लखनऊ : निकाय चुनाव में सभी बड़े राजनीतिक दलों के लिए कुछ चेहरे ऐसे हो गए हैं, जिनका विकल्प पार्टी को ढूंढे नहीं मिल रहा है. यही नेता बार-बार चुनाव लड़ते हैं और जीत कर भी आते हैं. होना तो यह चाहिए कि अच्छे नेताओं को आगे बढ़ाकर नई पीढ़ी के नेताओं को अवसर दिया जाए, लेकिन इन नेताओं के रसूख और पार्टी में पकड़ के बूते सारे समीकरण धरे के धरे रह जाते हैं. यही कारण है कि इन पार्टियों में कई 'बागी' उम्मीदवार तैयार हो जाते हैं. लोगों को उम्मीद थी इस चुनाव में शायद स्थितियां कुछ बदलें, लेकिन मामला ढाक के तीन पात वाला ही है.
सबसे पहले बात करते हैं सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की. इस दल में त्रिवेणी नगर वार्ड से देवव्रत शर्मा उर्फ मुन्ना मिश्रा दशकों से पार्षद के पद पर कायम हैं. यदि सीट बदलकर महिला होती है, तो उनकी पत्नी पार्षद बन जाती हैं. चुनाव दर चुनाव दशकों से यही सिलसिला चला आ रहा है. स्वाभाविक है जमीनी स्तर पर भारतीय जनता पार्टी के लिए काम कर रहे कार्यकर्ता क्षुब्ध जरूर होंगे. ऐसी ही एक कार्यकर्ता, जो भारतीय जनता पार्टी की महिला मोर्चा से जुड़ी हुई हैं, ने मुन्ना मिश्रा के खिलाफ चुनाव लड़ने का मन बनाया है. भाजपा की पुरानी कार्यकर्ता रही उमा मिश्रा कहती हैं कि 'मेरा यह चुनाव भाजपा के परिवारवाद के खिलाफ है. निष्ठा और ईमानदारी से कई वर्ष तक पार्टी की सेवा करने के बावजूद यदि सिर्फ एक परिवार की ही तुष्टिकरण की जाती है, तो यह गलत बात है. नए लोगों को अवसर कौन देगा.' उमा कहती हैं कि 'एक वह ही नहीं, उनके जैसे अनेक कार्यकर्ता हैं जिन पर पार्टी को ध्यान देना चाहिए.' यह एक ही नाम नहीं है भाजपा में नागेंद्र सिंह, राजेश गब्बर, अरविंद मिश्रा और रामकृष्ण यादव, जैसे कई पार्षद हैं जिनके आगे आम कार्यकर्ता की दाल नहीं गलती और साल दर साल संगठन को यही नेता पसंद आते हैं.
ऐसा नहीं कि यह रोग किसी एक दल तक ही सीमित हो. समाजवादी पार्टी में भी कई ऐसे चेहरे हैं, जो बार-बार टिकट पाने में कामयाब हो जाते हैं. इन चेहरों में यावर हुसैन, राजकुमार सिंह, कामरान बेग, शफीकुर्रहमान आदि के नाम प्रमुखता से शामिल हैं. इन नेताओं का भी समाजवादी पार्टी के पास कोई विकल्प नहीं है अथवा नए कार्यकर्ता पर पार्टी दांव ही नहीं लगाना चाहती. इसी तरह कांग्रेस पार्टी में भी कई चेहरे हैं, जिनके टिकट हर चुनाव में तय माने जाते हैं. कांग्रेस पार्टी में मुकेश सिंह चौहान, ममता चौधरी, शैलेन्द्र तिवारी बबलू, अमित चौधरी आदि पार्टी के नियमित प्रत्याशी हैं. कांग्रेस को इनकी जगह कोई विकल्प नहीं मिलता और यह नेता अपनी जगह किसी और को पनपने भी नहीं देते. स्वाभाविक है कि न तो ऐसे नेता आगे बढ़ना चाहते हैं और न ही नए नेताओं को अवसर देना चाहते हैं.
इस संबंध में राजनीतिक विश्लेषक और लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रोफेसर डॉक्टर संजय गुप्ता कहते हैं 'दरअसल कोई भी राजनीतिक दल जीतने वाले कैंडिडेट पर ही दांव लगाना चाहता है. अब जबकि अगले साल ही लोकसभा का चुनाव होने वाला है, ऐसे में कोई भी पार्टी रिस्क नहीं लेना चाहती. इसी वजह से अपनी सीट निकाल लेने वाले प्रत्याशियों पर ही ज्यादा फोकस किया है राजनीतिक दलों ने. इसमें कोई संदेह नहीं है कि नए कार्यकर्ताओं को अवसर न देना उन्हें मायूस करने जैसा है. पार्टियों को इस विषय में सोचना चाहिए. लंबे समय तक पार्टी से जुड़े बार-बार जीत कर आने वाले पार्षद अपने दल में भी अच्छी पैठ बना लेते हैं और इसी कारण उनके पैरोंकार भी हो जाते हैं. कम से कम भारतीय जनता पार्टी जो नियमों और एक परिपाटी की बात करती है, उसे तो इसका पालन करना चाहिए. हालांकि राजनीतिक दलों का अंतिम लक्ष्य जीत ही है और इसके लिए इनके सारे सिद्धांत मायने नहीं रखते. इन उदाहरणों से इसे देखा जा सकता है.'