लखनऊ: पूर्वांचल यानी उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिलों में होली मनाए जाने का अंदाज सबसे अनूठा है. बसंत पंचमी के अवसर पर रेड़ का पेड़ लाकर होलिका स्थल पर गाड़ा जाता है और इसी दिन से होली महोत्सव का एलान हो जाता है. लोक गायक सुरेश कुशवाहा बताते हैं कि गांव में होली के गीत गाने का चलन पारंपरिक है. होलिका स्थल पर बसंत पंचमी के दिन गायन की शुरुआत होती है. इसके बाद गांव में लोग एक दूसरे के घरों में या चौपाल में हर रोज इकट्ठा होते हैं और फगुआ, धमार, उलारा और झूमर जैसे गीतों का गायन किया जाता है.
सुरेश कुशवाहा बताते हैं कि होली मनाने के तरीकों में हालांकि बहुत सारी चीजें बदल गई हैं, लेकिन आज भी अलग-अलग गांव में होली गायन के विविध रंग देखने को मिलते हैं. पूर्वांचल में होली गायन में लोकरंग भी खूब जमकर उड़ता है. खेत में होने वाले बदलाव के साथ ही सामाजिक रिश्तों का तानाबाना भी होली के गीतों में मुखर होकर गूंजता है.
होली गीतों को गाने का जो अंदाज है, उसने इसे खड़ी और बैठकी होली का नाम दे रखा है. जिन गीतों को खड़े होकर गाया जाता है उनके साथ नाचने और थिरकने का भी मौका मिलता है, इसलिए इन गीतों को खड़ी होली के गायन अंदाज का हिस्सा माना जाता है. अचरा पर बरसे गुलाल या फगुनवा में रंग रस-रस बरसे जैसे गीत खड़ी होली गायन के तहत गाए जाते हैं.
पूर्वांचल के घरों में भी होली का रंग जमकर बरसता है. लोक गायिका जया के अनुसार महिलाओं का इस त्योहार से बड़ा गहरा रिश्ता है. त्योहार का सारा रंग महिलाओं के कामकाज से दिखाई देता है. होली आने से पहले ही महिलाएं पापड़ बनाने से लेकर गुझिया बनाने तक सभी तरह के कामकाज में जुट जाती हैं. मेहमानों के स्वागत सत्कार की बड़ी भूमिका का निर्वाह महिलाएं करती हैं. होली के इस मौसम का असर भी लोगों पर दिखाई देता है. रंग और अबीर लगने के बाद स्नेह और आत्मीयता का रस बरस उठता है.
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