लखनऊ: विधानसभा चुनाव में बसपा को करारी हार का सामना करना पड़ा. ऐसे में पार्टी प्रमुख मायावती तमतमा गई है. उन्होंने सारा दोष मीडिया पर फोड़ दिया. वहीं, कई पदाधिकारियों की भी छुट्टी होने के आसार हैं. मगर, हार की वजह कुछ और हैं. बसपा के हार के पीछे पार्टी सुप्रीमो की निष्क्रियता ही उभर कर आती है. राजनीतिक विश्लेषक व लखनऊ विश्व विद्यालय के प्रोफेसर रविकांत से जानिए बसपा की हार के प्रमुख कारण क्या रहे?
बसपा की यह थी चुनावी नीति
मुस्लिमों को ज्यादा टिकट: यूपी में विधानसभा की 403 सीटें हैं. यहां भाजपा-सपा अन्य दलों के साथ गठबंधन करके मैदान में उतरीं. वहीं, बसपा अकेले दम पर 403 सीटों पर चुनाव लड़ी. इसमें सामाजिक-जातीय समीकरण साधकर बसपा ने टिकट बांटे. इस दौरान दूसरे दलों से आए प्रभावशाली नेताओं को भी टिकट दिए. ऐसे में 25 के करीब टिकट लिस्ट जारी होने के बाद बदलने पड़े. वहीं, कुल 69 ब्राह्मण, 88 मुस्लिम, 92 एससी-एसटी, 105 से अधिक ओबीसी व अन्य को मैदान में उतारा. लेकिन चुनाव के नतीजे में सोशल इंजीनियरिंग का यह फार्मूला धुंआ हो गया.
माया-सतीश की रैली: विधानसभा चुनाव में बसपा की तैयारियों पर भी नजर डालें तो चुनाव से पहले बसपा प्रमुख मायावती कार्यालय-आवास पर विधानसभावार समीक्षा करती रहीं. इसके बाद दो फरवरी से खुद मैदान में निकलने का फैसला किया. पहली रैली आगरा में की और अंतिम रैली तीन मार्च को प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में की. इस दौरान मायावती ने सिर्फ मंडलवार 18 जनसभाएं की. वहीं, बसपा के राष्ट्रीय महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा ने विधानसभावार करीब 150 जनसभाएं, रोड शो, और चुनावी रैली की. मायावती का कम रैली करना उनके मूल वोटर को जोड़ नहीं सका.
हर रैली में एक ही बात, मुद्दों को नहीं मिली धार
1- मायावती ने भाजपा-सपा को दलित विरोधी करार दिया. इसके जरिये अपने बिखरे वोटों को एकजुट करने की कोशिश की. भाजपा को जहां आरक्षण मसले पर घेरा वहीं, सपा द्वारा संसद में प्रमोशन में आरक्षण का बिल फाड़ने की घटना की याद दिलाई. मगर यह मुद्दा जमीनी असर नहीं दिखा पाया.
2- मायावती ने हर चुनावी जनसभा में कानून व्यवस्था का मसला उठाया. इसमें लखीमपुर हिंसा, पुलिस कस्टडी में मौतें, एनकांउटर, मुस्लिम व महिलाओं के साथ हुई घटनाओं के जरिये भाजपा को घेरा वहीं, दंगा और लूट के जरिये सपा शासन काल की याद दिलाई. लेकिन, कार्यकर्ता वोटरों तक मायावती का संदेश पहुंचाने में नाकाम रहे.
3- मायावती के एजेंडे में बेरोजगारी, कर्मियों के मसले भी शामिल रहे. पुरानी पेंशन, पेपर लीक प्रकरण, विभागों में लाखों डंप भर्ती को लेकर सरकार को घेरा. इसके अलावा किसानों की आय दो गुना को लेकर भी सवाल उठाया. वहीं, सपा सरकार में नौकरी में भ्रष्टाचार को लेकर हमला बोला. मगर यह भी मुद्दे जनमानस पर छाप नहीं छोड़ सके.
4- मायावती ने बसपा के शासनकाल की नीतियों को भी जनता के समक्ष रखा. इसमें प्रदेश में कायम रही कानून व्यवस्था का दावा किया. साथ ही दलित, महिला ,मजदूर, गरीब, युवा, किसान, कर्मचारियों के हित को लेकर भी अपना पक्ष रखा. साथ ही घोषणा के बजाय काम करने का वादा किया. मगर घोषणा पत्र न होने से उनके विकास के रोड मैप पर जनता को भरोसा नहीं हुआ.
5- मायावती ने चुनावी जनसभा में भाईचारा नीति को धार दिया. इसमें दलितों के साथ-साथ सवर्ण और मुस्लिम वोटरों को साधने की कोशिश की. सवर्णों में ब्राह्मणों को जोड़ने पर उनका खास फोकस रहा. इस नीति के जरिए 2007 वाली जीत हासिल करने का एलान किया. मगर, यह भी नाकाफी रहा.
इनडोर पॉलिटिक्स पड़ी भारी : बसपा प्रमुख लंबे वक्त तक दिल्ली में रहीं. सदनों में जनता के मुद्दों पर उनके विधायक खामोश रहे. सड़कों पर कार्यकर्ता भी जनसमस्या को लेकर संघर्ष करते नहीं दिखे. ऐसे में बसपा पर भाजपा की बी टीम होने के आरोप लगने लगे. विधानसभा चुनाव नजदीक होने पर भी मायावती आवास और कार्यालय में समीक्षा करती रहीं. ऐनवक्त पर बाहर निकलीं, जिस पर जनता ने मुंह फेर लिया.
दलित वोटों में बड़ी सेंध: बसपा इस चुनाव में अपने दलित वोटरों को भी नहीं सहेज पाई. अधिकतर सीटों पर भजपा का वोट ट्रांसफर हुआ. इसी वोटर के दम पर बसपा सत्ता में शामिल होती रही या चुनाव परिणाम प्रभावित करती रही है. इस बार लगभग पचास फीसद वोट बैंक में सेंध लगी. अधिकतर सीटों पर यह वोट भाजपा की ओर ट्रांसफर हुआ जबकि कुछ सीटों पर सपा गठबंधन की तरफ गया.
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नेताओं ने छोड़ा साथ: बसपा के अधिकतर नेता उसे चुनाव से पहले ही छोड़ गए. चुनाव तक पहुंचते हुए 19 में से मात्र तीन विधायक ही रह गए. दूसरे दलों से आये नेता टिकट ले आए. ऐसे में इस बार बसपा कभी भी चुनावी रण में मजबूती से खड़ी दिखी ही नहीं.
अब तक की सबसे कम मिली सीट
बसपा ने साल 1989 में यूपी विधानसभा का चुनाव लड़ा था, तब 13 सीटें मिलीं थीं. 1991 में 12, 1993 और 1996 में 67-67, वर्ष 2002 में 98 मिलीं थी. वर्ष 2007 में 206 सीटों के साथ बसपा को पूर्ण बहुमत मिला. यहां तक बसपा सुप्रीमो मायावती चार बार सीएम बनीं. इसके बाद से बसपा का पतन शुरू हो गया. वर्ष 2012 के चुनाव में बसपा को 80 सीटें ही मिलीं. वर्ष 2017 के चुनाव में तो बसपा की हालत और खराब हो गई. मात्र 19 सीटों पर सिमट गई. अब सिर्फ एक सीट मिली है.
वोट फीसद को भी लगा बड़ा झटका
2007 में मायावती ने सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूले से विधानसभा में 30.43 फीसद वोट हासिल किए. 2009 के लोकसभा चुनाव में भी बसपा ने 27.4 फीसदी वोट हासिल किए. 2012 में सोशल इंजीनियरिंग की चमक कमजोर पड़ गई. वोट गिरते हुए 25.9 फीसदी पर पहुंच गए. 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा को 20 फीसदी वोट मिले. 2017 में 23 फीसदी वोट और 2022 में सिर्फ 18.88 फीसद वोट हासिल किए.
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