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UP Politics : जानिए क्या दलित व पिछड़ों का मुद्दा उठाकर भाजपा को घेरने में कामयाब हो पाएगी सपा

समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ सपा नेता और पूर्व मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य की रामचरित मानस (UP Politics) को लेकर विवादित टिप्पणी के बाद सियासी गलियारे में उथल-पुथल शुरू हो गई है. सपा दलितों और महिलाओं के अपमान का मुद्दा उठाकर भाजपा को घेरना चाहती है. दलित और पिछड़ा वर्ग का झुकाव किस ओर होगा, पढ़ें यूपी के ब्यूरो चीफ आलोक त्रिपाठी का विश्लेषण...

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Published : Feb 10, 2023, 10:09 AM IST

Updated : Feb 10, 2023, 1:21 PM IST

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राजनीतिक विश्लेषक डॉ दिलीप अग्निहोत्री

लखनऊ : जातीय जनगणना की मांग और रामचरित मानस की चौपाई में कथित रूप से दलितों और महिलाओं के अपमान का मुद्दा उठाकर समाजवादी पार्टी भाजपा को घेरना चाहती है. 2022 के विधानसभा चुनावों में अन्य मुद्दों पर सफलता न मिलने पर पार्टी नए पैतरे आजमा रही है. सपा को लगता है कि भाजपा के 'हिंदुत्व' वाले वोट बैंक में सेंध लगाए बिना उसे पराजित कर पाना कठिन है. यही कारण है कि जातीय राजनीति का मुद्दा इन दिनों सुर्खियों में है.


रामचरितमानस की चौपाई में दलितों के अपमान और जातीय जनगणना का मुद्दा उठाने वाले वरिष्ठ सपा नेता और पूर्व मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य की छवि एक दलबदलू और अवसरवादी नेता की रही है. कभी वह बसपा में मायावती के करीबी हुआ करते थे और उनकी सरकार में रसूखदार मंत्री थे. बसपा की राजनीति बेपटरी होते देख स्वामी ने भाजपा का दामन थामा और पांच साल कैबिनेट मंत्री रहे. ऐन चुनाव के मौके पर वह सपा में शामिल हुए. शायद उन्हें लगता था कि प्रदेश में सपा की सरकार आ सकती है, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. 2022 के विधानसभा चुनावों में वह अपनी सीट भी नहीं बचा पाए. ऐसे में उनके द्वारा उठाए गए दलितों के अपमान के मुद्दे को यह वर्ग कितनी गंभीरता से लेगा, आसानी से समझा जा सकता है.



समाजवादी पार्टी में अन्य पिछड़ी जातियों को उतना नेतृत्व नहीं मिला है, जितना भाजपा में पिछड़ी जाति के सभी वर्गों को प्राप्त है. आलोचक सपा को यादवों की पार्टी भी कहते रहे हैं. ऐसे में अन्य पिछड़ी जातियों के मतदाता सपा को कितना पसंद करेंगे यह भी कहना कठिन है, जबकि भाजपा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद पिछड़ी जाति से आते हैं. यही नहीं भाजपा ने एक आदिवासी महिला को राष्ट्रपति बनाकर साफ संदेश दिया है कि वही दलितों और आदिवासियों की सच्ची हितैषी है. दलितों की बात करें तो सपा में कोई बड़ा स्थापित दलित चेहरा नहीं है, जिसके नाम पर लोग सपा के साथ आ सकें. दलितों का मुद्दा उठाने पर बसपा प्रमुख मायावती ने सपा को याद दिलाया कि किस प्रकार गेस्ट हाउस कांड में एक दलित की बेटी पर हमला हुआ था. इस बयान से साफ है कि बसपा भी नहीं चाहेगी कि दलित मतदाता का रुझान सपा की ओर हो, हालांकि पिछले चुनाव में यह देखने को मिला है कि दलित और पिछड़े मतदाताओं ने बड़ी संख्या में भारतीय जनता पार्टी के लिए वोट किया है. यही कारण है कि भाजपा दोबारा प्रदेश की सत्ता में आने में कामयाब हुई.




समाजवादी पार्टी में कोई बड़ा दलित चेहरा भी नहीं है, जो इस बड़े वोट बैंक को अपनी ओर आकर्षित कर सके. वैसे भी विगत लगभग एक दशक से मतदाताओं ने अपना वोटिंग पैटर्न बदला है. राज्य में 2007 में बसपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार आई, तो 2012 में सपा की स्पष्ट मत वाली सरकार, वहीं 2017 में मतदाताओं ने सपा और बसपा दोनों को नकार दिया, जिसके बाद भाजपा की सरकार अस्तित्व में आई. 2019 में भी केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी और प्रदेश से भाजपा को रिकॉर्ड सीटें मिलीं. ऐसे में मोदी और योगी की सरकारों ने कई ऐसी योजनाएं शुरू कीं, जिन्हें प्रदेश की राजनीति का रुख मोड़ने वाला माना जा रहा है. इन योजनाओं में किसान सम्मान निधि, हर घर स्वच्छ जल योजना, मुफ्त अनाज की योजना, आवास और अन्य योजनाएं शामिल हैं. इन योजनाओं के माध्यम से सरकार ने हर गरीब के घर में कुछ न कुछ लाभ जरूर पहुंचाया है. किसानों के खाते में किसान सम्मान निधि के रूप में नकदी भेजी है. स्वाभाविक है कि ऐसी योजनाओं का बड़ा असर होता है. अखिलेश यादव के पास इन योजनाओं की क्या काट होगी, वह कैसे मतदाताओं को अपने पक्ष में कर पाएंगे, यह एक बड़ा सवाल है. ‌पिछले चुनाव से यह देखा जा सकता है कि मतदाता सिर्फ बयानों की राजनीति में नहीं आने वाला. एक अन्य विषय भी है. लोकसभा चुनाव से पहले अयोध्या में राम मंदिर बनकर तैयार हो जाएगा. भाजपा चुनाव में इसका भरपूर लाभ लेगी. देखना होगा कि सपा भाजपा को यह लाभ लेने से कैसे रोक पाएगी.



इस संबंध में राजनीतिक विश्लेषक डॉ दिलीप अग्निहोत्री कहते हैं 'सत्ता पक्ष पर दबाब बनाना, उसका विरोध करना विपक्ष का अधिकार है, लेकिन पांच वर्ष तक पूर्ण बहुमत से सरकार चलाने वाली पार्टी जब विपक्ष में होती है, तब उसका एक दायरा बन जाता है. इस दायरे के बाहर जाकर सत्ता पक्ष को घेरने का दांव उल्टा पड़ता है. इस समय सपा की तरफ से रामचरित मानस और जातीय जनगणना का मुद्दा उठाया जा रहा है. इस आधार पर वह दलितों और पिछड़ों के समर्थन की योजना बना रही है, लेकिन सपा का अतीत उसकी सीमा निर्धारित करने वाला है. क्या दलित वर्ग इस पार्टी पर विश्वास करेगा? क्या वह उस दौर को भूल सकता है? इस मुद्दे को उठा भी कौन रहा है, जो बसपा और भाजपा के बाद आज नए मुकाम पर है. वह खुद विधानसभा चुनाव हार गए. उनकी पुत्री भाजपा की सांसद हैं. इसी प्रकार सपा सरकार में पिछड़ों के नाम पर किस प्रकार की स्थिति थी, यह जगजाहिर है. दलितों और पिछड़ों का बड़ा वर्ग पिछले कई वर्ष से भाजपा के साथ है. पिछले विधानसभा चुनाव में यह साबित भी हुआ. इस स्थिति में फिलहाल बदलाव नजर नहीं आ रहा है.'

यह भी पढ़ें : GIS2023: यूपी ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट आज से, पीएम मोदी करेंगे उद्घाटन

राजनीतिक विश्लेषक डॉ दिलीप अग्निहोत्री

लखनऊ : जातीय जनगणना की मांग और रामचरित मानस की चौपाई में कथित रूप से दलितों और महिलाओं के अपमान का मुद्दा उठाकर समाजवादी पार्टी भाजपा को घेरना चाहती है. 2022 के विधानसभा चुनावों में अन्य मुद्दों पर सफलता न मिलने पर पार्टी नए पैतरे आजमा रही है. सपा को लगता है कि भाजपा के 'हिंदुत्व' वाले वोट बैंक में सेंध लगाए बिना उसे पराजित कर पाना कठिन है. यही कारण है कि जातीय राजनीति का मुद्दा इन दिनों सुर्खियों में है.


रामचरितमानस की चौपाई में दलितों के अपमान और जातीय जनगणना का मुद्दा उठाने वाले वरिष्ठ सपा नेता और पूर्व मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य की छवि एक दलबदलू और अवसरवादी नेता की रही है. कभी वह बसपा में मायावती के करीबी हुआ करते थे और उनकी सरकार में रसूखदार मंत्री थे. बसपा की राजनीति बेपटरी होते देख स्वामी ने भाजपा का दामन थामा और पांच साल कैबिनेट मंत्री रहे. ऐन चुनाव के मौके पर वह सपा में शामिल हुए. शायद उन्हें लगता था कि प्रदेश में सपा की सरकार आ सकती है, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. 2022 के विधानसभा चुनावों में वह अपनी सीट भी नहीं बचा पाए. ऐसे में उनके द्वारा उठाए गए दलितों के अपमान के मुद्दे को यह वर्ग कितनी गंभीरता से लेगा, आसानी से समझा जा सकता है.



समाजवादी पार्टी में अन्य पिछड़ी जातियों को उतना नेतृत्व नहीं मिला है, जितना भाजपा में पिछड़ी जाति के सभी वर्गों को प्राप्त है. आलोचक सपा को यादवों की पार्टी भी कहते रहे हैं. ऐसे में अन्य पिछड़ी जातियों के मतदाता सपा को कितना पसंद करेंगे यह भी कहना कठिन है, जबकि भाजपा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद पिछड़ी जाति से आते हैं. यही नहीं भाजपा ने एक आदिवासी महिला को राष्ट्रपति बनाकर साफ संदेश दिया है कि वही दलितों और आदिवासियों की सच्ची हितैषी है. दलितों की बात करें तो सपा में कोई बड़ा स्थापित दलित चेहरा नहीं है, जिसके नाम पर लोग सपा के साथ आ सकें. दलितों का मुद्दा उठाने पर बसपा प्रमुख मायावती ने सपा को याद दिलाया कि किस प्रकार गेस्ट हाउस कांड में एक दलित की बेटी पर हमला हुआ था. इस बयान से साफ है कि बसपा भी नहीं चाहेगी कि दलित मतदाता का रुझान सपा की ओर हो, हालांकि पिछले चुनाव में यह देखने को मिला है कि दलित और पिछड़े मतदाताओं ने बड़ी संख्या में भारतीय जनता पार्टी के लिए वोट किया है. यही कारण है कि भाजपा दोबारा प्रदेश की सत्ता में आने में कामयाब हुई.




समाजवादी पार्टी में कोई बड़ा दलित चेहरा भी नहीं है, जो इस बड़े वोट बैंक को अपनी ओर आकर्षित कर सके. वैसे भी विगत लगभग एक दशक से मतदाताओं ने अपना वोटिंग पैटर्न बदला है. राज्य में 2007 में बसपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार आई, तो 2012 में सपा की स्पष्ट मत वाली सरकार, वहीं 2017 में मतदाताओं ने सपा और बसपा दोनों को नकार दिया, जिसके बाद भाजपा की सरकार अस्तित्व में आई. 2019 में भी केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी और प्रदेश से भाजपा को रिकॉर्ड सीटें मिलीं. ऐसे में मोदी और योगी की सरकारों ने कई ऐसी योजनाएं शुरू कीं, जिन्हें प्रदेश की राजनीति का रुख मोड़ने वाला माना जा रहा है. इन योजनाओं में किसान सम्मान निधि, हर घर स्वच्छ जल योजना, मुफ्त अनाज की योजना, आवास और अन्य योजनाएं शामिल हैं. इन योजनाओं के माध्यम से सरकार ने हर गरीब के घर में कुछ न कुछ लाभ जरूर पहुंचाया है. किसानों के खाते में किसान सम्मान निधि के रूप में नकदी भेजी है. स्वाभाविक है कि ऐसी योजनाओं का बड़ा असर होता है. अखिलेश यादव के पास इन योजनाओं की क्या काट होगी, वह कैसे मतदाताओं को अपने पक्ष में कर पाएंगे, यह एक बड़ा सवाल है. ‌पिछले चुनाव से यह देखा जा सकता है कि मतदाता सिर्फ बयानों की राजनीति में नहीं आने वाला. एक अन्य विषय भी है. लोकसभा चुनाव से पहले अयोध्या में राम मंदिर बनकर तैयार हो जाएगा. भाजपा चुनाव में इसका भरपूर लाभ लेगी. देखना होगा कि सपा भाजपा को यह लाभ लेने से कैसे रोक पाएगी.



इस संबंध में राजनीतिक विश्लेषक डॉ दिलीप अग्निहोत्री कहते हैं 'सत्ता पक्ष पर दबाब बनाना, उसका विरोध करना विपक्ष का अधिकार है, लेकिन पांच वर्ष तक पूर्ण बहुमत से सरकार चलाने वाली पार्टी जब विपक्ष में होती है, तब उसका एक दायरा बन जाता है. इस दायरे के बाहर जाकर सत्ता पक्ष को घेरने का दांव उल्टा पड़ता है. इस समय सपा की तरफ से रामचरित मानस और जातीय जनगणना का मुद्दा उठाया जा रहा है. इस आधार पर वह दलितों और पिछड़ों के समर्थन की योजना बना रही है, लेकिन सपा का अतीत उसकी सीमा निर्धारित करने वाला है. क्या दलित वर्ग इस पार्टी पर विश्वास करेगा? क्या वह उस दौर को भूल सकता है? इस मुद्दे को उठा भी कौन रहा है, जो बसपा और भाजपा के बाद आज नए मुकाम पर है. वह खुद विधानसभा चुनाव हार गए. उनकी पुत्री भाजपा की सांसद हैं. इसी प्रकार सपा सरकार में पिछड़ों के नाम पर किस प्रकार की स्थिति थी, यह जगजाहिर है. दलितों और पिछड़ों का बड़ा वर्ग पिछले कई वर्ष से भाजपा के साथ है. पिछले विधानसभा चुनाव में यह साबित भी हुआ. इस स्थिति में फिलहाल बदलाव नजर नहीं आ रहा है.'

यह भी पढ़ें : GIS2023: यूपी ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट आज से, पीएम मोदी करेंगे उद्घाटन

Last Updated : Feb 10, 2023, 1:21 PM IST
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