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परिवारवाद के साए में पल रही उत्तर प्रदेश की राजनीति

उत्तर प्रदेश में ज्यादातर राजनीतिक दल पर परिवारवाद के रोग से ग्रसित हैं. दो राष्ट्रीय पार्टियों में अलग तरह का परिवारवाद है. वहीं अन्य दलों में इस रोग का असर ज्यादा देखा जाता है. मौजूदा दौर में प्रदेश में पार्टियों में किस तरह के हालात हैं. पढ़ें यूपी के ब्यूरो चीफ आलोक त्रिपाठी का विश्लेषण...

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Published : Nov 5, 2022, 5:19 PM IST

Updated : Nov 5, 2022, 10:58 PM IST

लखनऊ : उत्तर प्रदेश में लगभग सभी राजनीतिक दल परिवारवाद के रोग से ग्रसित हैं. इन दलों के लिए पार्टी जेबी संस्था हो गई है. जनहित की राजनीति सिर्फ कहने के लिए है. असल में कोई कितना ही बड़ा नेता और कुशल रणनीतिकार भले क्यों न हो पार्टी का मुखिया पीढ़ी-दर-पीढ़ी परिवार से ही होगा. स्वाभाविक है कि यह जनहित तो नहीं है. जनहित तो यह है कि सबसे योग्य नेता को पार्टी के नेतृत्व का जिम्मा मिले और यह क्रम सतत चले. भाजपा और कांग्रेस में दूसरी तरह का परिवार वाद है, लेकिन क्षेत्रीय दलों सपा, लोक दल, अपना दल, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, निषाद पार्टी, प्रगतिशील समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी में यह रोग सबसे ज्यादा है.




फाइल फोटो
फाइल फोटो

चार अक्टूबर 1992 को समाजवादी पार्टी की स्थापना हुई. इसी दशक में सपा का उभार हुआ. पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव तीन बार प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे. समाजवादी पार्टी के उभार के साथ-साथ मुलायम सिंह यादव के कुनबे से नेताओं की आमद भी तेज हो गई. यदि इस परिवार से राजनीति में सक्रिय नेताओं की चर्चा की जाए तो फेहरिस्त काफी लंबी हो जाती है. मुलायम सिंह की पहली पत्नी मालती देवी के पुत्र पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और पुत्र वधू पूर्व सांसद डिंपल यादव राजनीति में सक्रिय हैं. अखिलेश वर्तमान में विधायक और नेता विरोधी दल हैं. मुलायम की दूसरी पत्नी डिंपल साधना गुप्ता के पुत्र प्रतीक यादव तो राजनीति में नहीं आए, किंतु इनकी पत्नी अपर्णा यादव राजनीति में सक्रिय रही हैं और इन्होंने 2017 में लखनऊ की कैंट विधानसभा सीट से चुनाव भी लड़ा. हालांकि उन्हें कामयाबी नहीं मिली. अखिलेश यादव द्वारा पार्टी की कमान संभालने के बाद अपर्णा यादव को सपा में खास तवज्जो नहीं मिली. इसलिए वह 2022 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले भाजपा में शामिल हो गईं. मुलायम सिंह यादव के छोटे भाई और पूर्व मंत्री शिवपाल सिंह यादव पार्टी के रणनीतिकारों में शामिल थे. हालांकि अखिलेश के उभार के बाद इन्हें अलग दल बनाना पड़ा. मुलायम सिंह के दूसरे भाई रतन सिंह के पुत्र रणवीर सिंह की पत्नी मृदुला और पौत्र तेज प्रताप सिंह भी राजनीति में सक्रिय हैं. मृदुला ब्लॉक प्रमुख तो तेज प्रताप सांसद रहे हैं. मुलायम के एक और भाई राजपाल की पत्नी और बेटे भी सक्रिय राजनीति में हैं. मुलायम के चचेरे भाई राम गोपाल यादव राज्यसभा सदस्य हैं. बेटा अक्षय भी सांसद रहा है. स्वाभाविक है कि यह इस कड़ी का अंतिम पड़ाव नहीं है. आगे भी इस परिवार से लोग राजनीति में देखने को मिल सकते हैं.

फाइल फोटो
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अपना दल इस समय उत्तर प्रदेश की राजनीति में अहम हो गया है. इस पार्टी की स्थापना डॉ सोनेलाल पटेल ने बलिहारी पटेल के साथ मिलकर चार नवंबर 1995 को की थी. इससे पहले सोनेलाल बसपा में थे, किंतु कांशीराम से मतभेदों के कारण उन्होंने अलग दल बनाया था. 17 अक्टूबर 2009 को एक हादसे में उनके निधन के बाद पार्टी पार्टी दो धड़ों में बंट गई. मुख्य पार्टी की कमान मिली सोनेलाल पटेल की मंझली बेटी अनुप्रिया पटेल को. वह पार्टी की अध्यक्ष हैं. अनुप्रिया ने 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा से गठबंधन किया और सांसद बनीं. नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो अनुप्रिया पटेल को केंद्र में मंत्री पद मिला. 2019 में भी उन्होंने लोकसभा का चुनाव जीता और फिर मंत्री बनीं. इनके पति आशीष पटेल विधान परिषद सदस्य और प्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं. अनुप्रिया की सबसे छोटी बहन अमन पटेल भी उन्हीं के साथ रहती हैं. दूसरे धड़े अपना दल कमेरावादी की कमान संभालती हैं सोनेलाल पटेल की पत्नी कृष्णा पटेल. सोनेलाल पटेल की बड़ी बेटी पल्लवी पटेल 2022 के विधान सभा चुनावों में कौशांबी की सिराथू सीट से जीतकर विधायक बनी हैं. इनके पति पंकज निरंजन का पार्टी में खासा प्रभाव माना जाता है. बताया जाता है कि असल में यही पार्टी के असल कर्ता-धर्ता हैं. पंकज निरंजन 2019 में फूलपुर से लोकसभा का चुनाव भी लड़ चुके हैं. केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल परिवारवाद के आरोपों से घबराती नहीं. वह कहती हैं कि यदि ऐसे परिवार से कोई राजनीति में कोई आगे आता है, जहां उसे बचपन से ही राजनीति के तौर तरीके सीखने को मिलते हैं, तो इसमें गलत ही क्या है.


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पश्चिमी उत्तर प्रदेश में खासे प्रभाव वाले राष्ट्रीय लोक दल के संस्थापक पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह थे. बाद में पार्टी की कमान संभाली उनके पुत्र चौधरी अजीत सिंह ने. अजीत सिंह अलग-अलग सरकारों में कई बार मंत्री रहे. हाल ही में उनके निधन के बाद पुत्र जयंत चौधरी ने पार्टी की कमान संभाल ली है. वह 2009 में मथुरा संसदीय सीट से जीतकर लोकसभा पहुंचे थे. हाल ही में सपा के समर्थन से राज्यसभा पहुंचे हैं. आगे भी पार्टी की कमान चौधरी परिवार से ही रहे तो कोई अचरज नहीं किया जाना चाहिए. यही हाल सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी का है. इस पार्टी का गठन 2002 में ओम प्रकाश राजभर ने किया था. लंबे संघर्ष के बाद 2017 में भाजपा से गठबंधन हुआ तो इस दल से चार विधायक चुनकर विधानसभा पहुंचे. योगी सरकार में ओपी राजभर को मंत्री बनाया गया. इसके बाद वह अपने बेटे अरविंद राजभर और अरुण राजभर को विधान परिषद भेजने के लिए भाजपा पर दबाव बनाने लगे. सफल न होने पर उन्होंने भाजपा से नाता तोड़ लिया. 2022 के विधानसभा चुनावों में उन्होंने सपा के साथ गठबंधन किया. विधान परिषद का चुनाव आने के बाद इन्होंने सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव पर दबाव बनाया, लेकिन कामयाबी नहीं मिली. अब वह इस गठबंधन से भी अलग हो चुके हैं. राजभर के दोनों बेटे राजनीति में सक्रिय हैं. उन्हें अब तक सफलता भले न मिल पाई हो, लेकिन निकट भविष्य में वह अपनी जगह बनाने में कामयाब हो ही जाएंगे.


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2013 में निषाद पार्टी का गठन करने वाले डॉ संजय निषाद ने 2017 का विधान सभा चुनाव पीस पार्टी के साथ मिलकर लड़ा. 72 सीटों पर प्रत्याशी उतारने वाली पीस पार्टी को सिर्फ ज्ञानपुर विधान सभा सीट पर सफलता हासिल हुई. इसके बाद वह भाजपा के नजदीक आ गए. 2022 में योगी सरकार में वह जीतकर आए और कैबिनेट मंत्री भी बने. इनके बेटे प्रवीण निषाद संतकबीरनगर से भाजपा के टिकट पर जीतकर सांसद पहुंचे हैं. वहीं इनके छोटे बेटे सरवन निषाद चौरीचौरा सीट से भाजपा विधायक हैं. इनके तीसरे पुत्र डॉ अमित निषाद परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. यह पार्टी भी परिवार की पार्टी बनकर उभरी है.


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अब बात करते हैं सपा से अलग होकर शिवपाल यादव द्वारा बनाई गई प्रगतिशील समाजवादी पार्टी की. सपा मुखिया अखिलेश यादव से मतभेद के शिवपाल यादव अपनी अलग पार्टी जरूर बना ली, लेकिन उसे अपेक्षित सफलता नहीं मिली. शिवपाल अपने पुत्र आदित्य यादव के भविष्य को लेकर चिंतित हैं. वह सपा या प्रसपा कहीं भी आदित्य का समायोजन चाहते हैं, जहां से चुनकर वह लोकसभा या विधान सभा पहुंच सकें. 2022 में परिवार में सुलह की कोशिश करते हुए शिवपाल ने सपा के टिकट पर मैनपुरी से विधानसभा का चुनाव लड़ा और जीतकर भी आए. हालांकि एक बार फिर चाचा-भतीजे में मतभेद उभर कर सामने आए. आदित्य अभी प्रसपा का ही कामकाज देख रहे हैं. माना जा रहा है कि आदित्य जल्द ही चुनावी मैदान में नजर आएंगे.


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बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने अपने भाई के पुत्र आनंद को एक तरह से अपना उत्तराधिकारी बनाकर पेश करना आरंभ कर दिया है. वह 2022 के विधानसभा चुनावों में खासे सक्रिय रहे. अब भी देश के विभिन्न राज्यों में वह बसपा का प्रतिनिधित्व करते रहते हैं.

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कांग्रेस पार्टी की कहानी अलग है. इस पार्टी में राष्ट्रीय स्तर पर तो परिवारवाद हमेशा चर्चा में रहता ही है. हाल के दिनों में केंद्र और राज्य में नया नेतृत्व जरूर मिल गया, लेकिन बैकडोर से पार्टी की कमान गांधी परिवार के पास ही मानी जा रही है. उत्तर प्रदेश में भी नेताओं की रिपोर्टिंग प्रियंका और राहुल गांधी को ही है. ऐसे में यहां भी एक तरह का परिवारवाद हावी जरूर है.



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भाजपा में पार्टी के पूर्व अध्यक्ष और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के पुत्र पंकज सिंह पार्टी के विधायक हैं. दूसरे पुत्र नीरज सिंह के भी राजनीति में सक्रिय होने की अटकलें लगाई जा रही हैं. कल्याण सिंह पुत्र राजवीर सिंह और संदीप सिंह भी राजनीति में सक्रिय हैं. संदीप प्रदेश सरकार में मंत्री भी हैं. केंद्रीय मंत्री कौशल किशोर मोहनलालगंज सीट से सांसद हैं, जबकि इनकी पत्नी जय देवी विधायक हैं. कौशल पुत्र भी जल्द ही राजनीति में पदार्पण करने वाले हैं. यही नहीं पार्टी में ऐसे तमाम नेता हैं, जिनके पुत्र, पत्नी या परिवार के अन्य सदस्य पार्टी में किसी न किसी पद पर कायम हैं. बावजूद इसके गृहमंत्री अमित शाह इसे परिवारवाद नहीं मानते. वह कहते हैं कि किसी के पुत्र या अन्य रिश्तेदार के पार्टी में होने से परिवारवाद नहीं माना जा सकता. सवाल नेतृत्व का है. यदि किसी पार्टी का नेतृत्व पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही परिवार के पास है तो उसे ही परिवारवाद माना जाना चाहिए. अमित शाह की बात से आप सहमत हों या असहमत, लेकिन प्रदेश में परिवारवाद की राजनीति थमती नहीं दिखाई देती.

यह भी पढ़ें : सड़क हादसों में मरते लोग और बेपरवाह तंत्र

लखनऊ : उत्तर प्रदेश में लगभग सभी राजनीतिक दल परिवारवाद के रोग से ग्रसित हैं. इन दलों के लिए पार्टी जेबी संस्था हो गई है. जनहित की राजनीति सिर्फ कहने के लिए है. असल में कोई कितना ही बड़ा नेता और कुशल रणनीतिकार भले क्यों न हो पार्टी का मुखिया पीढ़ी-दर-पीढ़ी परिवार से ही होगा. स्वाभाविक है कि यह जनहित तो नहीं है. जनहित तो यह है कि सबसे योग्य नेता को पार्टी के नेतृत्व का जिम्मा मिले और यह क्रम सतत चले. भाजपा और कांग्रेस में दूसरी तरह का परिवार वाद है, लेकिन क्षेत्रीय दलों सपा, लोक दल, अपना दल, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, निषाद पार्टी, प्रगतिशील समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी में यह रोग सबसे ज्यादा है.




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चार अक्टूबर 1992 को समाजवादी पार्टी की स्थापना हुई. इसी दशक में सपा का उभार हुआ. पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव तीन बार प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे. समाजवादी पार्टी के उभार के साथ-साथ मुलायम सिंह यादव के कुनबे से नेताओं की आमद भी तेज हो गई. यदि इस परिवार से राजनीति में सक्रिय नेताओं की चर्चा की जाए तो फेहरिस्त काफी लंबी हो जाती है. मुलायम सिंह की पहली पत्नी मालती देवी के पुत्र पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और पुत्र वधू पूर्व सांसद डिंपल यादव राजनीति में सक्रिय हैं. अखिलेश वर्तमान में विधायक और नेता विरोधी दल हैं. मुलायम की दूसरी पत्नी डिंपल साधना गुप्ता के पुत्र प्रतीक यादव तो राजनीति में नहीं आए, किंतु इनकी पत्नी अपर्णा यादव राजनीति में सक्रिय रही हैं और इन्होंने 2017 में लखनऊ की कैंट विधानसभा सीट से चुनाव भी लड़ा. हालांकि उन्हें कामयाबी नहीं मिली. अखिलेश यादव द्वारा पार्टी की कमान संभालने के बाद अपर्णा यादव को सपा में खास तवज्जो नहीं मिली. इसलिए वह 2022 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले भाजपा में शामिल हो गईं. मुलायम सिंह यादव के छोटे भाई और पूर्व मंत्री शिवपाल सिंह यादव पार्टी के रणनीतिकारों में शामिल थे. हालांकि अखिलेश के उभार के बाद इन्हें अलग दल बनाना पड़ा. मुलायम सिंह के दूसरे भाई रतन सिंह के पुत्र रणवीर सिंह की पत्नी मृदुला और पौत्र तेज प्रताप सिंह भी राजनीति में सक्रिय हैं. मृदुला ब्लॉक प्रमुख तो तेज प्रताप सांसद रहे हैं. मुलायम के एक और भाई राजपाल की पत्नी और बेटे भी सक्रिय राजनीति में हैं. मुलायम के चचेरे भाई राम गोपाल यादव राज्यसभा सदस्य हैं. बेटा अक्षय भी सांसद रहा है. स्वाभाविक है कि यह इस कड़ी का अंतिम पड़ाव नहीं है. आगे भी इस परिवार से लोग राजनीति में देखने को मिल सकते हैं.

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अपना दल इस समय उत्तर प्रदेश की राजनीति में अहम हो गया है. इस पार्टी की स्थापना डॉ सोनेलाल पटेल ने बलिहारी पटेल के साथ मिलकर चार नवंबर 1995 को की थी. इससे पहले सोनेलाल बसपा में थे, किंतु कांशीराम से मतभेदों के कारण उन्होंने अलग दल बनाया था. 17 अक्टूबर 2009 को एक हादसे में उनके निधन के बाद पार्टी पार्टी दो धड़ों में बंट गई. मुख्य पार्टी की कमान मिली सोनेलाल पटेल की मंझली बेटी अनुप्रिया पटेल को. वह पार्टी की अध्यक्ष हैं. अनुप्रिया ने 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा से गठबंधन किया और सांसद बनीं. नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो अनुप्रिया पटेल को केंद्र में मंत्री पद मिला. 2019 में भी उन्होंने लोकसभा का चुनाव जीता और फिर मंत्री बनीं. इनके पति आशीष पटेल विधान परिषद सदस्य और प्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं. अनुप्रिया की सबसे छोटी बहन अमन पटेल भी उन्हीं के साथ रहती हैं. दूसरे धड़े अपना दल कमेरावादी की कमान संभालती हैं सोनेलाल पटेल की पत्नी कृष्णा पटेल. सोनेलाल पटेल की बड़ी बेटी पल्लवी पटेल 2022 के विधान सभा चुनावों में कौशांबी की सिराथू सीट से जीतकर विधायक बनी हैं. इनके पति पंकज निरंजन का पार्टी में खासा प्रभाव माना जाता है. बताया जाता है कि असल में यही पार्टी के असल कर्ता-धर्ता हैं. पंकज निरंजन 2019 में फूलपुर से लोकसभा का चुनाव भी लड़ चुके हैं. केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल परिवारवाद के आरोपों से घबराती नहीं. वह कहती हैं कि यदि ऐसे परिवार से कोई राजनीति में कोई आगे आता है, जहां उसे बचपन से ही राजनीति के तौर तरीके सीखने को मिलते हैं, तो इसमें गलत ही क्या है.


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पश्चिमी उत्तर प्रदेश में खासे प्रभाव वाले राष्ट्रीय लोक दल के संस्थापक पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह थे. बाद में पार्टी की कमान संभाली उनके पुत्र चौधरी अजीत सिंह ने. अजीत सिंह अलग-अलग सरकारों में कई बार मंत्री रहे. हाल ही में उनके निधन के बाद पुत्र जयंत चौधरी ने पार्टी की कमान संभाल ली है. वह 2009 में मथुरा संसदीय सीट से जीतकर लोकसभा पहुंचे थे. हाल ही में सपा के समर्थन से राज्यसभा पहुंचे हैं. आगे भी पार्टी की कमान चौधरी परिवार से ही रहे तो कोई अचरज नहीं किया जाना चाहिए. यही हाल सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी का है. इस पार्टी का गठन 2002 में ओम प्रकाश राजभर ने किया था. लंबे संघर्ष के बाद 2017 में भाजपा से गठबंधन हुआ तो इस दल से चार विधायक चुनकर विधानसभा पहुंचे. योगी सरकार में ओपी राजभर को मंत्री बनाया गया. इसके बाद वह अपने बेटे अरविंद राजभर और अरुण राजभर को विधान परिषद भेजने के लिए भाजपा पर दबाव बनाने लगे. सफल न होने पर उन्होंने भाजपा से नाता तोड़ लिया. 2022 के विधानसभा चुनावों में उन्होंने सपा के साथ गठबंधन किया. विधान परिषद का चुनाव आने के बाद इन्होंने सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव पर दबाव बनाया, लेकिन कामयाबी नहीं मिली. अब वह इस गठबंधन से भी अलग हो चुके हैं. राजभर के दोनों बेटे राजनीति में सक्रिय हैं. उन्हें अब तक सफलता भले न मिल पाई हो, लेकिन निकट भविष्य में वह अपनी जगह बनाने में कामयाब हो ही जाएंगे.


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2013 में निषाद पार्टी का गठन करने वाले डॉ संजय निषाद ने 2017 का विधान सभा चुनाव पीस पार्टी के साथ मिलकर लड़ा. 72 सीटों पर प्रत्याशी उतारने वाली पीस पार्टी को सिर्फ ज्ञानपुर विधान सभा सीट पर सफलता हासिल हुई. इसके बाद वह भाजपा के नजदीक आ गए. 2022 में योगी सरकार में वह जीतकर आए और कैबिनेट मंत्री भी बने. इनके बेटे प्रवीण निषाद संतकबीरनगर से भाजपा के टिकट पर जीतकर सांसद पहुंचे हैं. वहीं इनके छोटे बेटे सरवन निषाद चौरीचौरा सीट से भाजपा विधायक हैं. इनके तीसरे पुत्र डॉ अमित निषाद परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. यह पार्टी भी परिवार की पार्टी बनकर उभरी है.


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अब बात करते हैं सपा से अलग होकर शिवपाल यादव द्वारा बनाई गई प्रगतिशील समाजवादी पार्टी की. सपा मुखिया अखिलेश यादव से मतभेद के शिवपाल यादव अपनी अलग पार्टी जरूर बना ली, लेकिन उसे अपेक्षित सफलता नहीं मिली. शिवपाल अपने पुत्र आदित्य यादव के भविष्य को लेकर चिंतित हैं. वह सपा या प्रसपा कहीं भी आदित्य का समायोजन चाहते हैं, जहां से चुनकर वह लोकसभा या विधान सभा पहुंच सकें. 2022 में परिवार में सुलह की कोशिश करते हुए शिवपाल ने सपा के टिकट पर मैनपुरी से विधानसभा का चुनाव लड़ा और जीतकर भी आए. हालांकि एक बार फिर चाचा-भतीजे में मतभेद उभर कर सामने आए. आदित्य अभी प्रसपा का ही कामकाज देख रहे हैं. माना जा रहा है कि आदित्य जल्द ही चुनावी मैदान में नजर आएंगे.


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बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने अपने भाई के पुत्र आनंद को एक तरह से अपना उत्तराधिकारी बनाकर पेश करना आरंभ कर दिया है. वह 2022 के विधानसभा चुनावों में खासे सक्रिय रहे. अब भी देश के विभिन्न राज्यों में वह बसपा का प्रतिनिधित्व करते रहते हैं.

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कांग्रेस पार्टी की कहानी अलग है. इस पार्टी में राष्ट्रीय स्तर पर तो परिवारवाद हमेशा चर्चा में रहता ही है. हाल के दिनों में केंद्र और राज्य में नया नेतृत्व जरूर मिल गया, लेकिन बैकडोर से पार्टी की कमान गांधी परिवार के पास ही मानी जा रही है. उत्तर प्रदेश में भी नेताओं की रिपोर्टिंग प्रियंका और राहुल गांधी को ही है. ऐसे में यहां भी एक तरह का परिवारवाद हावी जरूर है.



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भाजपा में पार्टी के पूर्व अध्यक्ष और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के पुत्र पंकज सिंह पार्टी के विधायक हैं. दूसरे पुत्र नीरज सिंह के भी राजनीति में सक्रिय होने की अटकलें लगाई जा रही हैं. कल्याण सिंह पुत्र राजवीर सिंह और संदीप सिंह भी राजनीति में सक्रिय हैं. संदीप प्रदेश सरकार में मंत्री भी हैं. केंद्रीय मंत्री कौशल किशोर मोहनलालगंज सीट से सांसद हैं, जबकि इनकी पत्नी जय देवी विधायक हैं. कौशल पुत्र भी जल्द ही राजनीति में पदार्पण करने वाले हैं. यही नहीं पार्टी में ऐसे तमाम नेता हैं, जिनके पुत्र, पत्नी या परिवार के अन्य सदस्य पार्टी में किसी न किसी पद पर कायम हैं. बावजूद इसके गृहमंत्री अमित शाह इसे परिवारवाद नहीं मानते. वह कहते हैं कि किसी के पुत्र या अन्य रिश्तेदार के पार्टी में होने से परिवारवाद नहीं माना जा सकता. सवाल नेतृत्व का है. यदि किसी पार्टी का नेतृत्व पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही परिवार के पास है तो उसे ही परिवारवाद माना जाना चाहिए. अमित शाह की बात से आप सहमत हों या असहमत, लेकिन प्रदेश में परिवारवाद की राजनीति थमती नहीं दिखाई देती.

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Last Updated : Nov 5, 2022, 10:58 PM IST
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