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कुछ यूं बदला बहनजी का 'सियासी चरित्र' - UP latest political news

कभी ब्राह्मणों को लेकर सख्त बयानबाजी करने वाली बसपा सुप्रीमो मायावती का सच में हृदय परिवर्तन हो गया है या फिर उनका ब्राह्मणों के प्रति सॉफ्ट रूख पार्टी के घटते जनाधार को मजबूत करने का एक सियासी स्टंट मात्र है. खैर, जो भी हो पर यह देखना दिलचस्प होगा कि बहनजी के इस बदले सियासी चाल, चरित्र को यूपी की जनता आगामी विधानसभा चुनाव में कैसे लेती है.

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Published : Sep 20, 2021, 3:00 PM IST

लखनऊ: यूपी की सियासत (up assembly election-2022) में बसपा सुप्रीमो मायावती (mayawati) ऐसे तो कई वजहों से जानी जाती हैं, लेकिन उनकी सियासी जमीन के केंद्र में दलित और पिछड़ा वर्ग (Dalit and Backward Classes) के लोग ही रहे हैं. बावजूद इसके बाहुबलियों से बहनजी के सियासी रिश्ते हमेशा ही बेहतर रहे हैं. लेकिन अब सूबे में बदले सियासी परिदृश्य व पार्टी के घटते जनाधार को फिर से मजबूत करने को उन्होंने भी यू टर्न ले लिया है.

इसे भी पढ़ें - Assembly Election 2022: राकेश टिकैत बोले- तालिबान की तर्ज पर भाजपा बनाएगी सरकार

कभी ब्राह्मणों को लेकर सख्त बयानबाजी करने वाली बसपा सुप्रमी अब ब्राह्मणों के प्रति कितना सॉफ्ट हुई हैं, अगर इसे जानने हैं तो उनके नए स्लोगन को सुन आप उनकी आगामी सियासी भावनाओं को भलीभांति समझ जाएंगे. ये वही मायावती हैं, जो कभी 'तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार' के नारे से अपनी सियासी शुरुआत की थी.

ताकि किसी तरह से यूपी में बहुसंख्यक दलित और पिछड़ा वर्ग के वोटों को अपने पाले में कर सके. लेकिन आज के बदले सूरत-ए-हाल का असर उनके सियासी व्यवहार पर भी साफ देखने को मिल रहा है.

दरअसल, दलित मतदाताओं को आकर्षित करने को दिए गए इस नारे के कारण जब बसपा सुप्रीमो को सवर्णो को पार्टी से जोड़ने में दिक्कत आई तो उन्होंने इसे बदल दिया और उन्हें 2007 के विधानसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत हासिल हुआ. लेकिन 2012 के विधानसभा चुनाव में मायावती के इस सोशल इंजीनियरिंग की हवा निकल गई.

इधर, पार्टी से सतीश चंद्र मिश्रा के जुड़ते ही ब्राह्मण विरोध आहिस्ते-आहिस्ते खत्म होने लगा और फिर पुराने नारे में परिवर्तन कर नया नारा दिया गया. जिसमें कहा गया कि 'हाथी नहीं गणेश हैं, ब्रह्मा-विष्णु-महेश हैं'. 2007 में पूर्ण बहुमत से सूबे की सत्ता में आई बसपा को जनता से सीधे संवाद की कमी और 'ब्रह्मा-विष्णु-महेश' की उपेक्षा के कारण ही सत्ता से हाथ घोना पड़ा था.

लेकिन अब सूबे की पूर्व मुख्यमंत्री व बसपा सुप्रीमो मायावती (Former Chief Minister Mayawati) के सियासी व्यवहार में काफी हद तक तब्दीली आई है. खैर, इसे वक्त का तकाजा भी कह सकते हैं या फिर भाजपा (bjp) से मिल रही विपक्ष को कड़ी चुनौती का असर भी. वहीं, साल 2014 के बाद से ही लगातार बसपा के प्रदर्शन में गिरावट आने के साथ ही पार्टी का यूपी समेत अन्य कई राज्यों में जनाधार घटा है. इन्हीं सभी पक्षों को ध्यान में रखते हुए बसपा ने भी अपना चाल, चरित्र और चेहरा बदल लिया है.

इतना ही नहीं, हैरत तो इस बात की है कि अबकी बहनजी ने पूर्वांचल के माफिया डॉन व बसपा के बाहुबली विधायक मुख्तार अंसारी को टिकट देने से इनकार कर दिया है. वहीं, बहनजी ने यह भी साफ कर दिया है कि अबकी यूपी विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी किसी भी माफिया व बाहुबली को टिकट नहीं देगी.

खैर, अब मूर्तियों और माफियाओं से दूरी बनाकर बसपा खुद को सूबे में बतौर मजबूत विकल्प पेश करने में जुट गई है. इसके अलावे पार्टी की ओर से ब्राह्मण सम्मेलन का आयोजन भी कई संकेत दे रहे हैं. वहीं, सूबे के सियासी पंडितों की मानें तो बसपा के पास फिलहाल कोई विकल्प नहीं है.

ऐसे में बहनजी आगामी 2022 के विधानसभा चुनाव में पार्टी के प्रदर्शन को सुधारने और अधिक से अधिक सीटों पर जीत दर्ज करने को दलित, पिछड़ा वर्ग के साथ ही अब ब्राह्मणों को अपने पाले में करने को हरसभंव प्रयास कर रही हैं.

गौर हो कि मायावती ने साल 2007 के विधानसभा चुनाव में अपने पार्टी के प्रदर्शन से सबको चौंका दिया था और इस चुनाव में बसपा को कुल 403 में से 206 सीटों पर 30 फीसद से अधिक वोट हासिल हुए थे. वहीं, 2002 में बसपा को 98 सीटों पर जीत मिली थी और पार्टी का वोट शेयर 23 फीसद रहा था.

हालांकि, 2007 की सख्ती का असर 2012 में साफ देखने को मिला और इस चुनाव में बसपा 80 सीटों पर सिमटकर रह गई. इधर, 2017 में पार्टी का वोट शेयर गिरकर 22.2 फीसद रह गया और बामुश्किल 19 सीटों जीत मिली.

लखनऊ: यूपी की सियासत (up assembly election-2022) में बसपा सुप्रीमो मायावती (mayawati) ऐसे तो कई वजहों से जानी जाती हैं, लेकिन उनकी सियासी जमीन के केंद्र में दलित और पिछड़ा वर्ग (Dalit and Backward Classes) के लोग ही रहे हैं. बावजूद इसके बाहुबलियों से बहनजी के सियासी रिश्ते हमेशा ही बेहतर रहे हैं. लेकिन अब सूबे में बदले सियासी परिदृश्य व पार्टी के घटते जनाधार को फिर से मजबूत करने को उन्होंने भी यू टर्न ले लिया है.

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कभी ब्राह्मणों को लेकर सख्त बयानबाजी करने वाली बसपा सुप्रमी अब ब्राह्मणों के प्रति कितना सॉफ्ट हुई हैं, अगर इसे जानने हैं तो उनके नए स्लोगन को सुन आप उनकी आगामी सियासी भावनाओं को भलीभांति समझ जाएंगे. ये वही मायावती हैं, जो कभी 'तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार' के नारे से अपनी सियासी शुरुआत की थी.

ताकि किसी तरह से यूपी में बहुसंख्यक दलित और पिछड़ा वर्ग के वोटों को अपने पाले में कर सके. लेकिन आज के बदले सूरत-ए-हाल का असर उनके सियासी व्यवहार पर भी साफ देखने को मिल रहा है.

दरअसल, दलित मतदाताओं को आकर्षित करने को दिए गए इस नारे के कारण जब बसपा सुप्रीमो को सवर्णो को पार्टी से जोड़ने में दिक्कत आई तो उन्होंने इसे बदल दिया और उन्हें 2007 के विधानसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत हासिल हुआ. लेकिन 2012 के विधानसभा चुनाव में मायावती के इस सोशल इंजीनियरिंग की हवा निकल गई.

इधर, पार्टी से सतीश चंद्र मिश्रा के जुड़ते ही ब्राह्मण विरोध आहिस्ते-आहिस्ते खत्म होने लगा और फिर पुराने नारे में परिवर्तन कर नया नारा दिया गया. जिसमें कहा गया कि 'हाथी नहीं गणेश हैं, ब्रह्मा-विष्णु-महेश हैं'. 2007 में पूर्ण बहुमत से सूबे की सत्ता में आई बसपा को जनता से सीधे संवाद की कमी और 'ब्रह्मा-विष्णु-महेश' की उपेक्षा के कारण ही सत्ता से हाथ घोना पड़ा था.

लेकिन अब सूबे की पूर्व मुख्यमंत्री व बसपा सुप्रीमो मायावती (Former Chief Minister Mayawati) के सियासी व्यवहार में काफी हद तक तब्दीली आई है. खैर, इसे वक्त का तकाजा भी कह सकते हैं या फिर भाजपा (bjp) से मिल रही विपक्ष को कड़ी चुनौती का असर भी. वहीं, साल 2014 के बाद से ही लगातार बसपा के प्रदर्शन में गिरावट आने के साथ ही पार्टी का यूपी समेत अन्य कई राज्यों में जनाधार घटा है. इन्हीं सभी पक्षों को ध्यान में रखते हुए बसपा ने भी अपना चाल, चरित्र और चेहरा बदल लिया है.

इतना ही नहीं, हैरत तो इस बात की है कि अबकी बहनजी ने पूर्वांचल के माफिया डॉन व बसपा के बाहुबली विधायक मुख्तार अंसारी को टिकट देने से इनकार कर दिया है. वहीं, बहनजी ने यह भी साफ कर दिया है कि अबकी यूपी विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी किसी भी माफिया व बाहुबली को टिकट नहीं देगी.

खैर, अब मूर्तियों और माफियाओं से दूरी बनाकर बसपा खुद को सूबे में बतौर मजबूत विकल्प पेश करने में जुट गई है. इसके अलावे पार्टी की ओर से ब्राह्मण सम्मेलन का आयोजन भी कई संकेत दे रहे हैं. वहीं, सूबे के सियासी पंडितों की मानें तो बसपा के पास फिलहाल कोई विकल्प नहीं है.

ऐसे में बहनजी आगामी 2022 के विधानसभा चुनाव में पार्टी के प्रदर्शन को सुधारने और अधिक से अधिक सीटों पर जीत दर्ज करने को दलित, पिछड़ा वर्ग के साथ ही अब ब्राह्मणों को अपने पाले में करने को हरसभंव प्रयास कर रही हैं.

गौर हो कि मायावती ने साल 2007 के विधानसभा चुनाव में अपने पार्टी के प्रदर्शन से सबको चौंका दिया था और इस चुनाव में बसपा को कुल 403 में से 206 सीटों पर 30 फीसद से अधिक वोट हासिल हुए थे. वहीं, 2002 में बसपा को 98 सीटों पर जीत मिली थी और पार्टी का वोट शेयर 23 फीसद रहा था.

हालांकि, 2007 की सख्ती का असर 2012 में साफ देखने को मिला और इस चुनाव में बसपा 80 सीटों पर सिमटकर रह गई. इधर, 2017 में पार्टी का वोट शेयर गिरकर 22.2 फीसद रह गया और बामुश्किल 19 सीटों जीत मिली.

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