लखनऊ : उत्तर प्रदेश में आज विधानसभा चुनाव के लिए 58 सीटों पर पहले चरण का मतदान सकुशल संपन्न हो गया. जिस तरह सुबह मतदान तेजी से शुरू हुआ था, उससे उम्मीद की जा रही थी कि इस बार मतदान प्रतिशत पिछले चुनाव का रिकॉर्ड तोड़ देगा. हालांकि शाम होते-होते मतदाताओं का जोश भी फीका पड़ गया. अभी तक लगभग 60 प्रतिशत मतदान की खबर है. इस आंकड़े में देर रात तक कुछ अंतर हो सकता है.
सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के लिए पहला चरण सबसे संघर्षपूर्ण कहा जा सकता है. अधिकांश सीटों पर भाजपा मुख्य विपक्षी गठबंधन सपा-रालोद से संघर्ष करती दिखी. कुछ सीटों पर बसपा और कांग्रेस के प्रत्याशियों ने भी दमखम दिखाया और इन सीटों पर वह उलटफेर कर सकते हैं. जैसी उम्मीद की जा रही थी ठीक उसी प्रकार पहले चरण में बीजेपी को सपा और राष्ट्रीय लोक दल गठबंधन के प्रत्याशियों की कड़ी टक्कर मिलती देखी गई.
किसान आंदोलन, महंगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर भाजपा सरकार के विरोध की खबरें काफी पहले से आ रही थीं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश की इन 58 सीटों में कई पर अल्पसंख्यकों की अच्छी खासी तादाद है. पहले चरण के चुनाव के लिए ध्रुवीकरण की खूब कोशिश से हुईं. भाजपा को उम्मीद है कि अन्य कारणों से नाराज मतदाता हिंदुत्व के नाम पर मतभेद भुलाकर साथ खड़े होंगे.
संभव है कि भाजपा को इसका कुछ लाभ भी मिले. हालांकि पिछले चुनाव की स्थिति इस बार किसी कीमत पर रहने वाली नहीं है. इन 58 सीटों पर पिछले चुनाव की तुलना में निश्चित रूप से भाजपा को नुकसान उठाना पड़ेगा. ऐसा नहीं कि भाजपा के नेताओं को इसका अनुमान नहीं है, लेकिन वह समझते हैं कि आगे के चरणों में स्थितियां उनके हक में सुधरती जाएंगी.
दरअसल, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बड़ी जोत वाले किसानों की संख्या अधिक है. इस कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोग किसान आंदोलन से भावनात्मक रूप से जुड़े थे. एक साल से भी अधिक समय तक चले किसान आंदोलन को लेकर क्षेत्र के लोगों में नाराजगी स्वाभाविक थी. वहीं भाजपा को विश्वास था कि योगी आदित्यनाथ सरकार में माफिया, गुंडों और अपराधियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई, पलायन रोकने में सफलता और कट्टरपंथियों पर सख्ती वोटरों को अपनी ओर खींचने में सफल रहेगी.
दूसरी ओर सपा रालोद गठबंधन ने सत्ताधारी दल के सामने सबसे कठिन चुनौती पेश की है. राष्ट्रीय लोक दल को जाटों का काफी समर्थन मिलता रहा है और सपा की मुस्लिम मतदाताओं में अच्छी पैठ है. यह जुगलबंदी भाजपा को कड़ी टक्कर देने के लिए सबसे मुफीद साबित हुई है.
प्रियंका गांधी कि काफी मेहनत के बावजूद निचले स्तर पर संगठन न होने का खामियाजा कांग्रेस पार्टी को उठाना पड़ रहा है. बसपा भी बहुत विशेष स्थित में दिखाई नहीं दे रही है. कारण साफ है. पिछले 5 सालों में जनता के मुद्दों पर इस पार्टी का कोई संघर्ष सरकार के खिलाफ नहीं दिखा.
सोशल मीडिया और प्रेस कॉन्फ्रेंस तक ही बसपा की मुहिम सीमित रही. सिर्फ चुनाव के समय की राजनीति मतदाता समझने लगे हैं. ऐसे में कांग्रेस और बसपा के लिए इस चुनाव में बढ़त की स्थित दिखाई नहीं दे रही है.
बीजेपी को लगता है कि दूसरे-तीसरे चरण से पार्टी मजबूत होने लगेगी, क्योंकि आगे के चरणों वाली सीटों पर किसान आंदोलन का असर कम होता जाएगा. अयोध्या, मथुरा और काशी में किए गए विकास कार्यों और हिंदुत्व के मुद्दे के सहारे भाजपा आगे अपनी बढ़त दिख रही है. अब देखना होगा कि समाजवादी पार्टी गठबंधन भाजपा की इस रणनीति से कैसे पार पाता है.