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'लखनऊ का हस्ताक्षर', 'रूमी दरवाजा' का अद्भुत है इतिहास

नवाबों के शहर लखनऊ के कोने कोने में ऐतिहासिक विरासत की छाप देखने को मिल जाएगी. यूपी एक खोज में हम आपको लखनऊ की एक ऐसी भव्य इमारत के बारे में बताएंगे जो अपनी खूबसूरत अवधी स्थापत्य डिज़ाइन के लिए विख्यात है. रूमी दरवाज़ा (Rumi Darwaza) अवध के चौथे नवाब आसफ-उद-दौला ने क्यों बनवाया ये जानना भी कम दिलचस्प नहीं है.

यूपी एक खोज.
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Published : Apr 26, 2022, 6:58 AM IST

Updated : Apr 26, 2022, 2:34 PM IST

लखनऊ : उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ को कभी भगवान राम को अनुज लक्ष्मण की नगरी के नाम से जाना गया, तो कभी नवाबों के शासन के कारण इसे नवाबों की नगरी कहा गया. जो भी हो इस शहर ने ऐसी तमाम धरोहरें सहेज रखी हैं, जो आपको हैरानी में डाल सकती हैं. ऐसी ही एक इमारत है रूमी दरवाजा (Rumi Darwaza) या रूमी गेट. यह गेट कभी अवध के नवाबों की शान-ओ-शौकत दर्शाता था, तो आज इसे राजधानी की सिग्नेचर बिल्डिंग या हस्ताक्षर भवन के रूप में जाना जाता है. पुराने लखनऊ के हुसैनाबाद क्षेत्र में स्थित यह इमारत ढाई सौ साल से सीना ताने खड़ी है.



रूमी दरवाजा का निर्माण
अवध के नवाब आसफुद्दौला ने इस गेट का निर्माण 1784 में आरंभ कराया था और दो साल बाद यह 1786 में बनकर तैयार हो गया था.इस शानदार दरवाजे को बनाने में करीब 22,000 लोग दिन रात लगे थे. छोटा इमामबाड़ा और बड़ा इमामबाड़ा के बीच स्थित रूमी दरवाजा बेहतरीन नक्काशी और बनावट के कारण दुनिया में अपनी अलग पहचान रखता है. यह गेट अपनी बनावट और मजबूती के लिए भी जाना जाता है. तमाम दैवीय आपदाएं आईं पर ढाई सौ साल बाद भी यह जस का तस खड़ा है. इस दरवाज़े के निर्माण के पीछे की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है.1784 में अवध के इलाके में भीषण अकाल पड़ा.काम के बदले अनाज योजना चलाकर नवाब ने हज़ारों लोगों को रोज़गार दिया जिसमें कुलीन घराने के लोग भी थे. बड़ा इमामबाड़े की तरह ही रूमी दरवाजे का नक्शा भी उस वक्त के नामी इंजीनियर किफायती उल्ला खां ने ही बनाया था. रूमी दरवाजे के निर्माण में लखौड़ी वाली ईंटों, बादामी चूने, उड़द की दाल सहित कई अन्य सामग्रियों का उपयोग किया गया था. इस इमारत में भी लोहे और लकड़ी का कोई इस्तेमाल नहीं किया गया था.

लखनऊ का रूमी दरवाजा

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रूमी दरवाजे को तुर्की गेट भी कहते हैं
लखनऊ के प्रसिद्ध इतिहासकार योगेश प्रवीन ने अपनी किताब में लिखा है कि यह प्रसिद्ध शाही द्वार कांसटिनपोल के प्राचीन किले के द्वार की नकल करके बनाया गया था. उन्होंने लिखा है कि इसी कारण 19वीं सदी में इस गेट को कुस्तुनतुनिया या तुर्की गेट कहा जाता था. उन्होंने कुछ अंग्रेज इतिहासकारों के हवाले से लिखा है कि इस्तांबुल के सबलाइम पोर्ट का दरवाजा भी बिल्कुल इसी जैसा था. हालांकि अब वहां ऐसा कोई फाटक नहीं है. योगेश प्रवीन ने इतिहासकार पुरुषोत्तम नागेश ओक की पुस्तक 'लखनऊ के इमामबाड़े हिंदू राजमहल हैं' का हवाला देते हुए लिखा है कि इस गेट को पहले 'रामद्वार' कहा जाता था और इसी का अपभ्रंश रूमी दरवाजा है.

रूमी दरवाज़ा
रूमी दरवाज़ा

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रूमी दरवाज़े में हिंदू-मुस्लिम कला की छाप
60 फीट ऊंचे रूमी दरवाजे में चूने और ईंटों का इस्तेमाल किया गया है जो उस समय के लिहाज़ से काफी सस्ता था. रूमी दरवाज़े में इस्तेमाल सामग्री और स्टाइल ने अवधी या लखनवी स्थापत्य कला की नींव डाली. बड़ा इमामबाड़ा की तरह रूमी दरवाजा भी बिना लिन्टेल के बनाया गया है यानी इसमें बीम का इस्तेमाल नहीं किया गया है, बावजूद इसके रूमी दरवाजा की मजबूती ऐसी है कि करीब 250 साल हो गए लेकिन ये टस से मस नहीं हुआ.रूमी दरवाजे के ऊपरी हिस्से में छतरी बनी हुई है. साथ ही वहां पहुंचने के लिए जीने भी बने हुए हैं. इस दरवाजे के दोनों ओर तीन मंजिला हवादार इमारत बनी हुई है. इस दरवाजे की बनावट में हिंदू-मुस्लिम कला का मेल दिखाई देता है. पूरे गेट में कमल के फूलों की सजावट देखते ही बनती है. पुराने समय में रूमी दरवाजे के ऊपरी भाग पर लैंप रखे जाते थे, जो रात के अंधेरे में शहर को रोशन करते थे. अब इस गेट के ऊपरी हिस्से तक जाने वाले जीने आम पर्यटकों के लिए बंद कर दिए गए हैं. हालांकि मरम्मत और पुताई आदि के लिए जीनों का उपयोग किया जाता है. विशेषज्ञों का कहना है कि इस गेट से होकर हर रोज़ हजारों वाहन गुजरते हैं. इस कारण धमक आदि से इसके अस्तित्व को लेकर खतरा हो सकता है.

रूमी दरवाज़ा
रूमी दरवाज़ा

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लखनऊ : उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ को कभी भगवान राम को अनुज लक्ष्मण की नगरी के नाम से जाना गया, तो कभी नवाबों के शासन के कारण इसे नवाबों की नगरी कहा गया. जो भी हो इस शहर ने ऐसी तमाम धरोहरें सहेज रखी हैं, जो आपको हैरानी में डाल सकती हैं. ऐसी ही एक इमारत है रूमी दरवाजा (Rumi Darwaza) या रूमी गेट. यह गेट कभी अवध के नवाबों की शान-ओ-शौकत दर्शाता था, तो आज इसे राजधानी की सिग्नेचर बिल्डिंग या हस्ताक्षर भवन के रूप में जाना जाता है. पुराने लखनऊ के हुसैनाबाद क्षेत्र में स्थित यह इमारत ढाई सौ साल से सीना ताने खड़ी है.



रूमी दरवाजा का निर्माण
अवध के नवाब आसफुद्दौला ने इस गेट का निर्माण 1784 में आरंभ कराया था और दो साल बाद यह 1786 में बनकर तैयार हो गया था.इस शानदार दरवाजे को बनाने में करीब 22,000 लोग दिन रात लगे थे. छोटा इमामबाड़ा और बड़ा इमामबाड़ा के बीच स्थित रूमी दरवाजा बेहतरीन नक्काशी और बनावट के कारण दुनिया में अपनी अलग पहचान रखता है. यह गेट अपनी बनावट और मजबूती के लिए भी जाना जाता है. तमाम दैवीय आपदाएं आईं पर ढाई सौ साल बाद भी यह जस का तस खड़ा है. इस दरवाज़े के निर्माण के पीछे की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है.1784 में अवध के इलाके में भीषण अकाल पड़ा.काम के बदले अनाज योजना चलाकर नवाब ने हज़ारों लोगों को रोज़गार दिया जिसमें कुलीन घराने के लोग भी थे. बड़ा इमामबाड़े की तरह ही रूमी दरवाजे का नक्शा भी उस वक्त के नामी इंजीनियर किफायती उल्ला खां ने ही बनाया था. रूमी दरवाजे के निर्माण में लखौड़ी वाली ईंटों, बादामी चूने, उड़द की दाल सहित कई अन्य सामग्रियों का उपयोग किया गया था. इस इमारत में भी लोहे और लकड़ी का कोई इस्तेमाल नहीं किया गया था.

लखनऊ का रूमी दरवाजा

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रूमी दरवाजे को तुर्की गेट भी कहते हैं
लखनऊ के प्रसिद्ध इतिहासकार योगेश प्रवीन ने अपनी किताब में लिखा है कि यह प्रसिद्ध शाही द्वार कांसटिनपोल के प्राचीन किले के द्वार की नकल करके बनाया गया था. उन्होंने लिखा है कि इसी कारण 19वीं सदी में इस गेट को कुस्तुनतुनिया या तुर्की गेट कहा जाता था. उन्होंने कुछ अंग्रेज इतिहासकारों के हवाले से लिखा है कि इस्तांबुल के सबलाइम पोर्ट का दरवाजा भी बिल्कुल इसी जैसा था. हालांकि अब वहां ऐसा कोई फाटक नहीं है. योगेश प्रवीन ने इतिहासकार पुरुषोत्तम नागेश ओक की पुस्तक 'लखनऊ के इमामबाड़े हिंदू राजमहल हैं' का हवाला देते हुए लिखा है कि इस गेट को पहले 'रामद्वार' कहा जाता था और इसी का अपभ्रंश रूमी दरवाजा है.

रूमी दरवाज़ा
रूमी दरवाज़ा

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रूमी दरवाज़े में हिंदू-मुस्लिम कला की छाप
60 फीट ऊंचे रूमी दरवाजे में चूने और ईंटों का इस्तेमाल किया गया है जो उस समय के लिहाज़ से काफी सस्ता था. रूमी दरवाज़े में इस्तेमाल सामग्री और स्टाइल ने अवधी या लखनवी स्थापत्य कला की नींव डाली. बड़ा इमामबाड़ा की तरह रूमी दरवाजा भी बिना लिन्टेल के बनाया गया है यानी इसमें बीम का इस्तेमाल नहीं किया गया है, बावजूद इसके रूमी दरवाजा की मजबूती ऐसी है कि करीब 250 साल हो गए लेकिन ये टस से मस नहीं हुआ.रूमी दरवाजे के ऊपरी हिस्से में छतरी बनी हुई है. साथ ही वहां पहुंचने के लिए जीने भी बने हुए हैं. इस दरवाजे के दोनों ओर तीन मंजिला हवादार इमारत बनी हुई है. इस दरवाजे की बनावट में हिंदू-मुस्लिम कला का मेल दिखाई देता है. पूरे गेट में कमल के फूलों की सजावट देखते ही बनती है. पुराने समय में रूमी दरवाजे के ऊपरी भाग पर लैंप रखे जाते थे, जो रात के अंधेरे में शहर को रोशन करते थे. अब इस गेट के ऊपरी हिस्से तक जाने वाले जीने आम पर्यटकों के लिए बंद कर दिए गए हैं. हालांकि मरम्मत और पुताई आदि के लिए जीनों का उपयोग किया जाता है. विशेषज्ञों का कहना है कि इस गेट से होकर हर रोज़ हजारों वाहन गुजरते हैं. इस कारण धमक आदि से इसके अस्तित्व को लेकर खतरा हो सकता है.

रूमी दरवाज़ा
रूमी दरवाज़ा

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Last Updated : Apr 26, 2022, 2:34 PM IST
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