के दौर में बेल्जियम, लंदन और तुर्की से झूमर मंगवाए जाते थे, जो महलों, हवेलियों और इमामबाड़ों की खूबसूरती बढ़ाते थे. देखें यह रिपोर्ट...

अवध के झूमरों में झलकती है नवाबों की शान. (Video Credit: ETV Bharat)


अंग्रेजों से सीखी झूमर बनाने की कला: कालिदास चौधरी बताते हैं, "अंग्रेज झूमर को सेट करने खुद भारत आते थे। हमने उनके साथ काम किया और काम करते-करते खुद कारीगर बन गए. पिछले 50 सालों से हम झूमर बना रहे हैं. नवाबी दौर में मोहर्रम के महीने में खासतौर पर हरे कांच के झूमर महलों और कोठियों में लगाए जाते थे. इसका मकसद शोक के माहौल में भी संतुलन बनाए रखना था. उस झूमर की रोशनी खास होती थी, जिससे माहौल में अलग ही नूर बिखरता था.

सबसे महंगे झूमर की कीमत: कालिदास चौधरी ने बताया कि उन्होंने नवाबों से पुराने झूमर के कुछ हिस्से लिए, कुछ सामान कबाड़ बाजार से जुटाए और अलग-अलग स्थानों से यूनिक पार्ट्स इकट्ठे किए. अब तक का सबसे महंगा झूमर तीन लाख रुपए में बेचा है. झूमर की शुरुआती कीमत 1000 रुपए होती है.

अवध के झूमरों की शान निराली है. आज भी इनकी डिमांड है.
अवध के झूमरों की शान निराली है. आज भी इनकी डिमांड है. (Photo Credit: ETV Bharat)

झूमर का दौर और बदलता बाजार: पहले झूमर ही रोशनी का प्रमुख स्रोत हुआ करते थे, लेकिन बिजली के आने के बाद इनकी मांग में गिरावट आई. बावजूद इसके यूनिक और क्लासिक झूमरों की अब भी अच्छी मांग बनी हुई है. बाजार में डुप्लीकेट और ओरिजिनल झूमर दोनों मौजूद हैं. कालिदास बताते हैं, "अगर कोई डुप्लीकेट झूमर आपको 60 हजार रुपये में मिलता है, तो वही ओरिजिनल झूमर 6 लाख रुपए का होगा."

कारीगर बताते हैं कि हर काम के लिए अलग झूमर होते थे.
कारीगर बताते हैं कि हर काम के लिए अलग झूमर होते थे. (Photo Credit: ETV Bharat)

अंग्रेजों की अनूठी तकनीक और झूमर की खासियत: कालिदास बताते हैं कि अंग्रेज झूमर बनाने के लिए सोने, चांदी और पीतल जैसी धातुओं का इस्तेमाल करते थे. इससे कांच में गैस नहीं बनती थी. वह आसानी से चटकता नहीं था. कालीदास बताते हैं, "हम पहले कांच को खूब तपाते हैं, फिर उसमें अलग-अलग धातुएं मिलाते हैं. हमारे बनाए झूमर के कांच को अगर आप अंगुली से ठोकेंगे, तो उसमें धातु जैसी आवाज आएगी, न कि साधारण कांच जैसी."

अवध के इमामबाड़ों में लगे नवाबी झूमर : लखनऊ के छोटे इमामबाड़े और बड़े इमामबाड़े में बेहतरीन नवाबी झूमर लगे हैं. छोटे इमामबाड़े में करीब 50 बड़े झूमर, जबकि बड़े इमामबाड़े में 30-35 छोटे-बड़े झूमर लगे हुए हैं. हालांकि, समय के साथ इनकी हालत खराब हो गई है. कई झूमरों के कांच टूट चुके हैं. साफ-सफाई के अभाव में इनकी खूबसूरती फीकी पड़ चुकी है.

लखनऊ की पुरानी ऐतिहासिक इमारतों में यह झूमर सजते थे.
लखनऊ की पुरानी ऐतिहासिक इमारतों में यह झूमर सजते थे. (Photo Credit: ETV Bharat)

झूमर के साथ फानूस का भी जलवा : झूमर की तरह फानूस भी घरों और इमारतों की शान हुआ करता था. छोटे इमामबाड़े में कई फानूस मौजूद हैं, जो खूबसूरत कांच और धातु से बनाए गए हैं. वे आज भी पर्यटकों का ध्यान खींचते हैं.

फिल्मों में दिखे कालिदास चौधरी के झूमर : कालिदास चौधरी के बनाए झूमर कई फिल्मों में भी नजर आ चुके हैं. वे बताते हैं, "हमने 'उमराव जान अदा' फिल्म में झूमर लगाए थे. जब मुजरे का सीन शूट हुआ तो वहां का झूमर अलग था. हवेली और महल के झूमर अलग थे. इमामबाड़ों में भी अलग डिजाइन के झूमर इस्तेमाल किए गए.

अवध के झूमर की खास पहचान : देश के कई हिस्सों में झूमर बनाए जाते हैं. फिरोजाबाद भी इसमें शामिल है. हालांकि अवध के झूमरों की बात ही अलग है. यहां की शिल्पकारी, नवाबी ठाठ और बारीक कारीगरी के कारण इन झूमरों की अनूठी पहचान बनी हुई है.

महलों में हर कमरे के लिए अलग तरह के झूमर लगते थे.
महलों में हर कमरे के लिए अलग तरह के झूमर लगते थे. (Photo Credit: ETV Bharat)

झूमर नाम कैसे पड़ा : झूमर, जिसे चांदनी भी कहा जाता है, छत से लटकी प्रकाश व्यवस्था होती है. यह आमतौर पर धातु की चेन या रॉड से जुड़ी होती है. झूमर शब्द "झूम" से आया है, इसका अर्थ है "हल्की गति से झूलना". झूमर में लगे कांच के क्रिस्टल या झुमके हल्की हवा में हिलते हुए दिखते हैं, जिससे यह नाम पड़ा. झूमर का इतिहास मध्य युग से जुड़ा हुआ है. राजा-महाराजा अपने महलों में कैंडल होल्डर के रूप में इनका उपयोग करते थे. पहले झूमर महंगे धातुओं जैसे सोना, चांदी, पीतल, या तांबे से बनाए जाते थे, जबकि आम लोग इन्हें लकड़ी या दूसरी सस्ती सामग्रियों से बनाते थे.

रंगीन झूमर अक्सर मुजरे के दौरान लगते थे.
रंगीन झूमर अक्सर मुजरे के दौरान लगते थे. (Photo Credit: ETV Bharat)
झूमर के विभिन्न प्रकार

फ्लश माउंट झूमर: यह छत के बिल्कुल करीब लगा होता है और छोटे कमरों के लिए उपयुक्त होता है.
सेमी-फ्लश झूमर : यह छत से थोड़ा नीचे लटकता है और सौंदर्य के साथ-साथ व्यावहारिकता भी जोड़ता है.
हैंगिंग झूमर : यह झूमरों का पारंपरिक रूप है, जो लोहे की चेन या स्टील रॉड से लटकाया जाता है.
अपलाइट झूमर : यह छत की ओर रोशनी डालता है. हल्के रंग की छत वाले कमरों के लिए उपयुक्त होता है.
डाउनलाइट झूमर : इसमें रोशनी नीचे की ओर गिरती है, जिससे कार्यक्षमता बढ़ती है.
आधुनिक झूमर : अनोखी आकृतियों और आधुनिक तकनीक से सुसज्जित झूमर, जो स्टाइलिश लुक प्रदान करते हैं.
पारंपरिक झूमर : क्रिस्टल और बहु-स्तरीय डिजाइनों से भरपूर ये झूमर सदियों पुरानी शान को दर्शाते हैं.

हर झूमर की अपनी कहानी होती है, इतिहास होता है.
हर झूमर की अपनी कहानी होती है, इतिहास होता है. (Photo Credit: ETV Bharat)
परफेक्ट झूमर कैसे चुनें?कमरे का आकार: बड़े कमरे के लिए भव्य झूमर, जबकि छोटे कमरे के लिए कॉम्पैक्ट डिजाइन चुनें.
छत की ऊंचाई : यदि छत 10-11 फीट ऊंची है तो अधिकतम 3 फीट लंबा झूमर लें, ताकि यह किसी के रास्ते में न आए.
इंटीरियर से मेल खाना : झूमर आपके कमरे की बाकी सजावट के साथ मेल खाना चाहिए. यदि कमरे में सिल्वर थीम है, तो सिल्वर झूमर लें.

यह भी पढ़ें: लखनऊ में कैसरबाग से हुसैनाबाद के बीच आकार ले रहा हेरिटेज काॅरिडोर, पढ़िए डिटेल - LUCKNOW HERITAGE CORRIDOR

लखनऊ: झूमर न सिर्फ रोशनी का माध्यम रहे हैं, बल्कि नवाबी दौर की शानो-शौकत और भव्यता के प्रतीक रहे. झूमर बनाने वाले कारीगर कालिदास चौधरी ने बताया कि अंग्रेज भी इन झूमरों के मुरीद थे. वे झूमर को सेट करने भारत आते थे. कालिदास बताते हैं कि पुराने झूमरों को बनाते-बनाते वो कारीगर बन गए. पिछले 50 साल से यह काम कर रहे कालीदास के झूमर अमेरिका, ब्रिटेन, नेपाल सहित कई देशों में पहुंच चुके हैं.

ETV Bharat ने झूमर कारीगर कालिदास से बात की. उनसे झूमर के इतिहास, इनकी भव्यता, उत्सवधर्मिता के बारे में जाना. उन्होंने बताया कि नवाबों के दौर में बेल्जियम, लंदन और तुर्की से झूमर मंगवाए जाते थे, जो महलों, हवेलियों और इमामबाड़ों की खूबसूरती बढ़ाते थे. देखें यह रिपोर्ट...

अवध के झूमरों में झलकती है नवाबों की शान. (Video Credit: ETV Bharat)


अंग्रेजों से सीखी झूमर बनाने की कला: कालिदास चौधरी बताते हैं, "अंग्रेज झूमर को सेट करने खुद भारत आते थे। हमने उनके साथ काम किया और काम करते-करते खुद कारीगर बन गए. पिछले 50 सालों से हम झूमर बना रहे हैं. नवाबी दौर में मोहर्रम के महीने में खासतौर पर हरे कांच के झूमर महलों और कोठियों में लगाए जाते थे. इसका मकसद शोक के माहौल में भी संतुलन बनाए रखना था. उस झूमर की रोशनी खास होती थी, जिससे माहौल में अलग ही नूर बिखरता था.

सबसे महंगे झूमर की कीमत: कालिदास चौधरी ने बताया कि उन्होंने नवाबों से पुराने झूमर के कुछ हिस्से लिए, कुछ सामान कबाड़ बाजार से जुटाए और अलग-अलग स्थानों से यूनिक पार्ट्स इकट्ठे किए. अब तक का सबसे महंगा झूमर तीन लाख रुपए में बेचा है. झूमर की शुरुआती कीमत 1000 रुपए होती है.

अवध के झूमरों की शान निराली है. आज भी इनकी डिमांड है.
अवध के झूमरों की शान निराली है. आज भी इनकी डिमांड है. (Photo Credit: ETV Bharat)

झूमर का दौर और बदलता बाजार: पहले झूमर ही रोशनी का प्रमुख स्रोत हुआ करते थे, लेकिन बिजली के आने के बाद इनकी मांग में गिरावट आई. बावजूद इसके यूनिक और क्लासिक झूमरों की अब भी अच्छी मांग बनी हुई है. बाजार में डुप्लीकेट और ओरिजिनल झूमर दोनों मौजूद हैं. कालिदास बताते हैं, "अगर कोई डुप्लीकेट झूमर आपको 60 हजार रुपये में मिलता है, तो वही ओरिजिनल झूमर 6 लाख रुपए का होगा."

कारीगर बताते हैं कि हर काम के लिए अलग झूमर होते थे.
कारीगर बताते हैं कि हर काम के लिए अलग झूमर होते थे. (Photo Credit: ETV Bharat)

अंग्रेजों की अनूठी तकनीक और झूमर की खासियत: कालिदास बताते हैं कि अंग्रेज झूमर बनाने के लिए सोने, चांदी और पीतल जैसी धातुओं का इस्तेमाल करते थे. इससे कांच में गैस नहीं बनती थी. वह आसानी से चटकता नहीं था. कालीदास बताते हैं, "हम पहले कांच को खूब तपाते हैं, फिर उसमें अलग-अलग धातुएं मिलाते हैं. हमारे बनाए झूमर के कांच को अगर आप अंगुली से ठोकेंगे, तो उसमें धातु जैसी आवाज आएगी, न कि साधारण कांच जैसी."

अवध के इमामबाड़ों में लगे नवाबी झूमर : लखनऊ के छोटे इमामबाड़े और बड़े इमामबाड़े में बेहतरीन नवाबी झूमर लगे हैं. छोटे इमामबाड़े में करीब 50 बड़े झूमर, जबकि बड़े इमामबाड़े में 30-35 छोटे-बड़े झूमर लगे हुए हैं. हालांकि, समय के साथ इनकी हालत खराब हो गई है. कई झूमरों के कांच टूट चुके हैं. साफ-सफाई के अभाव में इनकी खूबसूरती फीकी पड़ चुकी है.

लखनऊ की पुरानी ऐतिहासिक इमारतों में यह झूमर सजते थे.
लखनऊ की पुरानी ऐतिहासिक इमारतों में यह झूमर सजते थे. (Photo Credit: ETV Bharat)

झूमर के साथ फानूस का भी जलवा : झूमर की तरह फानूस भी घरों और इमारतों की शान हुआ करता था. छोटे इमामबाड़े में कई फानूस मौजूद हैं, जो खूबसूरत कांच और धातु से बनाए गए हैं. वे आज भी पर्यटकों का ध्यान खींचते हैं.

फिल्मों में दिखे कालिदास चौधरी के झूमर : कालिदास चौधरी के बनाए झूमर कई फिल्मों में भी नजर आ चुके हैं. वे बताते हैं, "हमने 'उमराव जान अदा' फिल्म में झूमर लगाए थे. जब मुजरे का सीन शूट हुआ तो वहां का झूमर अलग था. हवेली और महल के झूमर अलग थे. इमामबाड़ों में भी अलग डिजाइन के झूमर इस्तेमाल किए गए.

अवध के झूमर की खास पहचान : देश के कई हिस्सों में झूमर बनाए जाते हैं. फिरोजाबाद भी इसमें शामिल है. हालांकि अवध के झूमरों की बात ही अलग है. यहां की शिल्पकारी, नवाबी ठाठ और बारीक कारीगरी के कारण इन झूमरों की अनूठी पहचान बनी हुई है.

महलों में हर कमरे के लिए अलग तरह के झूमर लगते थे.
महलों में हर कमरे के लिए अलग तरह के झूमर लगते थे. (Photo Credit: ETV Bharat)

झूमर नाम कैसे पड़ा : झूमर, जिसे चांदनी भी कहा जाता है, छत से लटकी प्रकाश व्यवस्था होती है. यह आमतौर पर धातु की चेन या रॉड से जुड़ी होती है. झूमर शब्द "झूम" से आया है, इसका अर्थ है "हल्की गति से झूलना". झूमर में लगे कांच के क्रिस्टल या झुमके हल्की हवा में हिलते हुए दिखते हैं, जिससे यह नाम पड़ा. झूमर का इतिहास मध्य युग से जुड़ा हुआ है. राजा-महाराजा अपने महलों में कैंडल होल्डर के रूप में इनका उपयोग करते थे. पहले झूमर महंगे धातुओं जैसे सोना, चांदी, पीतल, या तांबे से बनाए जाते थे, जबकि आम लोग इन्हें लकड़ी या दूसरी सस्ती सामग्रियों से बनाते थे.

रंगीन झूमर अक्सर मुजरे के दौरान लगते थे.
रंगीन झूमर अक्सर मुजरे के दौरान लगते थे. (Photo Credit: ETV Bharat)
झूमर के विभिन्न प्रकार

फ्लश माउंट झूमर: यह छत के बिल्कुल करीब लगा होता है और छोटे कमरों के लिए उपयुक्त होता है.
सेमी-फ्लश झूमर : यह छत से थोड़ा नीचे लटकता है और सौंदर्य के साथ-साथ व्यावहारिकता भी जोड़ता है.
हैंगिंग झूमर : यह झूमरों का पारंपरिक रूप है, जो लोहे की चेन या स्टील रॉड से लटकाया जाता है.
अपलाइट झूमर : यह छत की ओर रोशनी डालता है. हल्के रंग की छत वाले कमरों के लिए उपयुक्त होता है.
डाउनलाइट झूमर : इसमें रोशनी नीचे की ओर गिरती है, जिससे कार्यक्षमता बढ़ती है.
आधुनिक झूमर : अनोखी आकृतियों और आधुनिक तकनीक से सुसज्जित झूमर, जो स्टाइलिश लुक प्रदान करते हैं.
पारंपरिक झूमर : क्रिस्टल और बहु-स्तरीय डिजाइनों से भरपूर ये झूमर सदियों पुरानी शान को दर्शाते हैं.

हर झूमर की अपनी कहानी होती है, इतिहास होता है.
हर झूमर की अपनी कहानी होती है, इतिहास होता है. (Photo Credit: ETV Bharat)
परफेक्ट झूमर कैसे चुनें?कमरे का आकार: बड़े कमरे के लिए भव्य झूमर, जबकि छोटे कमरे के लिए कॉम्पैक्ट डिजाइन चुनें.
छत की ऊंचाई : यदि छत 10-11 फीट ऊंची है तो अधिकतम 3 फीट लंबा झूमर लें, ताकि यह किसी के रास्ते में न आए.
इंटीरियर से मेल खाना : झूमर आपके कमरे की बाकी सजावट के साथ मेल खाना चाहिए. यदि कमरे में सिल्वर थीम है, तो सिल्वर झूमर लें.

यह भी पढ़ें: लखनऊ में कैसरबाग से हुसैनाबाद के बीच आकार ले रहा हेरिटेज काॅरिडोर, पढ़िए डिटेल - LUCKNOW HERITAGE CORRIDOR

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