लखनऊ: देश में जहां एक तरफ मानव विकास, श्रमिक विकास और रोजगार की बड़ी-बड़ी बातें होती हैं. वहीं राजधानी लखनऊ के दैनिक दिहाड़ी वाले मजदूरों का बुरा हाल है. इन दिहाड़ी मजदूरों में 70 साल के वृद्ध और युवा भी शामिल हैं. देश में बढ़ रही बेरोजगारी को लेकर शायद सरकार चिंतित नहीं है.
लखनऊ में मजदूरों पर मंदी का असर
राजधानी लखनऊ में दूरदराज के गांव से लोग मजदूरी के लिए शहर आते हैं और मजदूरी पाने के बाद शाम को अपने घर का चूल्हा जलाते हैं. एक तरफ जहां सरकारी पैसे से सजे मंच से नेता बड़ी-बड़ी बात बोलते हैं, बेरोजगारी की समस्या पर रोजगार देने के तमाम दावे करते हैं, लेकिन जमीनी हकीकत तो कुछ और ही नजर आती है. फिलहाल दैनिक मजदूरों की स्थिति यह है कि महीने में 30 दिन लगातार लखनऊ आने के बाद भी 10 दिन का ही रोजगार मिल पाता है. इससे मजदूर वर्ग का बड़ा तबका परेशान है.
मजदूरों को काम न मिलने के कारण कभी-कभी भूखा भी सोना पड़ता है. अब ऐसे में आखिर ये जाएं तो कहां जाएं और अपनी शिकायत किससे करें. वैसे तो श्रम विभाग कई योजनाओं की बात करता है, लेकिन उन योजनाओं का लाभ जमीनी स्तर तक पहुंचता नहीं दिख रहा है. लोगों का कहना है कि श्रम विभाग मजदूरों के हित के लिए कभी खड़ा नहीं होता और न ही उनको योजनाओं का लाभ मिलता है.
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देश में बेरोजगारी सबसे बड़ी बीमारी बन चुकी है और बड़ी बीमारी होने के साथ ही यह लाइलाज भी हो चुकी है, क्योंकि इस विषय पर तो कोई बात ही नहीं करना चाहता, जब चुनाव होता है तब बेरोजगारी सिर्फ एक चुनावी मुद्दा बन कर रह जाती है. राजधानी लखनऊ में दैनिक मजदूरी के लिए तकरीबन 20 ऐसे अड्डे हैं, जहां लोग मजदूरी की तलाश में आते हैं. इन अड्डों पर प्रतिदिन हजारों की संख्या में आने वाले मजदूरों में कुछ ही को मजदूरी मिल पाती है, बाकी खाली हाथ अपने घर वापस लौट जाते हैं, जिसकी वजह से इनको कभी-कभी भूखा भी सोना पड़ता है.