लखनऊ : उत्तर प्रदेश के हालिया विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को उसके सबसे बुरे दौर में पहुंचा दिया है. इस चुनाव में बसपा का न सिर्फ वोट प्रतिशत गिरा, बल्कि वह सबसे कमजोर पार्टी के रूप में सामने आई. बसपा से सिर्फ एक विधायक जीतकर विधानसभा पहुंचा है, जबकि कई नए दलों ने बसपा से अच्छा प्रदर्शन किया है. यही कारण है कि बसपा प्रमुख यह सोचने पर विवश हो गई हैं कि आखिर उनसे गलती कहां हुई? मायावती ने न सिर्फ गलतियों पर मंथन कर लिया है, बल्कि वह नतीजे पर पहुंच चुकी हैं और उन्होंने सुधार की दिशा में कदम भी उठाने शुरू कर दिए हैं.
दरअसल, 2007 के विधान सभा चुनावों में दलित-ब्राह्मण गठजोड़ ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक नया अध्याय जोड़ा था. इस प्रयोग से मायावती भारी बहुमत से अपनी सरकार बनाने में कामयाब हुई थीं. इसी चुनाव से वरिष्ठ अधिवक्ता सतीश मिश्रा बसपा में ब्राह्मण नेता के रूप में सामने आए थे. ब्राह्मण राजनीति के नाम पर उन्होंने बसपा में अपने कनिष्ठ सहयोगी नकुल दुबे को कैबिनेट मंत्री का पद दिलाया. 2012 में दलित-ब्राह्मण प्रयोग कारगर नहीं रहा और मायावती को सपा से पराजय का सामना करना पड़ा.
2017 में भी भाजपा ने सपा और बसपा को मात दी. लगातार दो चुनाव में हार के बाद मायावती ने उम्मीद नहीं छोड़ी थी, क्योंकि उनकी जीत भले ही न हुई हो, लेकिन उनका मत प्रतिशत ठीक-ठाक ही रहा. 2022 के चुनाव ने मायावती को सबसे बुरे दौर में पहुंचा दिया. उन्हें अंदाजा हो गया कि दलित-ब्राह्मण का प्रयोग फिलहाल साकार नहीं होने वाला. इसीलिए अब वह पार्टी के ब्राह्मण नेताओं से मुक्ति पाकर दलित-मुस्लिम-अन्य के गठबंधन को आजमाना चाहती है. यही कारण है कि मायावती ने पार्टी का ब्राह्मण चेहरा माने जाने वाले नकुल दुबे को बाहर का रास्ता दिखाया.
नकुल दुबे ने हाल ही में कांग्रेस पार्टी की सदस्यता ग्रहण की है. अब नंबर है बसपा के सबसे बड़े ब्राह्मण चेहरे सतीश मिश्रा से मुक्ति पाने का. हाल ही में बसपा ने रामपुर और आजमगढ़ में हो रहे लोकसभा उप चुनावों के स्टार प्रचारकों की सूची से सतीश मिश्रा का नाम गायब कर यह संदेश देने का काम किया है कि अब वह पार्टी में हाशिए पर हैं और उन्हें अपना नया ठिकाना तलाश कर लेना चाहिए. गौरतलब है कि इन्हीं सतीश मिश्रा के हाथों 2022 के विधानसभा चुनाव की पूरी कमान थी. आगामी चार जुलाई को उनकी राज्यसभा की सदस्यता भी खत्म हो रही है. कयास लगाए जा रहे हैं कि कल यानी रविवार को वह कांग्रेस में शामिल हो सकते हैं. नए समीकरणों से साफ है कि अब बसपा से ब्राह्मण राजनीति का दौर खत्म हो चुका है और नया प्रयोग शुरू होने को है. यही कारण है कि मायावती को सपा नेता आजम खान की हिमायत में बयान जारी करने पड़े.
राजनीतिक विश्लेषक मनीष हिंदवी कहते हैं कि 'उन्हें लगता है कि ब्राह्मण हमेशा से ट्रेडिशनल वोटर रहा है भाजपा का. 2007 के चुनाव में जो माहौल बनाया था सतीश चंद्र मिश्रा ने, बहुत हद तक वह हुआ भी. उसके बाद अगर देखें, जैसे-जैसे भाजपा का ग्राफ बढ़ता गया, ब्राह्मण अपनी ट्रेडिशनल पार्टी भाजपा की ओर बढ़ता गया. बसपा का अपना जो ट्रेडिशनल वोट है, वह भी खिसक गया है. 22 प्रतिशत उनके जो वोट थे वह अब 13 प्रतिशत पर पहुंच गए हैं. इसीलिए मायावती को लगता है कि वापस पुराने गठजोड़ बनाए जाएं. दलित के साथ मुसलमानों या अन्य गठजोड़ बनाकर अपने वोट बैंक को बढ़ाया जाए. यह पहली बार है जब मायावती का वोट प्रतिशत कम हुआ है. इसीलिए वह कहीं न कहीं ब्राह्मणों से किनारा करने के विषय में सोच रही हैं.'
वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक योगेश मिश्रा कहते हैं कि 'मायावती ने जब सतीश मिश्रा के साथ दलित-ब्राह्मण गठजोड़ बनाया था, तभी यह साफ हो गया था कि यह कॉमन नहीं है, असाधारण है और यह लंबे समय तक चल पाएगा, मुश्किल है. कांशीराम कहा करते थे तिलक, तराजू और तलवार... यह राजनीतिक दल रिएक्शन में बना था. यह बात और है कि भाजपा की गलतियों से मायावती को चार बार सरकार बनाने का मौका मिल गया. बसपा में सतीश मिश्रा का उपयोग यह था कि वह मायावती के सारे मुकदमे देखते थे. उन्होंने ब्राह्मणों को बसपा के साथ खड़ा करके यह साबित कर दिया कि एक ऐसा गठजोड़ बन सकता है, जो बिल्कुल विपरीत हो. आज की तारीख में मायावती धीरे-धीरे हाशिए पर जा रही हैं. बसपा को लेकर यह भी कयास लगाए जा रहे है कि सतीश मिश्रा बसपा के अगले सुप्रीमो हो जाएंगे. वह पार्टी पर कब्जा कर लेंगे. यह अफवाह ही सही, लेकिन इनका बसपा के वोटरों पर असर पड़ रहा है. ऐसे में मायावती के सामने सिर्फ दो ही विकल्प हैं. वह या तो इसे स्थाई तौर पर कोई अमली जामा पहना दें या सतीश मिश्रा से छुट्टी पा लें. ऐसे में लगता है कि मायावती सतीश मिश्रा से छुट्टी चाहेंगी.'
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