लखनऊ : पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नेपाल,म्यांमार व बांग्लादेश के ड्रग माफिया के लिए उत्तर प्रदेश ड्रग डील का बड़ा सेंटर बन चुका है. ये सभी माफिया कॉल सेंटर की आड़ में डार्क वेब के जरिए अमेरिका समेत कई यूरोपीय देशों तक ड्रग पहुंचा रहे हैं. चौंकाने वाली बात यह है कि ड्रग्स की डील में क्रिप्टो करेंसी का इस्तेमाल हो रहा है, जिसे एजेंसियां ट्रेस नहीं कर पा रही है. हालांकि एसटीएफ व एएनटीएफ मिल कर डार्क वेब के इस जाल को तोड़ने के लिए अलग अलग ऑपरेशन कर रही है. जिसके चलते इस गैंग के कुछ छोटे गुर्गे गिरफ्तार भी हुए है, लेकिन इन्हें ऑपरेट करने वाले सरगना को पकड़ने में अब भी एजेंसियां लगी हुई हैं.
बीते दिनों यूपी एसटीएफ ने लखनऊ से सलमान हाशमी व अल जैद समेत 13 लोगों को गिरफ्तार किया था. ये सभी डार्क वेब के जरिए नशीली दवाओं की सप्लाई करते थे. ये सभी पहले लखनऊ और उसके आसपास के जिलों से सस्ते दाम में प्रतिबंधित दवाओं, जिसमें यूके और अमेरिका में प्रतिबंधित दवाइयां (ट्रामेफ-पी, स्पास्मो प्रोक्सीवोन प्लस) शामिल हैं. इनकी खरीद करते थे फिर महंगे दाम में अमेरिका, इंग्लैंड समेत यूरोपीय देशों में कोरियर के जरिए बेच देते थे. इतना ही नहीं एंटी नारकोटिक्स टास्क फोर्स ने पांच ऐसे लोगों को गिरफ्तार किया था, जो सोशल मीडिया के जरिये ड्रग्स को खरीद बेच रहे थे. ये सभी मेफेड्रोन की डिमांड लखनऊ, मुंबई, एमपी व उत्तराखंड के बड़े शहरों में बेचते थे.
डार्क वेब को सेफ मानते है तस्कर : STF
आईपीएस अफसर अपर्णा रजत कौशिक के मुताबिक ड्रग्स तस्करी को रोकने के लिए लोकल पुलिस के अलावा एसटीएफ, एनसीबी, एएनटीएफ पहले से ही काम कर रही है. हालांकि बीते कुछ वर्षों में देखा गया है कि समुद्रों, हवाई व बॉर्डर के रूट पर सुरक्षा एजेंसियों की पैनी रहने पर इन ड्रग्स तस्करों ने टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल शुरू कर दिया है. इसके चलते वो एक ही जगह बैठ इंटरनेट पर डार्क वेब के जरिए तस्करी कर रहे है. यही हाल उत्तर प्रदेश का है, यहां लगभग सभी छोटे-बड़े ड्रग्स तस्करों ने डार्क वेब के जरिए ड्रग्स बेचने का काम शुरू कर दिया है और इनकी संख्या लगातार बढ़ रही है। आईपीएस अफसर ने बताया कि पुलिस या अन्य एजंसी इन तस्करों के पैसों के लेन देन को ट्रेस न कर ले इसके लिए उन्होंने डार्क वेब पर सभी खरीदारी क्रिप्टो करेंसी शुरू कर दी है।
इंटरनेट का 90% हिस्सा होता है डार्क वेब : साइबर एक्सपर्ट अमित दुबे ने बताया कि कम ही लोगों को मालूम है कि वो जो इंटरनेट का इस्तमाल करते हैं, वह महज 10 प्रतिशत हिस्सा ही हैं, जिसे सरफेस वेब कहते हैं. बाकी बचा हुआ 90 प्रतिशत हिस्सा ही डार्क वेब कहलाता है. डार्क वेब का इस्तेमाल करना इतना भी आसान नहीं है. इसके लिए एक विशेष ब्राउजर की जरूरत होती है. यह इतना खतरनाक होता है कि वीपीएन जैसे टूल्स के साथ लोकेशन बदलकर डार्क वेब पर किसी भी अति गोपनीय चीजों की खरीद फरोख्त की जा सकता है. इसी तरह डार्क वेब के जरिए इंटरनेशनल से लेकर भारत में ऑनलाइन ड्रग ढूंढने वालों की लिस्ट तैयार की जाती हैं और फिर संपर्क होने के बाद डील फाइनल होती है. डार्क वेब में डील का भुगतान क्रिप्टो करेंसी में ही होता है.
जड़ से नेक्सस करेंगे खत्म : ANTF
यूपी एंटी नारकोटिक्स टास्क फोर्स के डीआईजी अब्दुल हमीद ने बताया कि डार्क वेब एक ऐसी दुनिया है, जहां हर चीज बिकती है. खासकर अवैध चीजों की बिक्री के लिए अब डार्क वेब का ही इस्तेमाल हो रहा है. डार्क वेब के जरिए हथियार व ड्रग्स की बिक्री और टेरर फंडिंग जैसे गैरकानूनी काम होते हैं. डार्क वेब या सोशल मीडिया में माध्यम से ड्रग की खरीद फरोख्त करने वालों से निपटने के लिए एंटी नारकोटिक्स टास्क फोर्स व साइबर क्राइम संयुक्त रूप से काम कर रही है. हालांकि डार्क वेब में बेचने वाले और खरीदार को ढूंढना इतना आसान भी नहीं है, जो पकड़े जाते है वो लोकल मुखबिरी से ही ट्रेस हो रहे हैं. इन्हें डार्क वेब में जाकर ट्रेस करने के लिए हमारे पास साइबर टूल होना जरूरी है, इसे जल्द ही हम लोग खरीदेंगे.