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यूपी एक खोज : सावधान! इस इमारत की 'दीवारों के कान' हैं, आप यहां भूल सकते हैं रास्ता!

हमारा देश बहुमूल्य विरासत का खज़ाना है. कला, संस्कृति से लेकर इमारत तक यहां सबकुछ हैरान कर देने वाला है. उत्तर प्रदेश शुरुआत से ही कला संस्कृति का केंद्र रहा.अवध प्रांत अपनी अनूठी परंपराओं और इमारतों के लिए देश विदेश में पहचान रखता है.बहुत सी ऐसी इमारते हैं जिनके बारे मे लोगों को जानकारी है लेकिन उसके पीछे की कहानी नहीं मालूम. ऐसी ही एक शानदार इमारत है बड़ा इमामबाड़ा (Bara Imambara).इसे भूल भुलैया भी कहा जाता है और आसिफी इमामबाड़ा(Asfi Imambara) भी कहा जाताहै. अवध के नवाब आसफ-उद-दौला (Asaf-ud-Daula, Nawab of Awadh) ने इसका निर्माण कराया, लेकिन क्यों कराया ये जानना वाकई दिलचस्प है.

यूपी एक खोज.
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Published : Apr 23, 2022, 6:04 AM IST

Updated : Apr 23, 2022, 9:50 AM IST

लखनऊ : देश में अनेक ऐसी धरोहरें हैं, जो हमें गर्व का अनुभव कराती हैं. जिनकी निर्माण शैली लोगों में कौतूहल भर देती है. लोग आश्चर्य में डूब जाते हैं कि आज से सदियों पहले आधुनिक उपकरणों के अभाव के बावजूद बेजोड़ निर्माण भला हो कैसे पाते थे. ऐसी ही एक धरोहर राजधानी लखनऊ में है, जिसे लोग बड़ा इमामबाड़ा, आसिफी इमामबाड़ा या भूलभुलैया के नाम से जानते हैं. इस इमारत की 'दीवारों के भी कान' हैं. इमारत में तमाम ऐसी खूबियां, जिन पर आप एकबारगी विश्वास नहीं कर पाएंगे. आइए हम आपको बताते हैं इस अजूबा इमारत के निर्माण के पीछे की दास्तान और इसकी खूबियों के विषय में.



अवध के नवाब आसफुद्दौला के विषय में एक कहावत है, 'जाको न दे मौला, ताको दे आसफुद्दौला'. नवाब आसफुद्दौला अपने कला प्रेम के अलावा लोगों की मदद करने के लिए मशहूर थे. सन 1784 में जब भीषण अकाल पड़ा तो आसफुद्दौला ने लोगों को रोजगार देने के लिए बड़े इमामबाड़े का निर्माण कराया. इस नायाब इमारत के निर्माण में हजारों मज़दूर रोज़ काम करते थे. कुलीन वर्ग के लोग जिन्हें दिन में काम करने में शर्म महसूस होती थी, उन्हें रात में काम दिया जाता था, ताकि उनकी लाज भी बची रहे और वह पैसे कमाकर अपना और अपने परिवारों का भरण-पोषण भी करते रहें. नवाब आसफुद्दौला की नेक नीयती देखिए, रात में हुआ निर्माण अक्सर मानक के मुताबिक नहीं हो पाता था, बावजूद इसके रात में काम बंद नहीं किया गया. इसलिए उसे दिन में तोड़कर दोबारा बनाया जाता था. इस इमारत के निर्माण में छह साल का समय लगा.

यूपी एक खोज.

बिना लड़की लोहे के बनी ये नायाब इमारत
नवाब आसफुद्दौला ने जब इस इमामबाड़े के निर्माण का इरादा किया तो उन्होंने उस समय के इंजीनियरों से इमारत के लिए डिजाइन मांगे. जो नक्शे नवाब के सामने पेश किए गए इनमें सबसे महंगा और नायाब नक्शा था किफायती उल्ला शाहजहानाबादी का. आसफुद्दौला ने किफायतउल्ला शाहजहानाबादी का नक्शा पसंद किया और उन्हें ही इमारत के निर्माण की जिम्मेदारी सौंपी. यह इमारत इंडो सरसेनिक शैली में बनाई गई है. इसमें ईरानी निर्माण शैली का अनूठा उदाहरण भी देखने को मिलता है. सबसे खास बात यह है कि इस इमारत में कहीं भी धातु और लकड़ी का इस्तेमाल नहीं है. इसीलिए इसे नवाबी काल में बनाई गई इमारतों में सबसे नायाब माना जाता है. इस इमामबाड़े में राजपूत और मुगल स्थापत्य का बेजोड़ संगम भी दिखाई देता है.

यहां बनी 'भूलभुलैया' दुनिया में और कहीं नहीं
इस इमामबाड़े में दुनिया का सबसे बड़ा ऐसा हॉल है, जिसमें किसी प्रकार के लोहे, लकड़ी और खम्भों का उपयोग नहीं किया गया है. इसी हॉल में आसफुद्दौली की मजार है. 163 फीट लंबे, 53 फीट चौड़े और 50 फीट ऊंचे इस हॉल की छत कमानदार डाटों से बनाई गई है. इसी के सहारे छत के पूरे भार को रोका गया है. इसी हॉल के ऊपर बनी है दुनिया की सबसे नायाब इमारत 'भूलभुलैया'. इस भूलभुलैया में 489 दरवाजे और 1000 गलियारे हैं, जो एक जैसे बने हुए हैं. इन दरवाजों की अनोखी डिजाइन देखते ही बनती है. यह दरवाजे ही पूरी छत के वजन को सहेजे हैं, साथ ही हवा और रोशनी भी देते हैं. भूलभुलैया की छत पर झरोखों और नालदार कमल के फूलों की एक लंबी श्रृंखला बेहद खूबसूरत दिखाई देती है. नवाब आसफुद्दौला चाहते थे कि यह इमारत दुनिया की अन्य इमारतों से अलग हो, इसीलिए इसके ऊपरी हिस्से में भूलभुलैया का निर्माण किया गया, जो दुनिया में अपनी तरह का अकेला निर्माण है.बिना गाइड के यहां जाना ठीक नहीं क्योंकि यहां रास्ता भूलने का डर रहता है.

शाही बाओली से होती थी जासूसी
इमामबाड़ा के पश्चिम में मुगल स्थापत्य कला की तर्ज पर मस्जिद का निर्माण किया गया है जबकि पूर्वी ओर पाच मंजिला स्टेपवेल बनाया गया है जो स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है. शाही बाओली से नवाब के अधिकारी आने जाने वाले आगंतुकों पर नज़र रखते थे. स्टेपवेल की अद्भुत कारीगरी का अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि प्रवेश द्वार पर खड़े आगंतुक की परछाईं कुएं के पानी में नज़र आ जाती थी.

इमामबाड़े की सजावट के लिए विदेश से मंगाए गए सामान
इमामबाड़े की सजावट के लिए विदेश से काफी सामान मंगाया गया था, जिसमें सबसे खास था उस समय एक लाख रुपये में बेल्जियम से खरीदा गया झाड़-फानूस. हालांकि जब तक यह आया नवाब आसफुद्दौला का 51 वर्ष की आयु में निधन (21 सितंबर 1797) हो चुका था. इसके अलावा भी तमाम बेशकीमती सामान विदेश से मंगाया गया था, जो धीरे-धीरे यहां से नदारद होते गए.

इसे भी पढ़ें-यूपी एक खोज: अंग्रेज चले गए लेकिन काशी में अब भी कायम है ब्रिटिश हुकूमत! आखिर क्या है सच्चाई?

सरकारों की उदासीनता से विश्व धरोहर की सूची में नहीं मिल सकी जगह
लखनऊ के जाने-माने इतिहासकार रवि भट्ट कहते हैं कि प्रदेश के पर्यटन विभाग ने कभी कोशिश नहीं की कि इसे दुनिया के सामने शोकेस करें और बताएं कि हमारी धरोहर विश्व स्तर की है और इसे विश्व विरासत की सूची में शामिल किया जाना चाहिए. वह कहते हैं कि सरकारें धरोहरों को लेकर कतई गंभीर नहीं हैं. न ही इनके संरक्षण पर पर्याप्त पैसा खर्च करती हैं.

इसे भी पढ़ें-यूपी एक खोज: रामपुर में 125 साल से रज़ा लाइब्रेरी को रौशन करने वाले बल्बों का राज़?

लखनऊ : देश में अनेक ऐसी धरोहरें हैं, जो हमें गर्व का अनुभव कराती हैं. जिनकी निर्माण शैली लोगों में कौतूहल भर देती है. लोग आश्चर्य में डूब जाते हैं कि आज से सदियों पहले आधुनिक उपकरणों के अभाव के बावजूद बेजोड़ निर्माण भला हो कैसे पाते थे. ऐसी ही एक धरोहर राजधानी लखनऊ में है, जिसे लोग बड़ा इमामबाड़ा, आसिफी इमामबाड़ा या भूलभुलैया के नाम से जानते हैं. इस इमारत की 'दीवारों के भी कान' हैं. इमारत में तमाम ऐसी खूबियां, जिन पर आप एकबारगी विश्वास नहीं कर पाएंगे. आइए हम आपको बताते हैं इस अजूबा इमारत के निर्माण के पीछे की दास्तान और इसकी खूबियों के विषय में.



अवध के नवाब आसफुद्दौला के विषय में एक कहावत है, 'जाको न दे मौला, ताको दे आसफुद्दौला'. नवाब आसफुद्दौला अपने कला प्रेम के अलावा लोगों की मदद करने के लिए मशहूर थे. सन 1784 में जब भीषण अकाल पड़ा तो आसफुद्दौला ने लोगों को रोजगार देने के लिए बड़े इमामबाड़े का निर्माण कराया. इस नायाब इमारत के निर्माण में हजारों मज़दूर रोज़ काम करते थे. कुलीन वर्ग के लोग जिन्हें दिन में काम करने में शर्म महसूस होती थी, उन्हें रात में काम दिया जाता था, ताकि उनकी लाज भी बची रहे और वह पैसे कमाकर अपना और अपने परिवारों का भरण-पोषण भी करते रहें. नवाब आसफुद्दौला की नेक नीयती देखिए, रात में हुआ निर्माण अक्सर मानक के मुताबिक नहीं हो पाता था, बावजूद इसके रात में काम बंद नहीं किया गया. इसलिए उसे दिन में तोड़कर दोबारा बनाया जाता था. इस इमारत के निर्माण में छह साल का समय लगा.

यूपी एक खोज.

बिना लड़की लोहे के बनी ये नायाब इमारत
नवाब आसफुद्दौला ने जब इस इमामबाड़े के निर्माण का इरादा किया तो उन्होंने उस समय के इंजीनियरों से इमारत के लिए डिजाइन मांगे. जो नक्शे नवाब के सामने पेश किए गए इनमें सबसे महंगा और नायाब नक्शा था किफायती उल्ला शाहजहानाबादी का. आसफुद्दौला ने किफायतउल्ला शाहजहानाबादी का नक्शा पसंद किया और उन्हें ही इमारत के निर्माण की जिम्मेदारी सौंपी. यह इमारत इंडो सरसेनिक शैली में बनाई गई है. इसमें ईरानी निर्माण शैली का अनूठा उदाहरण भी देखने को मिलता है. सबसे खास बात यह है कि इस इमारत में कहीं भी धातु और लकड़ी का इस्तेमाल नहीं है. इसीलिए इसे नवाबी काल में बनाई गई इमारतों में सबसे नायाब माना जाता है. इस इमामबाड़े में राजपूत और मुगल स्थापत्य का बेजोड़ संगम भी दिखाई देता है.

यहां बनी 'भूलभुलैया' दुनिया में और कहीं नहीं
इस इमामबाड़े में दुनिया का सबसे बड़ा ऐसा हॉल है, जिसमें किसी प्रकार के लोहे, लकड़ी और खम्भों का उपयोग नहीं किया गया है. इसी हॉल में आसफुद्दौली की मजार है. 163 फीट लंबे, 53 फीट चौड़े और 50 फीट ऊंचे इस हॉल की छत कमानदार डाटों से बनाई गई है. इसी के सहारे छत के पूरे भार को रोका गया है. इसी हॉल के ऊपर बनी है दुनिया की सबसे नायाब इमारत 'भूलभुलैया'. इस भूलभुलैया में 489 दरवाजे और 1000 गलियारे हैं, जो एक जैसे बने हुए हैं. इन दरवाजों की अनोखी डिजाइन देखते ही बनती है. यह दरवाजे ही पूरी छत के वजन को सहेजे हैं, साथ ही हवा और रोशनी भी देते हैं. भूलभुलैया की छत पर झरोखों और नालदार कमल के फूलों की एक लंबी श्रृंखला बेहद खूबसूरत दिखाई देती है. नवाब आसफुद्दौला चाहते थे कि यह इमारत दुनिया की अन्य इमारतों से अलग हो, इसीलिए इसके ऊपरी हिस्से में भूलभुलैया का निर्माण किया गया, जो दुनिया में अपनी तरह का अकेला निर्माण है.बिना गाइड के यहां जाना ठीक नहीं क्योंकि यहां रास्ता भूलने का डर रहता है.

शाही बाओली से होती थी जासूसी
इमामबाड़ा के पश्चिम में मुगल स्थापत्य कला की तर्ज पर मस्जिद का निर्माण किया गया है जबकि पूर्वी ओर पाच मंजिला स्टेपवेल बनाया गया है जो स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है. शाही बाओली से नवाब के अधिकारी आने जाने वाले आगंतुकों पर नज़र रखते थे. स्टेपवेल की अद्भुत कारीगरी का अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि प्रवेश द्वार पर खड़े आगंतुक की परछाईं कुएं के पानी में नज़र आ जाती थी.

इमामबाड़े की सजावट के लिए विदेश से मंगाए गए सामान
इमामबाड़े की सजावट के लिए विदेश से काफी सामान मंगाया गया था, जिसमें सबसे खास था उस समय एक लाख रुपये में बेल्जियम से खरीदा गया झाड़-फानूस. हालांकि जब तक यह आया नवाब आसफुद्दौला का 51 वर्ष की आयु में निधन (21 सितंबर 1797) हो चुका था. इसके अलावा भी तमाम बेशकीमती सामान विदेश से मंगाया गया था, जो धीरे-धीरे यहां से नदारद होते गए.

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सरकारों की उदासीनता से विश्व धरोहर की सूची में नहीं मिल सकी जगह
लखनऊ के जाने-माने इतिहासकार रवि भट्ट कहते हैं कि प्रदेश के पर्यटन विभाग ने कभी कोशिश नहीं की कि इसे दुनिया के सामने शोकेस करें और बताएं कि हमारी धरोहर विश्व स्तर की है और इसे विश्व विरासत की सूची में शामिल किया जाना चाहिए. वह कहते हैं कि सरकारें धरोहरों को लेकर कतई गंभीर नहीं हैं. न ही इनके संरक्षण पर पर्याप्त पैसा खर्च करती हैं.

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Last Updated : Apr 23, 2022, 9:50 AM IST
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