लखनऊ : यूपी सरकार की अलंकार योजना के नियमों को कारण माध्यमिक शिक्षा परिषद के सहायता प्राप्त विद्यालयों के प्रबंधकों के सामने एक बड़ी चुनौती पेश आ रही है. अनुदानित विद्यालयों के प्रबंधकों का कहना है कि माध्यमिक संस्कृत शिक्षा परिषद के विद्यालयों के तहत भी हमारे विद्यालयों का संचालन होता है. हमारे पास भी सरकार से कोई अनुदान नहीं मिलता और न ही हम विद्यालय में पढ़ रहे छात्रों से किसी तरह का शुल्क लेते हैं. ऐसे में माध्यमिक शिक्षा परिषद के अनुदानित कॉलेजों के सामने 25% राशि जमा करना चुनौतीपूर्ण है. बिना इस राशि को जमा किए सरकार अलंकार योजना के तहत शेष पैसे का भुगतान नहीं करेगा. वहीं माध्यमिक संस्कृत शिक्षा परिषद विद्यालयों को इस योजना के लिए केवल 5% ही बजट का इंतजाम करना है.
अशासकीय विद्यालयों को भी सरकार से मिले अनुदान
प्रदेश के अशासकीय सहायता प्राप्त विद्यालय प्रबंध समिति का कहना है कि उनके पास विद्यालयों के संचालन का कोई अधिकार नहीं होता है. उनके विद्यालयों में छात्रों से प्रतिमा 10 से ₹15 की फीस ली जाती है. छात्र निधि का जो पैसा विद्यालयों में होता है वह विद्यालय के हर साल होने वाले मेंटेनेंस व दूसरी चीजों पर खर्च हो जाते हैं. ऐसे में विद्यालयों के खातों में कोई भी अतिरिक्त पैसा नहीं है. अशासकीय सहायता प्राप्त विद्यालय प्रबंधक सभा उप्र के कार्यकारी अध्यक्ष अरविंद कुमार ने कहा कि अशासकीय विद्यालय को मिलने वाला अनुदान 75:25 के अनुपात को हटाकर संस्कृत विद्यालयों की तरह 95:5 किया जाए. माध्यमिक शिक्षा विभाग मिलने वाले अनुदान को सरकार अगर कोई बदलाव नहीं सकती तो प्रबंध समिति को नियुक्तियों से लेकर सभी जिम्मेदारियां वापस दी जाए. ताकि विद्यालयों के मौजूदा हालात बदले जा सके.
कई विद्यालयों में तो छात्र संख्या भी नहीं
अरविंद कुमार ने बताया कि अलंकार योजना के तहत विद्यालयों में 75 साल से पुराने होने के साथ ही 300 छात्रों की संख्या होना अनिवार्य है. अगर लखनऊ की ही बात की जाए तो यहां संचालित करीब 98 अशासकीय विद्यालय है. इनमें से दर्जनों विद्यालय ऐसे हैं. जहां पर छात्र संख्या 100 व 200 के आसपास है. ऐसे अलंकार योजना के तहत ऐसे विद्यालयों को अनुदान मिलना भी मुश्किल है. उन्होंने कहा कि इसके अलावा अशासकीय विद्यालयों में शिक्षकों के चयन के लिए जो प्रक्रिया है वह भी काफी तेजी से चल रही है. जिसके कारण विद्यालयों में शिक्षक नहीं हैं और इसका असर सीधे-सीधे छात्र संख्या पर पड़ रहा है. उन्होंने बताया कि चयन बोर्ड से रिक्त पदों को भरने में तीन से चार साल लग रहे हैं. एक साल से तो चयन बोर्ड का गठन तक नहीं हुआ है.
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