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पुण्यतिथि: हिंदी फिल्म सिनेमा के जाने माने संगीतकार नौशाद बचपन से थे संगीत के दीवाने

संगीतकार नौशाद हिन्दी फिल्म जगत के ऐसे जगमगाते सितारे हैं, जो अपने संगीत से आज भी लोगों के दिलों पर राज करते हैं. नौशाद अली की आज पुण्यतिथि है. नौशाद को बचपन से ही संगीत से बहुत लगाव था. इनको दादा साहब फाल्के पुरस्कार सहित कई सम्मान मिल चुके हैं. इनका जन्म लखनऊ के कांधारी बाजार इलाके में 26 दिसम्बर 1919 को हुआ था.

नौशाद पुण्यतिथि
नौशाद पुण्यतिथि
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Published : May 5, 2022, 12:24 PM IST

लखनऊ: हिंदी फिल्म सिनेमा जगत के जाने-माने संगीतकार नौशाद अली को शायद ही कोई शख्स ऐसा हो जो न जानता हो. फिल्मी जगत के इतिहास में नौशाद अली का नाम बहुचर्चित है. बहु प्रतिभा के धनी नौशाद अली का जन्म लखनऊ के कांधारी बाजार इलाके में 26 दिसम्बर, 1919 में हुआ था. कहा जाता है कि नौशाद अली का दोबारा जन्म संगीत निर्देशन के लिए हुआ. दरअसल ऐसा इसलिए कहा जाता है क्योंकि 3 वर्ष की आयु में नौशाद अली बीमार थे. अचानक उनकी सांसे थम गईं और घर में मातम छा गया. सभी को लगा कि अब नौशाद नहीं रहे. लेकिन अल्लाह का चमत्कार था कि बच्चे की उखड़ती हुई सांसे दोबारा चल पड़ीं.

भातखंडे संगीत संस्थान के संगीतकार डॉ. कमलेश दूबे बताते हैं कि नौशाद को बचपन से ही संगीत के प्रति गहरी रुचि थी. अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने बचपन की उस घटना का बड़ा रोचक वर्णन किया था, जब बाराबंकी के पास देवा शरीफ के उर्स में उन्होंने पेड़ के नीचे बैठे एक बाबा रशीद खां को ‘छूटे असीर वो बदला हुआ ज़माना था’ गाते सुना था. वे गाने व बांसुरी के सुरों से बहुत प्रभावित हुए थे. जब उनके वालिद अपने नए मकान घसियारी मंडी में परिवार को ले गए तो वहीं पास में एक साज की दुकान हुआ करती थी ‘एस. भोंपू एंड सन्स’.

पुण्यतिथि पर याद आए नौशाद

उन्होंने बताया कि जब भी नौशाद इस दुकान के पास से गुजरते तो ठिठककर घंटों साजों को निहारते रहते थे. एक बार दुकान मालिक गुरबत अली ने फटकार दिया कि क्या रोज-रोज का तमाशा लगा रखा है. नौशाद की विनती पर कि वे घंटे-दो घंटे दुकान में बैठने की इजाजत दे दें, बदले में वे कोई भी खिदमत कर देंगे. इस पर गुरबत अली मान गए. नौशाद बड़ी लगन से दुकान की सफाई करते, साजों को झाड़ते-पोंछते, उस्ताद गुरबत अली का हुक्का भी भर देते. इससे उस्ताद भी उनकी सेवा के कायल हो गए और वक्त निकालकर नौशाद साजों के तारों पर हाथ भी साफ करने लगे. घर लौटने में अक्सर देर होती थी और उनके पिता का गुस्सा भी जायज था, लेकिन नौशाद का संगीत-प्रेम तो एक फैलती लता की तरह मंजिलें तय कर रहा था. एक दिन गुरबत अली दुकान जरा जल्दी पहुंच गए तो देखा कि नौशाद एक साज के साथ खोए हुए हैं.

अब गुरबत अली को समझ में आया कि यह लड़का क्यों इस दुकान में नौकरी करने आया. पर मन ही मन वे रीझ भी गए और नौशाद को एक नया साज उपहार में देकर यह यकीन भी दिलाया कि उन्हें पूरी उम्मीद थी कि नौशाद आगे चलकर एक आला दर्जे के फनकार बनेंगे. किसी ने नौशाद की प्रतिभा की पहली बार खुले दिल से तारीफ की थी और एक दिन जब गुरबत अली ने चुपचाप लड्डन मियां को बुलाकर नौशाद का संगीत सुनाया तो लड्डन मियां भी कायल हो गए. उन्होंने नौशाद को अपने साथ रखकर सिखाने का भी ऐलान कर दिया.

उन्हीं दिनों ‘न्यू ड्रामा कम्पनी’ लखनऊ आई. कम्पनी को नौशाद ने गीत-संगीत के बारे में जो सुझाव दिए, वे इतने पसंद आए कि नौशाद को उस कम्पनी में ही भर्ती कर लिया गया. कम्पनी के साथ कुछ दिनों इधर-उधर गए भी, लेकिन जब कम्पनी ने दम तोड़ दिया तो नौशाद को घर लौटना पड़ा. वालिद का गुस्सा अपने शबाब पर था और उन्होंने फरमान जारी किया कि यदि घर में रहता है तो मिरासी बनने की तमन्ना छोड़नी होगी लेकिन नौशाद को तो शायद संगीत के लिए ही खुदा ने दूसरा जन्म दिया था. उन्होंने घर ही छोड़ दिया और बम्बई का रुख किया.

एक दोस्त अब्दुल मजीद 'आदिल' ने अपने एक परिचित अलीम 'नामी' के नाम चिट्ठी दे दी, लेकिन बम्बई पहुंचकर नामी साहब को ढूंढ़ने में ही कई दिन लग गए. नामी साहब की हालत भी ऐसी नहीं थी कि जल्दी कुछ कर सकते. फिर भी उन्होंने काफी वक्त बाद एक फिल्म कम्पनी का साजिंदों के लिए दिया इश्तहार देखकर नौशाद को वहां जाने की सलाह दी. इंटरव्यू के लिए बुलाया गया. ग्रांट रोड, खेतवाड़ी के एक ऑफिस में इंटरव्यू था और लेनेवाले थे मशहूर संगीतकार उस्ताद झंडे खां.

इंटरव्यू देने वालों की कतार में गुलाम मुहम्मद भी थे जो आगे चलकर नौशाद के वर्षों तक सहायक रहे. नौशाद इंटरव्यू और झंडे खां के नाम से काफी घबड़ाए हुए थे, लेकिन फिर भी जैसे-तैसे करके जो सूझा वह सुना दिया और नाउम्मीद से वापस आ गए. वहीं, उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा, जब उन्हें मालूम हुआ कि उन्हें चुन लिया गया है. साथ ही गुलाम मुहम्मद भी चुन लिए गए थे.

नौशाद को न्यू पिक्चर कम्पनी के लिए पियानोवादक के रूप में 40 रुपये महीने पर रखा गया और गुलाम मुहम्मद को साठ रुपये महीने पर. कम्पनी का स्टूडियो चेंबूर में था. अब नौशाद ने नामी साहब पर बोझ बने रहना उचित नहीं समझा और लखनऊ के ही एक अख्तर साहब के साथ दादर में रहने लगे. अख्तर साहब एक दुकान में सेल्समैन थे और उसी के अंदर रहा भी करते थे. रात को दुकान के भीतर बड़ी गर्मी लगती थी, इसलिए दोनों दोस्त बाहर फुटपाथ पर आ जाते थे और वहीं बिस्तर लगा लेते थे.

डॉ. कमलेश बताते हैं कि नौशाद ने जो पहला गीत कम्पोज किया, वह था 'बता दो मोहे कौन गली गए श्याम' जो उसी लीला चिटणीस ने गाया जिनको सीढ़ियों पर चप्पल खटखटाते हुए चढ़ जाना तो कभी लेटे हुए नौशाद देखा करते थे. लेकिन इस गाने की रिकॉर्डिंग में नौशाद को बड़ी तकलीफ हुई. कारण था साजिंदों का असहयोगात्मक व्यवहार. वे इस बात को सहन नहीं कर पा रहे थे कि कल तक जो लड़का उनके साथ बजाया करता था, वह उन्हें संगीत-निर्देशक बनकर निर्देशित करे. साजिंदों के इस व्यवहार के कारण नौशाद ने 'कंगन' (1939) में मात्र एक गीत कम्पोज करके इस्तीफा दे दिया और रंजीत को अलविदा कह दिया. वैसे यह एक गीत भी बहुत सुंदर था. अवधी-भोजपुरी और लोक-संगीत की छाप इस पहले गीत से ही स्पष्ट है. बिरहा जैसी इसकी धुन उस जमाने में पूर्वी उत्तर प्रदेश विशेषकर बनारस के कोठों पर गाए जाने वाले गीतों से भी खूब मेल खाती है.

फिल्म 'साथी' की सफलता के बावजूद जमाना अब नौशाद का नहीं रह गया था. फिल्म-संगीत के आठवें दशक के परिवर्तनों के बीच झूमते युवावर्ग के पास अब नौशाद की मेलोडी के उस पुराने रूप के लिए कोई जगह नहीं थी. 'टांगेवाला (1972) के 'कर भला होगा भला' (मुकेश) और पंजाबी गिद्दा की शैली वाले 'आई रे खिलौनेवाली आई (लता) जैसे गीत वक्त के सामने बासी थे. कला केंद्र फिल्म्स, मद्रास की राजेश खन्ना, मुमताज अभिनीत 'आईना' (1974) भी असफल रहीं और 'वो जो औरों की खातिर मर मिटे' (लता) और 'जाने क्या हो जाए जब दिल से दिल टकराए' (लता, रफी) की लोकप्रियता भी क्षणिक ही रही.

कई पुरस्कारों से सम्मानित

नौशाद के पास पुरस्कारों और सम्मानों का खजाना ही है. 'बैजू बावरा' के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार, 'गंगा जमुना' के लिए बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन पुरस्कार (1961), 'पालकी' के लिए सरस्वती पुरस्कार से लेकर महाराष्ट्र गौरव पुरस्कार, दादा साहब फाल्के पुरस्कार (1982), लता मंगेशकर पुरस्कार (1984), अमीर खुसरो एवार्ड (1987), पद्मभूषण (1992) और संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार (1993) जैसे बड़े सम्मानों से उन्हें नवाजा गया है. उनकी 25 फिल्मों ने सिलवर जुबली, 9 ने गोल्डेन जुबली और 3 फिल्मों ने प्लैटिनम जुबली मनाई.

2006 में हुआ इस फनकार का निधन

अपनी शायरी की किताब 'आठवां सुर' की रचनाओं को स्वयं कम्पोज कर उन्होंने हरिहरन और प्रीति उत्तम से भी गवाया है. अकबर खान ने अपनी फिल्म 'ताजमहल' में संगीत देने के लिए उन्हें अनुबंधित किया है. कुछ गैर-फिल्मी गीतों का सृजन भी नौशाद के हिस्से में आया है. रफी के स्वर में 'ऐ मेरे लाडलो', 'बीते दिनों की यादें', 'मुहब्बत खुदा है', मुकेश के स्वर में 'क्यूं फेरी नज़र' आदि पर ऐसे प्रयास नौशाद ने कम ही किए. नौशाद अली ने हिंदी सिनेमा जगत में लगभग छह दशकों तक अपना जादू बिखेरा. यह फनकार 5 मई 2006 को हमेशा के लिए इस दुनिया को अलविदा कह गया. नौशाद हिंदी फिल्म जगत को अपनी संगीत साधना से खुशनुमा कर गए. आज भी उनका नाम हिंदी सिनेमा जगत में बहुचर्चित है. सिनेमा के इतिहास में उनका नाम सुर्ख़ शब्दों में दर्ज है.

भातखंडे संगीत संस्थान के टीचर व संगीतकार अरूण भट्ट ने बताया कि एक बार बिरजू महाराज के साथ मुंबई गया था. वहीं, पर नौशाद अली जी भी आए थे. मेरी किस्मत है कि मुझे उनसे मिलने का सौभाग्य मिला. मैं उनसे मिला और उनसे आशीर्वाद भी लिया. एक pमाना था जब फिल्म 'दास्तान' के ट्रेलर में ऊंचे स्वरों में यह उद्घोषणा सुनाई देती थी- 'चालीस करोड़ में एक ही नौशाद'. किसी संगीतकार को इतनी प्रतिष्ठा फिल्म जगत में उस वक्त तक कभी नहीं मिली थी. नौशाद पहले संगीतकार थे जिन्होंने अपनी शख्सियत और अपने हुनर से संगीतकार का दर्जा भी नायक या निर्देशक के समकक्ष ला खड़ा किया.

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नौशाद ऐसे संगीतकार रहे हैं जिन्होंने फिल्मों में भी अपनी रचनााएं भारतीय संगीत-पद्धति के अंदर ही विकसित की. राग आधारित स्वरक्रम के साथ कभी तो विशुद्ध शास्त्रीय अंदाज की बंदिशें सृजित कीं तो कभी शास्त्रीय संगीत के आधार पर लोकगीत के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए बहुत ही सरस और मीठे गीत बनाए. शास्त्रीय संगीत का नौशाद जितना सुगम रूप कम ही संगीतकारों में दिखाई देता है. 50 साल से अधिक सक्रिय रहने वाले नौशाद ने अपने अंतिम दौर तक भी शास्त्रीय संगीत के इस आधार को बदलते जमाने के बावजूद काफ़ी हद तक पकड़कर रखा. यह अपने-आप में उनकी विशिष्टता को रेखांकित करने के लिए पर्याप्त है.

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लखनऊ: हिंदी फिल्म सिनेमा जगत के जाने-माने संगीतकार नौशाद अली को शायद ही कोई शख्स ऐसा हो जो न जानता हो. फिल्मी जगत के इतिहास में नौशाद अली का नाम बहुचर्चित है. बहु प्रतिभा के धनी नौशाद अली का जन्म लखनऊ के कांधारी बाजार इलाके में 26 दिसम्बर, 1919 में हुआ था. कहा जाता है कि नौशाद अली का दोबारा जन्म संगीत निर्देशन के लिए हुआ. दरअसल ऐसा इसलिए कहा जाता है क्योंकि 3 वर्ष की आयु में नौशाद अली बीमार थे. अचानक उनकी सांसे थम गईं और घर में मातम छा गया. सभी को लगा कि अब नौशाद नहीं रहे. लेकिन अल्लाह का चमत्कार था कि बच्चे की उखड़ती हुई सांसे दोबारा चल पड़ीं.

भातखंडे संगीत संस्थान के संगीतकार डॉ. कमलेश दूबे बताते हैं कि नौशाद को बचपन से ही संगीत के प्रति गहरी रुचि थी. अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने बचपन की उस घटना का बड़ा रोचक वर्णन किया था, जब बाराबंकी के पास देवा शरीफ के उर्स में उन्होंने पेड़ के नीचे बैठे एक बाबा रशीद खां को ‘छूटे असीर वो बदला हुआ ज़माना था’ गाते सुना था. वे गाने व बांसुरी के सुरों से बहुत प्रभावित हुए थे. जब उनके वालिद अपने नए मकान घसियारी मंडी में परिवार को ले गए तो वहीं पास में एक साज की दुकान हुआ करती थी ‘एस. भोंपू एंड सन्स’.

पुण्यतिथि पर याद आए नौशाद

उन्होंने बताया कि जब भी नौशाद इस दुकान के पास से गुजरते तो ठिठककर घंटों साजों को निहारते रहते थे. एक बार दुकान मालिक गुरबत अली ने फटकार दिया कि क्या रोज-रोज का तमाशा लगा रखा है. नौशाद की विनती पर कि वे घंटे-दो घंटे दुकान में बैठने की इजाजत दे दें, बदले में वे कोई भी खिदमत कर देंगे. इस पर गुरबत अली मान गए. नौशाद बड़ी लगन से दुकान की सफाई करते, साजों को झाड़ते-पोंछते, उस्ताद गुरबत अली का हुक्का भी भर देते. इससे उस्ताद भी उनकी सेवा के कायल हो गए और वक्त निकालकर नौशाद साजों के तारों पर हाथ भी साफ करने लगे. घर लौटने में अक्सर देर होती थी और उनके पिता का गुस्सा भी जायज था, लेकिन नौशाद का संगीत-प्रेम तो एक फैलती लता की तरह मंजिलें तय कर रहा था. एक दिन गुरबत अली दुकान जरा जल्दी पहुंच गए तो देखा कि नौशाद एक साज के साथ खोए हुए हैं.

अब गुरबत अली को समझ में आया कि यह लड़का क्यों इस दुकान में नौकरी करने आया. पर मन ही मन वे रीझ भी गए और नौशाद को एक नया साज उपहार में देकर यह यकीन भी दिलाया कि उन्हें पूरी उम्मीद थी कि नौशाद आगे चलकर एक आला दर्जे के फनकार बनेंगे. किसी ने नौशाद की प्रतिभा की पहली बार खुले दिल से तारीफ की थी और एक दिन जब गुरबत अली ने चुपचाप लड्डन मियां को बुलाकर नौशाद का संगीत सुनाया तो लड्डन मियां भी कायल हो गए. उन्होंने नौशाद को अपने साथ रखकर सिखाने का भी ऐलान कर दिया.

उन्हीं दिनों ‘न्यू ड्रामा कम्पनी’ लखनऊ आई. कम्पनी को नौशाद ने गीत-संगीत के बारे में जो सुझाव दिए, वे इतने पसंद आए कि नौशाद को उस कम्पनी में ही भर्ती कर लिया गया. कम्पनी के साथ कुछ दिनों इधर-उधर गए भी, लेकिन जब कम्पनी ने दम तोड़ दिया तो नौशाद को घर लौटना पड़ा. वालिद का गुस्सा अपने शबाब पर था और उन्होंने फरमान जारी किया कि यदि घर में रहता है तो मिरासी बनने की तमन्ना छोड़नी होगी लेकिन नौशाद को तो शायद संगीत के लिए ही खुदा ने दूसरा जन्म दिया था. उन्होंने घर ही छोड़ दिया और बम्बई का रुख किया.

एक दोस्त अब्दुल मजीद 'आदिल' ने अपने एक परिचित अलीम 'नामी' के नाम चिट्ठी दे दी, लेकिन बम्बई पहुंचकर नामी साहब को ढूंढ़ने में ही कई दिन लग गए. नामी साहब की हालत भी ऐसी नहीं थी कि जल्दी कुछ कर सकते. फिर भी उन्होंने काफी वक्त बाद एक फिल्म कम्पनी का साजिंदों के लिए दिया इश्तहार देखकर नौशाद को वहां जाने की सलाह दी. इंटरव्यू के लिए बुलाया गया. ग्रांट रोड, खेतवाड़ी के एक ऑफिस में इंटरव्यू था और लेनेवाले थे मशहूर संगीतकार उस्ताद झंडे खां.

इंटरव्यू देने वालों की कतार में गुलाम मुहम्मद भी थे जो आगे चलकर नौशाद के वर्षों तक सहायक रहे. नौशाद इंटरव्यू और झंडे खां के नाम से काफी घबड़ाए हुए थे, लेकिन फिर भी जैसे-तैसे करके जो सूझा वह सुना दिया और नाउम्मीद से वापस आ गए. वहीं, उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा, जब उन्हें मालूम हुआ कि उन्हें चुन लिया गया है. साथ ही गुलाम मुहम्मद भी चुन लिए गए थे.

नौशाद को न्यू पिक्चर कम्पनी के लिए पियानोवादक के रूप में 40 रुपये महीने पर रखा गया और गुलाम मुहम्मद को साठ रुपये महीने पर. कम्पनी का स्टूडियो चेंबूर में था. अब नौशाद ने नामी साहब पर बोझ बने रहना उचित नहीं समझा और लखनऊ के ही एक अख्तर साहब के साथ दादर में रहने लगे. अख्तर साहब एक दुकान में सेल्समैन थे और उसी के अंदर रहा भी करते थे. रात को दुकान के भीतर बड़ी गर्मी लगती थी, इसलिए दोनों दोस्त बाहर फुटपाथ पर आ जाते थे और वहीं बिस्तर लगा लेते थे.

डॉ. कमलेश बताते हैं कि नौशाद ने जो पहला गीत कम्पोज किया, वह था 'बता दो मोहे कौन गली गए श्याम' जो उसी लीला चिटणीस ने गाया जिनको सीढ़ियों पर चप्पल खटखटाते हुए चढ़ जाना तो कभी लेटे हुए नौशाद देखा करते थे. लेकिन इस गाने की रिकॉर्डिंग में नौशाद को बड़ी तकलीफ हुई. कारण था साजिंदों का असहयोगात्मक व्यवहार. वे इस बात को सहन नहीं कर पा रहे थे कि कल तक जो लड़का उनके साथ बजाया करता था, वह उन्हें संगीत-निर्देशक बनकर निर्देशित करे. साजिंदों के इस व्यवहार के कारण नौशाद ने 'कंगन' (1939) में मात्र एक गीत कम्पोज करके इस्तीफा दे दिया और रंजीत को अलविदा कह दिया. वैसे यह एक गीत भी बहुत सुंदर था. अवधी-भोजपुरी और लोक-संगीत की छाप इस पहले गीत से ही स्पष्ट है. बिरहा जैसी इसकी धुन उस जमाने में पूर्वी उत्तर प्रदेश विशेषकर बनारस के कोठों पर गाए जाने वाले गीतों से भी खूब मेल खाती है.

फिल्म 'साथी' की सफलता के बावजूद जमाना अब नौशाद का नहीं रह गया था. फिल्म-संगीत के आठवें दशक के परिवर्तनों के बीच झूमते युवावर्ग के पास अब नौशाद की मेलोडी के उस पुराने रूप के लिए कोई जगह नहीं थी. 'टांगेवाला (1972) के 'कर भला होगा भला' (मुकेश) और पंजाबी गिद्दा की शैली वाले 'आई रे खिलौनेवाली आई (लता) जैसे गीत वक्त के सामने बासी थे. कला केंद्र फिल्म्स, मद्रास की राजेश खन्ना, मुमताज अभिनीत 'आईना' (1974) भी असफल रहीं और 'वो जो औरों की खातिर मर मिटे' (लता) और 'जाने क्या हो जाए जब दिल से दिल टकराए' (लता, रफी) की लोकप्रियता भी क्षणिक ही रही.

कई पुरस्कारों से सम्मानित

नौशाद के पास पुरस्कारों और सम्मानों का खजाना ही है. 'बैजू बावरा' के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार, 'गंगा जमुना' के लिए बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन पुरस्कार (1961), 'पालकी' के लिए सरस्वती पुरस्कार से लेकर महाराष्ट्र गौरव पुरस्कार, दादा साहब फाल्के पुरस्कार (1982), लता मंगेशकर पुरस्कार (1984), अमीर खुसरो एवार्ड (1987), पद्मभूषण (1992) और संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार (1993) जैसे बड़े सम्मानों से उन्हें नवाजा गया है. उनकी 25 फिल्मों ने सिलवर जुबली, 9 ने गोल्डेन जुबली और 3 फिल्मों ने प्लैटिनम जुबली मनाई.

2006 में हुआ इस फनकार का निधन

अपनी शायरी की किताब 'आठवां सुर' की रचनाओं को स्वयं कम्पोज कर उन्होंने हरिहरन और प्रीति उत्तम से भी गवाया है. अकबर खान ने अपनी फिल्म 'ताजमहल' में संगीत देने के लिए उन्हें अनुबंधित किया है. कुछ गैर-फिल्मी गीतों का सृजन भी नौशाद के हिस्से में आया है. रफी के स्वर में 'ऐ मेरे लाडलो', 'बीते दिनों की यादें', 'मुहब्बत खुदा है', मुकेश के स्वर में 'क्यूं फेरी नज़र' आदि पर ऐसे प्रयास नौशाद ने कम ही किए. नौशाद अली ने हिंदी सिनेमा जगत में लगभग छह दशकों तक अपना जादू बिखेरा. यह फनकार 5 मई 2006 को हमेशा के लिए इस दुनिया को अलविदा कह गया. नौशाद हिंदी फिल्म जगत को अपनी संगीत साधना से खुशनुमा कर गए. आज भी उनका नाम हिंदी सिनेमा जगत में बहुचर्चित है. सिनेमा के इतिहास में उनका नाम सुर्ख़ शब्दों में दर्ज है.

भातखंडे संगीत संस्थान के टीचर व संगीतकार अरूण भट्ट ने बताया कि एक बार बिरजू महाराज के साथ मुंबई गया था. वहीं, पर नौशाद अली जी भी आए थे. मेरी किस्मत है कि मुझे उनसे मिलने का सौभाग्य मिला. मैं उनसे मिला और उनसे आशीर्वाद भी लिया. एक pमाना था जब फिल्म 'दास्तान' के ट्रेलर में ऊंचे स्वरों में यह उद्घोषणा सुनाई देती थी- 'चालीस करोड़ में एक ही नौशाद'. किसी संगीतकार को इतनी प्रतिष्ठा फिल्म जगत में उस वक्त तक कभी नहीं मिली थी. नौशाद पहले संगीतकार थे जिन्होंने अपनी शख्सियत और अपने हुनर से संगीतकार का दर्जा भी नायक या निर्देशक के समकक्ष ला खड़ा किया.

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नौशाद ऐसे संगीतकार रहे हैं जिन्होंने फिल्मों में भी अपनी रचनााएं भारतीय संगीत-पद्धति के अंदर ही विकसित की. राग आधारित स्वरक्रम के साथ कभी तो विशुद्ध शास्त्रीय अंदाज की बंदिशें सृजित कीं तो कभी शास्त्रीय संगीत के आधार पर लोकगीत के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए बहुत ही सरस और मीठे गीत बनाए. शास्त्रीय संगीत का नौशाद जितना सुगम रूप कम ही संगीतकारों में दिखाई देता है. 50 साल से अधिक सक्रिय रहने वाले नौशाद ने अपने अंतिम दौर तक भी शास्त्रीय संगीत के इस आधार को बदलते जमाने के बावजूद काफ़ी हद तक पकड़कर रखा. यह अपने-आप में उनकी विशिष्टता को रेखांकित करने के लिए पर्याप्त है.

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