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संत रविदास, जिनसे सभी नेताओं की जगी आस

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Published : Feb 27, 2021, 7:57 PM IST

Updated : Feb 27, 2021, 8:17 PM IST

यूपी में विधानसभा चुनाव नजदीक है. सभी राजनीतिक दलों ने अपनी राजनीति के हथियारों को चमकाने की तैयारी शुरू कर दी है. इन हथियारों में सभी दलों का सबसे बड़ा हथियार है जाति समीकरण. जैसे-जैसे चुनाव पास आ रहे हैं, पार्टियों का जात पुराण शुरू हो गया है. पेश है यूपी के जाति समीकरण पर एक खास रिपोर्ट...

यूपी की जातीय राजनीति
यूपी की जातीय राजनीति

वाराणसी: 2022 नजदीक है और सत्ता में काबिज होने के लिए यूपी की बड़ी-बड़ी राजनीतिक पार्टियां इस साल का इंतजार करते हुए लगातार राजनीतिक समीकरण सेट करने में लगी हुई हैं. इन सबके बीच जातिगत आधार पर यूपी और पूर्वांचल की राजनीति को आगे बढ़ाने वाले राजनीतिक दल एक के बाद एक बहाना तलाश रहे हैं. जातीय समीकरण के आधार पर अपनी राजनीति चमकाने के लिए हर बार निशाने पर कोई न कोई महापुरुष ही आता है.

ये है महापुरुषों वाली राजनीति

महापुरुषों से चमकाते हैं राजनीति

हर राजनीतिक दल यह समझ चुका है कि हर जाति तक पहुंचने के लिए उनसे संबंधित महापुरुष के दर पर मत्था टेकना, उनके नाम के जयकारे लगाना बेहद महत्वपूर्ण है. यही वजह है कि बीते दिनों सुहेलदेव के नाम पर राजनीति करने वाले राजनीतिक दल अब उस महापुरुष का रुख कर रहे हैं, जिसने जातीय समीकरणों को तोड़ते हुए दलित समुदाय के लोगों को एकजुट करने का काम किया. वह महापुरुष है संत रविदास.

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धर्म की राजनीति

बनारस के हैं संत रविदास

संत रविदास बनारस के सीर गोवर्धन में पैदा हुए. सीर गोवर्धन में संत रविदास का भव्य मंदिर भी स्थापित है. 27 फरवरी को संत रविदास की 644वीं जयंती मनाई गई. इस जयंती समारोह के लिए इस बार दूर-दूर से 10 लाख से भी ज्यादा लोग बनारस पहुंचे हैं. लेकिन इन सबके बीच एक बार फिर से संत रविदास और सीर गोवर्धन की सियासत मजबूत तौर पर जमीन पर उभरने की तैयारी में है. इसके पीछे बड़ी वजह है 2022 का यूपी विधानसभा चुनाव. इसमें दलित वोट बैंक को साधने के लिए कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, भारतीय जनता पार्टी समेत हर दल अपनी पूरी ताकत झोंकने के लिए इस महान संत के दर पर मत्था टेकने की तैयारी में है.

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महापुरुषों की राजनीति
संत रविदास के दर पर पहुंचेंगे बड़े-बड़े नेता

संत रविदास की जयंती समारोह में इस बार कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी, समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव, भारतीय जनता पार्टी के कद्दावर नेता और केंद्र सरकार में पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान सहित उत्तर प्रदेश में दलित समीकरण को साधने के नाम पर कई राजनीति करने वाले नेता संत रविदास मंदिर में दर्शन कर रहे हैं. 27 फरवरी को इन सभी राजनेताओं का एक साथ यहां पहुंचना एक तरफ जहां बहुत से सवाल खड़े कर रहा है. वहीं, जातीय समीकरण के साथ दलित वोट बैंक को साधने के लिए इन नेताओं का 2022 का प्लान भी दिख रहा है.

मायावती ने की शुरुआत

2004 के बाद से संत रविदास की जन्म स्थली अचानक से चर्चा में आनी शुरू हुई. इसका श्रेय कहीं न कहीं बसपा प्रमुख और तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती को जाता है. संत रविदास जन्म स्थली पर निर्माण कार्य के साथ ही इसके कायाकल्प की प्लानिंग तैयार कर मायावती ही पहली राजनेता थी, जिन्होंने यहां आना शुरू किया. जयंती समारोह में मायावती का यहां पहुंचना यूपी के 20 प्रतिशत से ज्यादा दलित वोट बैंक के लिए काफी महत्वपूर्ण माना जाता था. यही वजह है कि लंबे वक्त तक यूपी में दलित वोट बैंक के बल पर मायावती ने बड़ी-बड़ी सत्ताधारी पार्टियों को नाकों चने चबवा दिए थे. अब समीकरण बदलने लगे हैं और दलित वोट बैंक के साथ ब्राह्मण और अन्य जातियों पर धार्मिक समीकरण के बढ़ते वर्चस्व ने इसे कमजोर कर दिया है. संत रविदास की इस जन्म स्थली से सिर्फ यूपी ही नहीं, बल्कि पंजाब, हरियाणा और दिल्ली के भी सियासी तार जुड़ने लगे हैं.

जुड़ गए पूरे देश के दलित

2009 के बाद संत रविदास धर्म को एक नए रूप में विकसित किए जाने के बाद देशभर से लाखों की संख्या में दलित समुदाय के लोग इस धर्म को अपनाने लगे. रविदासिया धर्म से जुड़ने वाले लोगों में सबसे बड़ी संख्या पंजाब, हरियाणा और दिल्ली के लोगों की थी. इसलिए हर दल इस स्थान के महत्व को बखूबी समझते हुए यहां पहुंचने लगा. इस नाम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, कांग्रेस नेता राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सहित कई अन्य नाम शामिल हैं. यही वजह है इस मंदिर का पॉलिटिकल कनेक्शन हमेशा काफी महत्वपूर्ण और मजबूत माना जाता है.


मायावती से लेकर योगी आदित्यनाथ तक ने खोले खजाने

दलित समुदाय के पूजनीय संत रविदास के दर्शन कर इनका प्रसाद ग्रहण करने के लिए बड़े-बड़े नेताओं का पहुंचना किसी श्रद्धाभाव को नहीं बल्कि, राजनीतिक महत्वाकांक्षा को बताता है. मायावती ने यूपी में अपने शासनकाल के दौरान मंदिर के कायाकल्प के लिए अपने खजाने को खोल दिया था. इसके बाद यहां स्वर्ण पालकी, स्वर्ण शिखर और मंदिर के विस्तार की रूपरेखा तैयार हुई. सत्ता बदलती गई और रविदास मंदिर का राजनीतिक महत्व भी बढ़ता गया. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने रविदास मंदिर में दर्शन-पूजन के बाद इसके विस्तार के लिए करोड़ों रुपये की सौगात दी. इसके तहत पर्यटन की दृष्टि से रविदास मंदिर के विस्तार का प्लान तैयार कर यहां काम शुरू भी हो चुका है. पीएम मोदी ने भी 2019 में इस मंदिर में दर्शन-पूजन के बाद यहां करोड़ों की सौगात दी. एक सत्संग हॉल बनाने की शुरुआत के साथ ही रविदास महाराज को जन-जन का आदर्श भी बताया गया.

हर दल इस वोट बैंक को अपनी तरफ खींचने में लगा

इन सब के पीछे विकास के साथ राजनीतिक महत्वाकांक्षा साफ तौर पर दिखाई देती रही है. अब जब एक बार फिर से 2022 का चुनावी बिगुल बजने की तैयारी में है, तो हर राजनीतिक दल संत रविदास के सहारे यूपी के 20 प्रतिशत से ज्यादा दलित वोट बैंक के साथ इसे अपनी ओर खींचने में लग गया है. जयंती के बहाने सियासी पारा भी चढ़ गया है. देखने वाली बात यह होगी कि इस दलित वोट बैंक को साधने के लिए यहां पहुंच रहे नेता कौन सा दांव खेलते हैं.

महापुरुष है हर दल के लिए सबसे मजबूत आधार

संत रविदास के नाम पर होने वाले इस सियासी खेल को हर कोई अपने अलग-अलग नजरिए से देखता है. इसे लेकर समाजवादी पार्टी जहां महापुरुषों के नाम पर राजनीति न की जाने की बात कर रही है. वहीं, सपा पार्टी पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का यहां पहुंचना उनका निजी मामला बता रही है. प्रियंका गांधी के यहां आने से पहले कांग्रेस नेता अन्य लोगों को महापुरुषों के नाम पर राजनीति न करके उनके आदर्श और उनकी बातों से सीख लेने की बात कह रहे थे.

जाति ने दिया राजनीति को अलग रंग

राजनीति के जानकार यह मानते हैं कि महापुरुषों के नाम पर जातीय समीकरण साधने की शुरुआत कांग्रेस पार्टी ने शुरू की. जातीय समीकरण के नाम पर अलग-अलग धार्मिक आयोजन करने का प्लान बनाकर कांग्रेस ने इसकी शुरुआत करते हुए राजनीति को एक नया रंग दिया. लेकिन इसे बीजेपी ने भरपूर तरीके से आगे बढ़ाया. मायावती ने दलित वोट बैंक को साधने की कोशिश की, तो ब्राह्मणों की नाराजगी झेल कर सत्ता से हटना पड़ गया. इसके बाद हर दल को यह समझ में आ गया कि जिस जाति और धर्म के महापुरुष होंगे, उनको पकड़ने के बाद संबंधित जाति का वोट हासिल किया जा सकता है. बस तब से लेकर अब तक लगातार जातीय समीकरण को साधने के लिए महापुरुष सबसे मजबूत साधन बनते जा रहे हैं. हर कोई उनके दर पर मत्था टेककर अपनी बिगड़ी को सुधारते हुए अगड़ी बेहतर करने में लगा रहता है. वहीं, संत रविदास के अनुयायी मानते हैं कि महाराज के दर पर आने वाला व्यक्ति इनसे हमेशा मांगता है और हम किसी से कुछ नहीं मांगते. बल्कि खास हो या आम हर किसी को महाराज इतना देते हैं कि उसका काम बन जाता है.

वाराणसी: 2022 नजदीक है और सत्ता में काबिज होने के लिए यूपी की बड़ी-बड़ी राजनीतिक पार्टियां इस साल का इंतजार करते हुए लगातार राजनीतिक समीकरण सेट करने में लगी हुई हैं. इन सबके बीच जातिगत आधार पर यूपी और पूर्वांचल की राजनीति को आगे बढ़ाने वाले राजनीतिक दल एक के बाद एक बहाना तलाश रहे हैं. जातीय समीकरण के आधार पर अपनी राजनीति चमकाने के लिए हर बार निशाने पर कोई न कोई महापुरुष ही आता है.

ये है महापुरुषों वाली राजनीति

महापुरुषों से चमकाते हैं राजनीति

हर राजनीतिक दल यह समझ चुका है कि हर जाति तक पहुंचने के लिए उनसे संबंधित महापुरुष के दर पर मत्था टेकना, उनके नाम के जयकारे लगाना बेहद महत्वपूर्ण है. यही वजह है कि बीते दिनों सुहेलदेव के नाम पर राजनीति करने वाले राजनीतिक दल अब उस महापुरुष का रुख कर रहे हैं, जिसने जातीय समीकरणों को तोड़ते हुए दलित समुदाय के लोगों को एकजुट करने का काम किया. वह महापुरुष है संत रविदास.

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धर्म की राजनीति

बनारस के हैं संत रविदास

संत रविदास बनारस के सीर गोवर्धन में पैदा हुए. सीर गोवर्धन में संत रविदास का भव्य मंदिर भी स्थापित है. 27 फरवरी को संत रविदास की 644वीं जयंती मनाई गई. इस जयंती समारोह के लिए इस बार दूर-दूर से 10 लाख से भी ज्यादा लोग बनारस पहुंचे हैं. लेकिन इन सबके बीच एक बार फिर से संत रविदास और सीर गोवर्धन की सियासत मजबूत तौर पर जमीन पर उभरने की तैयारी में है. इसके पीछे बड़ी वजह है 2022 का यूपी विधानसभा चुनाव. इसमें दलित वोट बैंक को साधने के लिए कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, भारतीय जनता पार्टी समेत हर दल अपनी पूरी ताकत झोंकने के लिए इस महान संत के दर पर मत्था टेकने की तैयारी में है.

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महापुरुषों की राजनीति
संत रविदास के दर पर पहुंचेंगे बड़े-बड़े नेता

संत रविदास की जयंती समारोह में इस बार कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी, समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव, भारतीय जनता पार्टी के कद्दावर नेता और केंद्र सरकार में पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान सहित उत्तर प्रदेश में दलित समीकरण को साधने के नाम पर कई राजनीति करने वाले नेता संत रविदास मंदिर में दर्शन कर रहे हैं. 27 फरवरी को इन सभी राजनेताओं का एक साथ यहां पहुंचना एक तरफ जहां बहुत से सवाल खड़े कर रहा है. वहीं, जातीय समीकरण के साथ दलित वोट बैंक को साधने के लिए इन नेताओं का 2022 का प्लान भी दिख रहा है.

मायावती ने की शुरुआत

2004 के बाद से संत रविदास की जन्म स्थली अचानक से चर्चा में आनी शुरू हुई. इसका श्रेय कहीं न कहीं बसपा प्रमुख और तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती को जाता है. संत रविदास जन्म स्थली पर निर्माण कार्य के साथ ही इसके कायाकल्प की प्लानिंग तैयार कर मायावती ही पहली राजनेता थी, जिन्होंने यहां आना शुरू किया. जयंती समारोह में मायावती का यहां पहुंचना यूपी के 20 प्रतिशत से ज्यादा दलित वोट बैंक के लिए काफी महत्वपूर्ण माना जाता था. यही वजह है कि लंबे वक्त तक यूपी में दलित वोट बैंक के बल पर मायावती ने बड़ी-बड़ी सत्ताधारी पार्टियों को नाकों चने चबवा दिए थे. अब समीकरण बदलने लगे हैं और दलित वोट बैंक के साथ ब्राह्मण और अन्य जातियों पर धार्मिक समीकरण के बढ़ते वर्चस्व ने इसे कमजोर कर दिया है. संत रविदास की इस जन्म स्थली से सिर्फ यूपी ही नहीं, बल्कि पंजाब, हरियाणा और दिल्ली के भी सियासी तार जुड़ने लगे हैं.

जुड़ गए पूरे देश के दलित

2009 के बाद संत रविदास धर्म को एक नए रूप में विकसित किए जाने के बाद देशभर से लाखों की संख्या में दलित समुदाय के लोग इस धर्म को अपनाने लगे. रविदासिया धर्म से जुड़ने वाले लोगों में सबसे बड़ी संख्या पंजाब, हरियाणा और दिल्ली के लोगों की थी. इसलिए हर दल इस स्थान के महत्व को बखूबी समझते हुए यहां पहुंचने लगा. इस नाम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, कांग्रेस नेता राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सहित कई अन्य नाम शामिल हैं. यही वजह है इस मंदिर का पॉलिटिकल कनेक्शन हमेशा काफी महत्वपूर्ण और मजबूत माना जाता है.


मायावती से लेकर योगी आदित्यनाथ तक ने खोले खजाने

दलित समुदाय के पूजनीय संत रविदास के दर्शन कर इनका प्रसाद ग्रहण करने के लिए बड़े-बड़े नेताओं का पहुंचना किसी श्रद्धाभाव को नहीं बल्कि, राजनीतिक महत्वाकांक्षा को बताता है. मायावती ने यूपी में अपने शासनकाल के दौरान मंदिर के कायाकल्प के लिए अपने खजाने को खोल दिया था. इसके बाद यहां स्वर्ण पालकी, स्वर्ण शिखर और मंदिर के विस्तार की रूपरेखा तैयार हुई. सत्ता बदलती गई और रविदास मंदिर का राजनीतिक महत्व भी बढ़ता गया. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने रविदास मंदिर में दर्शन-पूजन के बाद इसके विस्तार के लिए करोड़ों रुपये की सौगात दी. इसके तहत पर्यटन की दृष्टि से रविदास मंदिर के विस्तार का प्लान तैयार कर यहां काम शुरू भी हो चुका है. पीएम मोदी ने भी 2019 में इस मंदिर में दर्शन-पूजन के बाद यहां करोड़ों की सौगात दी. एक सत्संग हॉल बनाने की शुरुआत के साथ ही रविदास महाराज को जन-जन का आदर्श भी बताया गया.

हर दल इस वोट बैंक को अपनी तरफ खींचने में लगा

इन सब के पीछे विकास के साथ राजनीतिक महत्वाकांक्षा साफ तौर पर दिखाई देती रही है. अब जब एक बार फिर से 2022 का चुनावी बिगुल बजने की तैयारी में है, तो हर राजनीतिक दल संत रविदास के सहारे यूपी के 20 प्रतिशत से ज्यादा दलित वोट बैंक के साथ इसे अपनी ओर खींचने में लग गया है. जयंती के बहाने सियासी पारा भी चढ़ गया है. देखने वाली बात यह होगी कि इस दलित वोट बैंक को साधने के लिए यहां पहुंच रहे नेता कौन सा दांव खेलते हैं.

महापुरुष है हर दल के लिए सबसे मजबूत आधार

संत रविदास के नाम पर होने वाले इस सियासी खेल को हर कोई अपने अलग-अलग नजरिए से देखता है. इसे लेकर समाजवादी पार्टी जहां महापुरुषों के नाम पर राजनीति न की जाने की बात कर रही है. वहीं, सपा पार्टी पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का यहां पहुंचना उनका निजी मामला बता रही है. प्रियंका गांधी के यहां आने से पहले कांग्रेस नेता अन्य लोगों को महापुरुषों के नाम पर राजनीति न करके उनके आदर्श और उनकी बातों से सीख लेने की बात कह रहे थे.

जाति ने दिया राजनीति को अलग रंग

राजनीति के जानकार यह मानते हैं कि महापुरुषों के नाम पर जातीय समीकरण साधने की शुरुआत कांग्रेस पार्टी ने शुरू की. जातीय समीकरण के नाम पर अलग-अलग धार्मिक आयोजन करने का प्लान बनाकर कांग्रेस ने इसकी शुरुआत करते हुए राजनीति को एक नया रंग दिया. लेकिन इसे बीजेपी ने भरपूर तरीके से आगे बढ़ाया. मायावती ने दलित वोट बैंक को साधने की कोशिश की, तो ब्राह्मणों की नाराजगी झेल कर सत्ता से हटना पड़ गया. इसके बाद हर दल को यह समझ में आ गया कि जिस जाति और धर्म के महापुरुष होंगे, उनको पकड़ने के बाद संबंधित जाति का वोट हासिल किया जा सकता है. बस तब से लेकर अब तक लगातार जातीय समीकरण को साधने के लिए महापुरुष सबसे मजबूत साधन बनते जा रहे हैं. हर कोई उनके दर पर मत्था टेककर अपनी बिगड़ी को सुधारते हुए अगड़ी बेहतर करने में लगा रहता है. वहीं, संत रविदास के अनुयायी मानते हैं कि महाराज के दर पर आने वाला व्यक्ति इनसे हमेशा मांगता है और हम किसी से कुछ नहीं मांगते. बल्कि खास हो या आम हर किसी को महाराज इतना देते हैं कि उसका काम बन जाता है.

Last Updated : Feb 27, 2021, 8:17 PM IST
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