वाराणसी : काशी के डोम राजा परिवार से ताल्लुक रखने वाले महेश चौधरी (55) परिवार का पेट पालने के लिए भीषण ठंड में गंगा में उतरते हैं. वह श्मशान की राख से सोना-चांदी तलाशते हैं. इससे वह अपना परिवार पालने की भरसक कोशिश करते हैं. रोजाना वह सुबह घाट पर पहुंच जाते हैं. इसके बाद चिंताओं की राख के ठंडी होने का इंतजार करते हैं. फिर राख, उसमें मिली लकड़ी और मानव शरीर की अस्थियों के टुकड़ों को एक तसला (कटोरे की शक्ल का बड़ा व गहरा पात्र) में रखकर गंगा में चले जाते हैं. इसके बाद इसे छानते हैं.
कड़ाके की ठंड के बावजूद उनकी यही दिनचर्या रहती है. यह कहानी केवल महेश की ही नहीं बल्कि बनारस के हर उस डोम राजा परिवार की है. मोबाइल, लैपटॉप और टैबलेट के साथ डिजिटल युग में जलती चिताओं के ठंडा होने का इंतजार करने के साथ ही उसमें छुपे हुए सोने-चांदी की चीजों को ढूंढने की विवशता कहीं न कहीं एडवांस और हाईटेक सोसाइटी की एक बड़ी सच्चाई को उजागर करती है. वहीं डोम राजा के परिवार के लोग शवों का अंतिम संस्कार भी कराते हैं. मान्यता है कि इनके जरिए शवों को मोक्ष मिलता है.
बाबा विश्वनाथ के अलावा बनारस में दो और राजा : दुनिया में इकलौता जीवंत शहर बनारस भगवान भोलेनाथ के द्वारा बसाए गए शहर के रूप में जाना जाता है. इस शहर में परंपराएं तो बहुत सी हैं, लेकिन एक परंपरा है राजा होने की. वैसे तो काशी में बाबा विश्वनाथ ही नरेश हैं, लेकिन इनके अलावा दो राजा और हैं. जिनमें एक है काशी नरेश और दूसरे डोम राजा. काशी में डोम मोक्षदाता के रूप में जाने जाते हैं और आज भी उनके परिवार से जुड़े लगभग 10 से 12000 लोग अपनी इस पुरानी ऐतिहासिक परंपरा का निर्वहन कर रहे हैं. इसके लिए इन्हें जाना जाता है लेकिन बदलते सामाजिक परिवेश और तमाम बदलावों के बाद भी आज भी उनके सामने राख से ही जीवन की तलाश करने का एक बड़ा उत्तरदायित्व है.
अंत के बाद नए जीवन की तलाश : जी हां, हम बात कर रहे हैं उस राख की जो इंसान के पंचतत्व में विलीन होने के बाद अंत में बच जाती है. मृत्यु उपरांत चिता की आग ठंडी होने के बाद जले हुए शरीर और लकड़ियों की बची हुई राख से अपने जीवन की तलाश करने वाला यह संप्रदाय आज भी वाराणसी में उस पुरानी परंपरा को जीवित रखे हुए हैं, जो आज से नहीं बल्कि महाराजा हरिश्चंद्र और भगवान भोलेनाथ के काशी आगमन के साथ से निभाई जा रही है. यूं कहें कि हजारों साल पुरानी इस परंपरा के तहत आज भी जले हुए शरीर की राख से सोने, चांदी, हीरे की तलाश कर अपने जीवन और परिवार का पेट पालने की जद्दोजहत करने वाला यह संप्रदाय लोगों को बदलते सामाजिक परिवेश में भी एक बड़ी सीख दे रहा है.
मणिकर्णिका घाट पर गिरा था माता पार्वती का कुंडल : डोम समाज की परंपरागत और ऐतिहासिक विरासत के बारे में वरिष्ठ पत्रकार उत्पल पाठक बताते हैं कि दरअसल वाराणसी में डोम समाज की परंपरा कालू डोम से मानी जाती है. ऐसी कहानी है कि कालू डोम भगवान शिव के उपासक के रूप में काशी में निवास करते थे और दाहसंस्कार के लिए श्मशान पर काम किया करते थे. उस वक्त भगवान भोलेनाथ और माता पार्वती ने जब काशी को अपने तरीके से स्थापित करना शुरू किया तब माता पार्वती के कानों का कुंडल काशी के मणिकर्णिका घाट पर गिर गया. इसके बाद वह कुंडल कालू डोम ने अपने पास रख लिया जिस पर भगवान शिव ने उन्हें नष्ट होने का श्राप दे दिया. हालांकि बाद में उन्होंने भगवान भोलेनाथ से माफी मांग कर उनका कुंडल उन्हें लौटा दिया. माता पार्वती के कहने पर भगवान शंकर ने उन्हें श्राप से मुक्त करने के लिए श्मशान के राजा के रूप में स्थापित कर दिया.
इसके अलावा दूसरी कहानी महाराजा हरिश्चंद्र के काल से जुड़ी है. उस वक्त वह अपना राजपाठ सब कुछ दान करने के बाद अपनी पत्नी और अपने बेटे के साथ खुद को हरिश्चंद्र घाट पर डोम समाज को बेच दिया था. बेटे की सांप काटने के निधन से बाद भी चंडाल का काम कर रहे महाराजा हरिश्चंद्र ने अपनी पत्नी से ही बेटे को जलाने के लिए कर भी वसूला था. डोम समाज की परंपरा का निर्वहन किया था.
चिता की राख को बनाया भरण-पोषण का जरिया : काशी में डोम समाज के सामने सबसे बड़ा संकट है. आज भी बदलते माहौल के साथ वह उस परंपरा को जीवित रखे हुए हैं. आज भी जब आप सुबह काशी के गंगा घाटों पर पहुंचेंगे तो ठंड गर्मी या बारिश के वक्त सुबह सूर्य उदय के साथ ही गंगा में कुछ लोग आपके हाथों में बड़े-बड़े लोहे के पात्र लेकर शमशान के किनारे जली हुई चिताओं की राख को पानी में छानते हुए नजर आएंगे. यह लोग कोई और नहीं बल्कि डोम राजा परिवार से जुड़े लोग हैं, जो आज भी अपने जीवन यापन के लिए जले हुए शरीर से निकली हुई राख के जरिए अपने जीवन यापन अपने परिवार का पेट पालने की जद्दोजेहद कर रहे हैं. सुनने में तो जरूर अजीब लग रहा होगा लेकिन यह शाश्वत सत्य है, आज भी काशी के मणिकर्णिका और हरिश्चंद्र घाट पर पानी में चिता की राख के जरिए जीवन की तलाश करने वाले सैकड़ों परिवार 21वीं सदी के एडवांस और बदल रहे भारत को एक आईना दिखाने का काम कर रहे हैं.
पीएम मोदी ने प्रस्तावक बनाकर बढ़ाया था मान : दरअसल पुरानी परंपरा के साथ कहीं ना कहीं से रोक टोक छुआछूत और समाज में एक अलग स्थान से देखे जाने वाले डोम परिवार के लोग आज भी अपने इस पुराने अंदाज में जीवन जीने का काम कर रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भले ही अपने चुनाव के दौरान जगदीश चौधरी को अपना प्रस्तावक बनाकर डोम समाज के लोगों के साथ हो रहे तमाम भेदभाव और छुआछूत से परे बदलाव का संकेत दिया, लेकिन आज भी डोम परिवार के लोग जीवन निर्वाह के लिए चिता की राख पर ही निर्भर हैं.
दिन की शुरुआत नई उम्मीद के साथ : कालू डोम परिवार से जुड़े महेश चौधरी गंगा में राख के जरिए सोना, चांदी और अन्य चीज तलाशने का काम करते हैं. उनकी कई पीढ़िया भी यही करती आईं हैं.उनका स्पष्ट रूप से कहना है कि हमारे पास कोई ऑप्शन ही नहीं है. पढ़े लिखे हैं, नौकरी मिली नहीं तो अपना परंपरागत और पुराना काम करना ही मजबूरी है. उन्होंने कहा कि सुबह 6 से 10 बजे तक हम गंगा में हर मौसम में खड़े होकर पानी के नीचे दबी हुई चिताओं की राख के जरिए उसमें जीवन की तलाश करते हैं. हर दिन इस उम्मीद के साथ कि आज कुछ ऐसा मिलेगा, जिससे हमारा जीवन बदल जाएगा, लेकिन इतने सालों से कुछ भी बड़ा हाथ नहीं लगा. हां कभी 200 तो कभी 500 और कभी-कभी 2 से 3000 रुपये के सामान हाथ लग जाते हैं.
यह पुरानी परंपरा है कि हिंदू धर्म में शरीर पर मौजूद कोई भी स्वर्ण या रजत आभूषण मृत्यु के बाद उतारे नहीं जाते. इस वजह से हम जलती चिताओं से आग बुझाने के बाद उसकी राख से इन चीजों की तलाश करते हैं और इसे बेचकर अपना और अपने परिवार का पेट पालते हैं. वहीं आज भी यदि किसी महिला की मौत पति की मृत्यु से पहले होती है तो उसे 16 श्रृंगार करके स्वर्ण, रजत आभूषण के साथ है अग्नि के हवाले किया जाता है. जिसके बाद अंतिम समय पर शरीर पर मौजूद इन चीजों का हक राख में मिलने के बाद सिर्फ और सिर्फ हमारा ही होता है.
कोई ऑप्शन न होने से नई पीढ़ी मायूस : नई पीढ़ी के देवराज चौधरी अपनी पुरानी परंपरा और पीढ़ियों से चली आ रही विरासत को सहेजने का काम कर रहे हैं. उनका कहना है कि मैं बहुत पढ़ाई नहीं की, इस वजह से यह काम करना अभी मेरी मजबूरी है. हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा. सबसे बड़ी बात यह है कि पौराणिक वक्त से चल रहा है यह काम आज भी युवा पीढ़ी करना चाह रही है. इस काम को करने की चाहत रखने वाले परिवार के ही 20 साल के युवा सूजल चौधरी का कहना है कि कौन नहीं चाहता कि वह अच्छा जीवन जिए. हम भी तो चाहते हैं हमें नौकरी मिले, अच्छा पैसा कमाए, इस वजह से तो मैं ग्रेजुएशन कर रहा हूं. कहीं न कहीं से हमारे साथ जुड़ी पुरानी परंपरा भी हमें परेशान करती है. पहले के समय में छुआछूत और तमाम चीजों की वजह से दिक्कत होती थी. अभी यह चीज कम हो गई हैं और लोग इस पर ध्यान नहीं देते. अगर नौकरी मिल तो ठीक नहीं तो हमारा यह काम तो है ही.
इस तरह काम करते हैं डोम समाज के लोग : चिताओं की राख को इनके परिवार बड़े-बड़े पतीले और बर्तनों में भरकर उसे सिर पर रखकर उन्हें गंगा किनारे पहुंचाते हैं. उसके बाद रख को पानी में डालकर बड़े-बड़े लोहे के पात्र से उसे पैरों से साफ किया जाता है. फिर बड़े कोयले, मांस के टुकड़े और अन्य चीजों को अलग कर दिया जाता है. इस काम को करने वाले पंचकोशी चौधरी का कहना है कि 15 से 20 मिनट तक राख को बार-बार पानी में धोकर अपनी आंखों से बारीकी के साथ देखते हैं. उसमें छोटे-छोटे सोनी या चांदी के कण मिलते हैं, हीरे और अन्य चीज के नग भी कई बार मिल जाते हैं. इनको हम अलग करने के बाद पानी में ही इन्हें सुरक्षित रख लेते हैं.
इसके बाद 2 से 3 घंटे के बाद बाहर निकालकर इन्हें बेचने के लिए निकल पड़ते हैं.बनारस की किसी भी सोने चांदी की दुकान पर वजन के हिसाब से बेचकर हमें पैसा मिल जाता है. जब यह पूछा गया कि रोज कितनी कमाई हो जाती है तो इस काम को करने वाले परिवार के लोगों का कहना था कोई निश्चित नहीं है. कभी 2000 भी मिलते हैं तो कभी 200 भी तो कभी-कभी मायूस भी होना पड़ता है.
चौधरी परिवार की महिलाएं भी अपने परिवार के पुरुषों की तरफ से किए जा रहे इस काम से अब संतुष्ट नहीं है. उनका कहना है कि परंपराएं ठीक हैं लेकिन हमारा कोई ध्यान देने वाला नहीं है. जब भी इलेक्शन आता है तो बनारस में हमारे परिवार के लोगों को सम्मान मिलता है, लेकिन उसके बाद कोई हमारी दिक्कतों के बारे में पूछने भी नहीं आता है. हम भी चाहते हैं हमारे बच्चे बड़े स्कूलों में पढ़े, अच्छी जगह नौकरी करें, लेकिन यह होगा कैसे?
काशी विद्यापीठ के समाजशास्त्र विभाग के पूर्व दिन रिटायर्ड प्रोफेसर रवि प्रकाश का कहना है कि यह परंपरा बहुत पुरानी है. डोम समाज इन परंपराओं को जीवित रखे हुए हैं. यह बड़ी बात है आज बदलते सामाजिक परिवेश में उनके इस काम को भले ही दूसरी नजरों से देखा जा रहा हो, लेकिन एक समाज का सत्य यह भी है कि अपनी विरासत को संभाल कर उसे संरक्षित करने का भी तो यह काम कर रहे हैं.
नोट-ईटीवी भारत को डोम समाज की परंपराओं से अवगत कराने वाले रवि प्रकाश का बातचीत के अगले ही दिन निधन हो गया था. खबर में इस्तेमाल उनकी बाइट उनकी मौत से एक दिन पहले की है.
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