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बुलंदशहर की 2 हस्तियां यूपी की शान; एक ने अचार, दूसरे ने सब्जी की खड़ी की कंपनी, करोड़ों का टर्नओवर, हजारों को रोजगार - BULANDSHAHR NEWS

मिलेगा उत्तर प्रदेश गौरव सम्मान, जानिए कृष्णा यादव और सुभाष देशवाल के संघर्ष और सफलता की कहानी

बुलंदशहर की 2 हस्तियां बनीं यूपी की शान.
बुलंदशहर की 2 हस्तियां बनीं यूपी की शान. (Photo Credit; ETV Bharat)
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By ETV Bharat Uttar Pradesh Team

Published : Jan 24, 2025, 3:16 PM IST

Updated : Jan 25, 2025, 9:56 AM IST

बुलंदशहर: उत्तर प्रदेश के स्थापना दिवस पर जिन छह लोगों को उत्तर प्रदेश गौरव सम्मान मिला है, उनमें बुलंदशहर की ऐसी दो हस्तियां भी हैं, फर्श से अर्श तक का सफर तय किया. सफलता इन्हें अचानक नहीं मिली. एक लंबे संघर्ष और दिन रात की मेहनत के बाद इन्होंने वो मुकाम हासिल कर लिया, जो दूसरों के लिए आज नजीर है. हम बात कर रहे हैं, बुलंदशहर की उद्यमी कृष्णा यादव और रिटायर्ड कर्नल सुभाष देशवाल की. दोनों आज सफल कारोबारी हैं. कृष्णा अचार के अपने उद्यम को आज इस मुकाम पर ले आई हैं कि सालाना टर्नओवर 5 करोड़ रुपये से ज्यादा हो चुका है, वहीं सुभाष की कंपनी अंग्रेजी गाजर की सबसे बड़ी उत्पादक कंपनियों में से एक है. आइए जानते हैं इनकी तरक्की की कहानी...

कृष्णा यादव की गिनती आज एक सफल कारोबारी के रूप में होती है.
कृष्णा यादव की गिनती आज एक सफल कारोबारी के रूप में होती है. (Photo Credit; ETV Bharat)

छोटे से कमरे से की कारोबार की शुरुआत: लगन और काम करने का जज्बा हो तो बुलंदियों को छुआ जा सकता है. इसे साबित कर दिखाया है कृष्णा यादव ने. दिल्ली के नजफगढ़ की रहने वाली कृष्णा यादव ने एक छोटे से कमरे से अपने कारोबार की शुरुआत की थी. वह पढ़ी-लिखी नहीं हैं. इसके बाद भी उन्होंने अपनी मेहनत और लगन के दम पर बड़ी सफलता हासिल की है. कृष्‍णा यादव को भारत सरकार के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की ओर से 2015 में नारी शक्ति सम्मान के लिए चुना गया था. आज वे 100 से ज्यादा महिलाओं को रोजगार दे रही हैं. उनका सालाना टर्नओवर 5 करोड़ रुपये से ज्यादा का हो चुका है. उनका अचार का उद्यम बुलंदशहर से दिल्ली तक फैला है. कृष्णा यादव को यह मुकाम आसानी से नहीं मिला. इसके लिए उन्हें काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा है.

रिटायर्ड कर्नल सुभाष देशवाल के प्रोडक्ट अंग्रेजी गाजर की आज काफी डिमांड है.
रिटायर्ड कर्नल सुभाष देशवाल के प्रोडक्ट अंग्रेजी गाजर की आज काफी डिमांड है. (Photo Credit; ETV Bharat)

आर्थिक तंगी का किया सामना: कृष्णा यादव मूल रूप से उत्तर प्रदेश में बुलंदशहर की रहने वाली हैं. साल 1995-96 में उनका परिवार आर्थिक तंगी से गुजर रहा था. पति भी बेरोजगारी से परेशान थे. कृष्णा यादव की दृढ़ता और साहस ही था कि जिसने उनके परिवार को इस कठिन दौर से उबरने की ताकत दी. उन्होंने अपने एक मित्र से 500 रुपये उधार लिए और परिवार के साथ दिल्ली आने का फैसला किया. दिल्ली में उन्हें जब कोई काम नहीं मिला तो उसके पति गोवर्धन यादव और उन्होंने थोड़ी सी जमीन बटाई पर लेकर पर सब्जी उगानी शुरू की.

खेतों में ट्रैक्टर चलाते सुभाष देशवाल.
खेतों में ट्रैक्टर चलाते सुभाष देशवाल. (Photo Credit; ETV Bharat)

इस तरह हुई शुरुआत: कृष्णा ने सब्जी से शुरू में अचार बनाने का काम शुरू किया था. इसके लिए उन्होंने शुरुआत में सिर्फ तीन हजार रुपये का निवेश किया था. इससे कृष्णा ने सौ किलो करौंदे का और 5 किलो मिर्च का अचार तैयार किया था. इसे बेचकर उन्हें शुरुआत में 5 हजार रुपये से ज्यादा मुनाफा हुआ था. इसके बाद कृष्णा ने अपने इसी कारोबार को बढ़ाने का फैसला किया.

अपनी मार्केटिंग खुद शुरू की : कृष्णा ने देखा कि वह जब अचार दूसरों के मार्फत बेचती हैं तो मुनाफे का बड़ा हिस्सा वह ले लेता है. इसलिए उन्होंने अपने अचार की मार्केटिंग खुद करने का फेसला किया. वह सड़क पर खुद अचार बेचने लगीं और इसकी मार्केटिंग भी करने लगीं. इसका फायदा मिला और कारोबार भी बढ़ा. उन्होंने 'श्री कृष्णा पिकल्स' नाम की एक कंपनी भी बना ली है, जिसकी मालकिन वही हैं. कुछ समय पहले तक उनका टर्नओवर 5 करोड़ रुपये से भी ऊपर पहुंच चुका था. कृष्णा यादव खुद कभी स्कूल नहीं जा पाई, लेकिन आज उन्हें दिल्ली के स्कूलों में खास तौर पर बच्चों को लेक्चर देने के लिए बुलाया जाता है.

रियायर्ड कर्नल सुभाष देशवाल बने गाजर राजा: रिटायर्ड कर्नल सुभाष देशवाल आज किसी पहचान के मोहताज नहीं हैं. उनकी कंपनी सनशाइन वेजिटेबल्स भारत में अंग्रेजी गाजर के सबसे बड़े उत्पादकों में से एक है. इस कंपनी की शुरुआत 2006 में कर्नल (सेवानिवृत्त) सुभाष देशवाल ने अपने दोस्त लाल किशन यादव के साथ मिलकर की थी. कर्नल देसवाल ने ईटीवी भारत से बताया कि 21 साल तक भारतीय सेना में सेवा की है. जब भी छुट्टियों में घर जाता था, तो मेरे परिवार के सदस्य अपने खेती के व्यवसाय के बारे में बात करते थे. बताते थे कि यह कितना खराब है. लेकिन मुझे पता था कि खेती के सही तरीकों और उचित मार्केटिंग से यह सफल हो सकता है. इस विचार ने मुझे जल्दी रिटायरमेंट लेने और दिल्ली से अपने गांव सिकंदराबाद जाने के लिए प्रेरित किया, जो यूपी के बुलंदशहर जिले में स्थित है.

दोस्त का मिला साथ: गांव लौटने पर सुभाष की मुलाकात अपने मित्र लाल किशन यादव से हुई, जिनके पास केमिकल इंजीनियरिंग की डिग्री थी. वे किसान तथा कृषि-इनपुट डीलर के रूप में काम कर रहे थे. सुभाष कहते हैं, मुझे खेती के बारे में बहुत बुनियादी जानकारी थी, लेकिन किशन को तकनीक पता थी. इसलिए हमने 2002 में साथ मिलकर काम करने का फैसला किया. हमारे पास अपनी ज़मीन नहीं थी, न ही हमारे पास जरूरी उपकरण थे. इसलिए हमने बुलंदशहर के एक दूसरे किसान से संपर्क किया. उसकी 2 एकड़ ज़मीन और कुछ उपकरण लीज़ पर लिए. फिर, हमने आलू, भिंडी, प्याज के लिए जरूरी बीज खरीदे और हाथ से जुताई, बोआई, पोषक तत्व डालना और समय-समय पर फसलों को पानी देने जैसी नियमित तकनीकों का इस्तेमाल कर खेती शुरू की. कुछ महीनों बाद, फसल कटाई के लिए तैयार हो गई, लेकिन उनकी उपज खराब थी. अगले तीन सालों तक, दोनों को कोई मुनाफा नहीं हुआ और उनके सारे प्रयास विफल हो गए. यही वह समय था जब सुभाष ने फैसला किया कि उन्हें रुक जाना चाहिए और खेती के बारे में जो कुछ भी वे जानते थे, उसे भी भूल जाना चाहिए।

ऐसे मिली कामयाबी की राह: सुभाष बताते हैं कि 2005 में खेती को फिर से सीखने के विचार से आईसीएआर, पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय आदि के कृषि वैज्ञानिकों से संपर्क किया. कई जगहों की यात्रा की और सीधे वैज्ञानिकों से संपर्क किया. उनमें से ज़्यादातर इस बात से खुश थे कि एक सैन्यकर्मी ने खेती करना शुरू किया है. सलाह देने की पेशकश की जिसे मान लिया. विभिन्न वैज्ञानिकों से मिलने के बाद सीखा कि अपनी उपज की गुणवत्ता और मात्रा कैसे बढ़ाई जाए. यह कई अनौपचारिक चर्चाओं और फ़ील्ड विज़िट के ज़रिए हुआ.

शुरू हुआ सफर: सुभाष कहते हैं, उन्होंने जो कुछ सीखा, उसमें से एक मुख्य बात यह थी कि भारत में खेती की व्यवस्था कैसी है और किसान किस तरह कर्ज में फंस जाते हैं. थोक बाजारों में कमीशन एजेंट, जो उपज के विपणन के लिए जिम्मेदार होते हैं, मूल्य निर्धारण के अवैज्ञानिक तरीकों के माध्यम से किसानों का शोषण करते हैं. कहते हैं, बाजार में अपनी उपज बेचने के लिए मैं उनकी दया पर निर्भर था. मैं इस दुष्चक्र से मुक्त होना चाहता था और अन्य किसानों की भी मदद करना चाहता था. तभी मैंने केवल एक फसल उगाने पर ध्यान केंद्रित करने का फैसला किया, वह थी अंग्रेजी गाजर.

क्या है अंग्रेजी गाजर: सुभाष बताते हैं कि अंग्रेजी गाजर उच्च गुणवत्ता वाली सब्जी है, जो यूरोप में पाई जाती है. यह आमतौर पर भारत में नहीं उगाई जाती है. इसलिए हमारे पास यहीं एक अप्रयुक्त बाज़ार था. हमने मिट्टी के प्रकार, उर्वरता और कृषि-जलवायु स्थितियों पर भी विचार किया. बुलंदशहर में रेतीली मिट्टी है, जो जड़ वाली सब्ज़ियां उगाने के लिए बहुत अच्छी है. फिर, हमें विस्तार करने की ज़रूरत थी, इसलिए हमने उसी जिले के अन्य किसानों को अनुबंध-आधारित खेती के विकल्प दिए. हमने गेहूं और गन्ना उगाने वाले किसानों से संपर्क किया, क्योंकि गाजर की खेती से उन्हें 2.5 गुना ज़्यादा आय हुई.

शुरू की अपनी कंपनी: 2006 में दोनों ने सनशाइन वेजिटेबल्स प्राइवेट लिमिटेड शुरू करने का फैसला किया. उनका मिशन एक ही फसल पर ध्यान केंद्रित करना, बड़ी संख्या में किसानों को एक साथ लाना, उचित खेती के तरीके अपनाना और कटाई के बाद प्रबंधन के लिए बुनियादी ढांचा तैयार करना था. जब उनके पास गाजर की खेती करने वाले कई किसान आ गए, तो दोनों ने उत्पादन की लागत कम करके उत्पादन बढ़ाने और मुनाफ़े को अधिकतम करने पर ध्यान केंद्रित किया. चूंकि यूरोप से उपकरण आयात करना महंगा साबित होता, इसलिए कृषि डीलरों के साथ मिलकर काम किया. यूपी में स्थानीय निर्माताओं को ढूंढा, ताकि वे मुझे बीज बोने की मशीन, सब्जी धोने की मशीन और कटाई की मशीन बनाने में मदद कर सकें. इटली में जिस मशीन की कीमत 10 लाख रुपये है, उसे भारत में 50,000 रुपये में बनाया जा सकता है.

विकसित की मशीन: कर्नल देसवाल कहते हैं, गाजर को खोदकर निकालने और उन्हें समूह पर सुरक्षित रूप से गिराने के लिए आंशिक रूप से मशीनीकृत तकनीक का आविष्कार किया गया था, ताकि मजदूर उन्हें उठा सकें. इससे श्रम-लागत और आवश्यकता तीन गुना कम हो गई. अंत में, सब्जी धोने की मशीन एक ड्रम और नरम स्क्रबर से बनाई गई जो सभी बाहरी गंदगी को हटा देती है.

बाजारों में जाता है उपज का आधा हिस्सा: 2007 से हम हर साल मार्च में करीब 20,000 मीट्रिक टन गाजर की कटाई करते आ रहे हैं. यह सभी अनुबंधित किसानों और लीज पर ली गई जमीनों से एकत्रित की गई उपज है. इसका आधा हिस्सा सीधे बाजारों में भेजा जाता है, बाकी आधा भंडारित किया जाता है. इसे अगले महीनों में पूरे देश में वितरण के लिए भेजा जाता है. आज कर्नल देसवाल अपने उत्पाद की गुणवत्ता और मात्रा के कारण गाजर राजा के नाम से मशहूर हैं. कंपनी में 1000 कर्मचारी हैं (लगभग 100 किसान और 900 मजदूर). सिकंदराबाद से हर साल 20,000 मीट्रिक टन से ज़्यादा अंग्रेज़ी गाजर का उत्पादन होता है, जिसे पूरे देश में वितरित किया जाता है.

यह भी पढ़ें : महाकुंभ से वायरल बंजारन मोनालिसा को बॉलीवुड से ऑफर, सनोज मिश्र की फिल्म में मिला अहम रोल - MAHA KUMBH VIRAL GIRL MONALISA

बुलंदशहर: उत्तर प्रदेश के स्थापना दिवस पर जिन छह लोगों को उत्तर प्रदेश गौरव सम्मान मिला है, उनमें बुलंदशहर की ऐसी दो हस्तियां भी हैं, फर्श से अर्श तक का सफर तय किया. सफलता इन्हें अचानक नहीं मिली. एक लंबे संघर्ष और दिन रात की मेहनत के बाद इन्होंने वो मुकाम हासिल कर लिया, जो दूसरों के लिए आज नजीर है. हम बात कर रहे हैं, बुलंदशहर की उद्यमी कृष्णा यादव और रिटायर्ड कर्नल सुभाष देशवाल की. दोनों आज सफल कारोबारी हैं. कृष्णा अचार के अपने उद्यम को आज इस मुकाम पर ले आई हैं कि सालाना टर्नओवर 5 करोड़ रुपये से ज्यादा हो चुका है, वहीं सुभाष की कंपनी अंग्रेजी गाजर की सबसे बड़ी उत्पादक कंपनियों में से एक है. आइए जानते हैं इनकी तरक्की की कहानी...

कृष्णा यादव की गिनती आज एक सफल कारोबारी के रूप में होती है.
कृष्णा यादव की गिनती आज एक सफल कारोबारी के रूप में होती है. (Photo Credit; ETV Bharat)

छोटे से कमरे से की कारोबार की शुरुआत: लगन और काम करने का जज्बा हो तो बुलंदियों को छुआ जा सकता है. इसे साबित कर दिखाया है कृष्णा यादव ने. दिल्ली के नजफगढ़ की रहने वाली कृष्णा यादव ने एक छोटे से कमरे से अपने कारोबार की शुरुआत की थी. वह पढ़ी-लिखी नहीं हैं. इसके बाद भी उन्होंने अपनी मेहनत और लगन के दम पर बड़ी सफलता हासिल की है. कृष्‍णा यादव को भारत सरकार के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की ओर से 2015 में नारी शक्ति सम्मान के लिए चुना गया था. आज वे 100 से ज्यादा महिलाओं को रोजगार दे रही हैं. उनका सालाना टर्नओवर 5 करोड़ रुपये से ज्यादा का हो चुका है. उनका अचार का उद्यम बुलंदशहर से दिल्ली तक फैला है. कृष्णा यादव को यह मुकाम आसानी से नहीं मिला. इसके लिए उन्हें काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा है.

रिटायर्ड कर्नल सुभाष देशवाल के प्रोडक्ट अंग्रेजी गाजर की आज काफी डिमांड है.
रिटायर्ड कर्नल सुभाष देशवाल के प्रोडक्ट अंग्रेजी गाजर की आज काफी डिमांड है. (Photo Credit; ETV Bharat)

आर्थिक तंगी का किया सामना: कृष्णा यादव मूल रूप से उत्तर प्रदेश में बुलंदशहर की रहने वाली हैं. साल 1995-96 में उनका परिवार आर्थिक तंगी से गुजर रहा था. पति भी बेरोजगारी से परेशान थे. कृष्णा यादव की दृढ़ता और साहस ही था कि जिसने उनके परिवार को इस कठिन दौर से उबरने की ताकत दी. उन्होंने अपने एक मित्र से 500 रुपये उधार लिए और परिवार के साथ दिल्ली आने का फैसला किया. दिल्ली में उन्हें जब कोई काम नहीं मिला तो उसके पति गोवर्धन यादव और उन्होंने थोड़ी सी जमीन बटाई पर लेकर पर सब्जी उगानी शुरू की.

खेतों में ट्रैक्टर चलाते सुभाष देशवाल.
खेतों में ट्रैक्टर चलाते सुभाष देशवाल. (Photo Credit; ETV Bharat)

इस तरह हुई शुरुआत: कृष्णा ने सब्जी से शुरू में अचार बनाने का काम शुरू किया था. इसके लिए उन्होंने शुरुआत में सिर्फ तीन हजार रुपये का निवेश किया था. इससे कृष्णा ने सौ किलो करौंदे का और 5 किलो मिर्च का अचार तैयार किया था. इसे बेचकर उन्हें शुरुआत में 5 हजार रुपये से ज्यादा मुनाफा हुआ था. इसके बाद कृष्णा ने अपने इसी कारोबार को बढ़ाने का फैसला किया.

अपनी मार्केटिंग खुद शुरू की : कृष्णा ने देखा कि वह जब अचार दूसरों के मार्फत बेचती हैं तो मुनाफे का बड़ा हिस्सा वह ले लेता है. इसलिए उन्होंने अपने अचार की मार्केटिंग खुद करने का फेसला किया. वह सड़क पर खुद अचार बेचने लगीं और इसकी मार्केटिंग भी करने लगीं. इसका फायदा मिला और कारोबार भी बढ़ा. उन्होंने 'श्री कृष्णा पिकल्स' नाम की एक कंपनी भी बना ली है, जिसकी मालकिन वही हैं. कुछ समय पहले तक उनका टर्नओवर 5 करोड़ रुपये से भी ऊपर पहुंच चुका था. कृष्णा यादव खुद कभी स्कूल नहीं जा पाई, लेकिन आज उन्हें दिल्ली के स्कूलों में खास तौर पर बच्चों को लेक्चर देने के लिए बुलाया जाता है.

रियायर्ड कर्नल सुभाष देशवाल बने गाजर राजा: रिटायर्ड कर्नल सुभाष देशवाल आज किसी पहचान के मोहताज नहीं हैं. उनकी कंपनी सनशाइन वेजिटेबल्स भारत में अंग्रेजी गाजर के सबसे बड़े उत्पादकों में से एक है. इस कंपनी की शुरुआत 2006 में कर्नल (सेवानिवृत्त) सुभाष देशवाल ने अपने दोस्त लाल किशन यादव के साथ मिलकर की थी. कर्नल देसवाल ने ईटीवी भारत से बताया कि 21 साल तक भारतीय सेना में सेवा की है. जब भी छुट्टियों में घर जाता था, तो मेरे परिवार के सदस्य अपने खेती के व्यवसाय के बारे में बात करते थे. बताते थे कि यह कितना खराब है. लेकिन मुझे पता था कि खेती के सही तरीकों और उचित मार्केटिंग से यह सफल हो सकता है. इस विचार ने मुझे जल्दी रिटायरमेंट लेने और दिल्ली से अपने गांव सिकंदराबाद जाने के लिए प्रेरित किया, जो यूपी के बुलंदशहर जिले में स्थित है.

दोस्त का मिला साथ: गांव लौटने पर सुभाष की मुलाकात अपने मित्र लाल किशन यादव से हुई, जिनके पास केमिकल इंजीनियरिंग की डिग्री थी. वे किसान तथा कृषि-इनपुट डीलर के रूप में काम कर रहे थे. सुभाष कहते हैं, मुझे खेती के बारे में बहुत बुनियादी जानकारी थी, लेकिन किशन को तकनीक पता थी. इसलिए हमने 2002 में साथ मिलकर काम करने का फैसला किया. हमारे पास अपनी ज़मीन नहीं थी, न ही हमारे पास जरूरी उपकरण थे. इसलिए हमने बुलंदशहर के एक दूसरे किसान से संपर्क किया. उसकी 2 एकड़ ज़मीन और कुछ उपकरण लीज़ पर लिए. फिर, हमने आलू, भिंडी, प्याज के लिए जरूरी बीज खरीदे और हाथ से जुताई, बोआई, पोषक तत्व डालना और समय-समय पर फसलों को पानी देने जैसी नियमित तकनीकों का इस्तेमाल कर खेती शुरू की. कुछ महीनों बाद, फसल कटाई के लिए तैयार हो गई, लेकिन उनकी उपज खराब थी. अगले तीन सालों तक, दोनों को कोई मुनाफा नहीं हुआ और उनके सारे प्रयास विफल हो गए. यही वह समय था जब सुभाष ने फैसला किया कि उन्हें रुक जाना चाहिए और खेती के बारे में जो कुछ भी वे जानते थे, उसे भी भूल जाना चाहिए।

ऐसे मिली कामयाबी की राह: सुभाष बताते हैं कि 2005 में खेती को फिर से सीखने के विचार से आईसीएआर, पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय आदि के कृषि वैज्ञानिकों से संपर्क किया. कई जगहों की यात्रा की और सीधे वैज्ञानिकों से संपर्क किया. उनमें से ज़्यादातर इस बात से खुश थे कि एक सैन्यकर्मी ने खेती करना शुरू किया है. सलाह देने की पेशकश की जिसे मान लिया. विभिन्न वैज्ञानिकों से मिलने के बाद सीखा कि अपनी उपज की गुणवत्ता और मात्रा कैसे बढ़ाई जाए. यह कई अनौपचारिक चर्चाओं और फ़ील्ड विज़िट के ज़रिए हुआ.

शुरू हुआ सफर: सुभाष कहते हैं, उन्होंने जो कुछ सीखा, उसमें से एक मुख्य बात यह थी कि भारत में खेती की व्यवस्था कैसी है और किसान किस तरह कर्ज में फंस जाते हैं. थोक बाजारों में कमीशन एजेंट, जो उपज के विपणन के लिए जिम्मेदार होते हैं, मूल्य निर्धारण के अवैज्ञानिक तरीकों के माध्यम से किसानों का शोषण करते हैं. कहते हैं, बाजार में अपनी उपज बेचने के लिए मैं उनकी दया पर निर्भर था. मैं इस दुष्चक्र से मुक्त होना चाहता था और अन्य किसानों की भी मदद करना चाहता था. तभी मैंने केवल एक फसल उगाने पर ध्यान केंद्रित करने का फैसला किया, वह थी अंग्रेजी गाजर.

क्या है अंग्रेजी गाजर: सुभाष बताते हैं कि अंग्रेजी गाजर उच्च गुणवत्ता वाली सब्जी है, जो यूरोप में पाई जाती है. यह आमतौर पर भारत में नहीं उगाई जाती है. इसलिए हमारे पास यहीं एक अप्रयुक्त बाज़ार था. हमने मिट्टी के प्रकार, उर्वरता और कृषि-जलवायु स्थितियों पर भी विचार किया. बुलंदशहर में रेतीली मिट्टी है, जो जड़ वाली सब्ज़ियां उगाने के लिए बहुत अच्छी है. फिर, हमें विस्तार करने की ज़रूरत थी, इसलिए हमने उसी जिले के अन्य किसानों को अनुबंध-आधारित खेती के विकल्प दिए. हमने गेहूं और गन्ना उगाने वाले किसानों से संपर्क किया, क्योंकि गाजर की खेती से उन्हें 2.5 गुना ज़्यादा आय हुई.

शुरू की अपनी कंपनी: 2006 में दोनों ने सनशाइन वेजिटेबल्स प्राइवेट लिमिटेड शुरू करने का फैसला किया. उनका मिशन एक ही फसल पर ध्यान केंद्रित करना, बड़ी संख्या में किसानों को एक साथ लाना, उचित खेती के तरीके अपनाना और कटाई के बाद प्रबंधन के लिए बुनियादी ढांचा तैयार करना था. जब उनके पास गाजर की खेती करने वाले कई किसान आ गए, तो दोनों ने उत्पादन की लागत कम करके उत्पादन बढ़ाने और मुनाफ़े को अधिकतम करने पर ध्यान केंद्रित किया. चूंकि यूरोप से उपकरण आयात करना महंगा साबित होता, इसलिए कृषि डीलरों के साथ मिलकर काम किया. यूपी में स्थानीय निर्माताओं को ढूंढा, ताकि वे मुझे बीज बोने की मशीन, सब्जी धोने की मशीन और कटाई की मशीन बनाने में मदद कर सकें. इटली में जिस मशीन की कीमत 10 लाख रुपये है, उसे भारत में 50,000 रुपये में बनाया जा सकता है.

विकसित की मशीन: कर्नल देसवाल कहते हैं, गाजर को खोदकर निकालने और उन्हें समूह पर सुरक्षित रूप से गिराने के लिए आंशिक रूप से मशीनीकृत तकनीक का आविष्कार किया गया था, ताकि मजदूर उन्हें उठा सकें. इससे श्रम-लागत और आवश्यकता तीन गुना कम हो गई. अंत में, सब्जी धोने की मशीन एक ड्रम और नरम स्क्रबर से बनाई गई जो सभी बाहरी गंदगी को हटा देती है.

बाजारों में जाता है उपज का आधा हिस्सा: 2007 से हम हर साल मार्च में करीब 20,000 मीट्रिक टन गाजर की कटाई करते आ रहे हैं. यह सभी अनुबंधित किसानों और लीज पर ली गई जमीनों से एकत्रित की गई उपज है. इसका आधा हिस्सा सीधे बाजारों में भेजा जाता है, बाकी आधा भंडारित किया जाता है. इसे अगले महीनों में पूरे देश में वितरण के लिए भेजा जाता है. आज कर्नल देसवाल अपने उत्पाद की गुणवत्ता और मात्रा के कारण गाजर राजा के नाम से मशहूर हैं. कंपनी में 1000 कर्मचारी हैं (लगभग 100 किसान और 900 मजदूर). सिकंदराबाद से हर साल 20,000 मीट्रिक टन से ज़्यादा अंग्रेज़ी गाजर का उत्पादन होता है, जिसे पूरे देश में वितरित किया जाता है.

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Last Updated : Jan 25, 2025, 9:56 AM IST
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