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बुंदेलखंड की इस बेटी ने खड़ा किया साक्षरता का 'साम्राज्य', मुश्किलों से लड़ यूं पाया मुकाम

लखनऊ के सेंट जोसेफ ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस की संस्थापिका पुष्पलता अग्रवाल ने अपने संघर्षों और सफलता के बारे में बताया.

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सेंट जोसेफ ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस
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Published : Apr 28, 2022, 6:19 PM IST

लखनऊ: 16 साल की उम्र में शादी हो गई. पढ़ने की चाहत थी लेकिन दिल में दबी रह गई. ससुराल में आर्थिक तंगी हुई तो दूसरों के कपड़े सिले. 18 साल की उम्र में पहली बेटी पैदा हुई. इसी बेटी के कहने पर शादी के 12 साल के बाद पढ़ाई दोबारा शुरू की. ये कहानी है बुंदेलखण्ड के एक छोटे से गांव की एक बेटी की जिसने अपने संघर्ष के बल पर न केवल अपना जीवन सुधारा बल्कि लाखों लोगों के लिए प्रेरणादायक भी बनीं.

सेंट जोसेफ ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस

ETV Bharat की इस खास पेशकश में आज हम आपकी मुलाकात सेंट जोसेफ ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस की संस्थापिका पुष्पलता अग्रवाल से कराएंगे जिन्होंने बेटी के कहने पर अपनी जिंदगी की नई शुरूआत की. कुछ सपनों के साथ 1980 के दशक में लखनऊ में कदम रखा. पति का साथ न मिलने के बावजूद हौंसले, लगन और दृढ़ इच्छ शक्ति के बल पर एक छोटे से स्कूल सेंट जोसेफ ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस की नींव रखी. आज वह पौधा वटवृक्ष बन चुका है. आलम यह है कि इस स्कूल की छह शाखाएं हैं जिनमें 11 हजार से ज्यादा बच्चे पढ़ रहे हैं. ETV Bharat से खास बातचीत में सेंट जोसेफ ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस की संस्थापिक पुष्पलता अग्रवाल ने अपने संघर्षों और सफलता के कुछ आयम पहलुओं को साझा किया है.

16 साल की उम्र में शादी, खर्च चलाने के लिए की सिलाई
पुष्पलता अग्रवाल बताती हैं कि उनके जीवन का सफर उतार चढ़ाव वाला रहा है. बुंदेलखण्ड के झांसी जिले में मौरानीपुर में 16 साल कैसे गुजर गए पता ही नहीं चला. वहां एक अलग माहौल था. 1965 में शादी हुई. उस समय 16 साल की थी. यहां से सबकुछ बदल गया. पति एफसीआई में सरकारी नौकरी करते थे. 175 रुपये तनख्वाह थी. पुणा में रहते थे. महंगाई इतनी की घर चलाना भी मुश्किल. पूना पहुंची. वहां, बड़ी बेटी नीरू पैदा हुई. उस समय उम्र 18 साल से भी कम थी.

यहां पर सिलाई का काम शुरू किया. बच्चों और महिलाओं के कपड़े सिला करती थी. दिन अच्छे कटने लगे थे. अपने हाथ में भी पैसा रहता था. उसके बाद हम लोग कानपुर का आ गए. यहां चार साल के समय में दो बेटियां हुई. सास बहुत नाराज थीं. वो चाहती थीं लड़का हो. तीन बच्चे पालना भी मुश्लिक था लेकिन लड़का चाहिए था. फिर पति के ट्रांसफर के बाद वह अमृतसर गए और 2 साल बाद बेटा हो गया. तीन बेटियां और एक बेटा था. बाद में एक बेटी और हुई. 5 बच्चे हो चुके थे. ऐसे में परिवार का भरण पोषण और मुश्किल होता गया. पंजाब जाकर मकान मालिक के साथ पार्टनरशिप में एक बुनाई मशीन खरीदी. 10 दिन तक बुनाई की ट्रेनिंग ली. जीजा जी ने कारखानों वालों से मिलवाया. कारखाने वालों ने स्वेटर बनाने का काम दिया. इस तरह से संघर्ष की कहानी आगे बढ़ने लगी.

ऐसे 12 साल बाद दोबारा शुरू हुई पढ़ाई : पुष्पलता अग्रवाल ने बताया कि शादी के ढाई साल बाद ससुर की मृत्यु हो चुकी थी. बड़े वाले जेठ ने सरकारी नौकरी छोड़कर बिजनेस करने का फैसला लिया लेकिन बिजनेस सफल नहीं हुआ. देवर बीमार थे. ननद शादी के लिए बैठी थी. जिम्मेदारियां काफी थीं. तो अमृतसर से इटावा ट्रांसफर करा लिया गया. इटावा में ससुराल है. इटावा आने पर बुनाई का काम छूट गया. इटावा ऐसी जगह नहीं जहां महिलाओं को कोई कार्य मिले. बच्चों के खर्चे वैसे ही थे तो उन्होंने वहां महिलाओं को बुनाई की ट्रेनिंग देनी शुरू कर दी. जिंदगी की गाड़ी अच्छे से आगे बढ़ने के लिए.

हालांकि उसी समय हमारा ट्रांसफर औरैया हो गया. जब वह औरैया पहुंचीं तो उनकी पढ़ने की बहुत इच्छा थी. घर के सामने ही डिग्री कॉलेज था. प्रोफेसर आशा विश्नोई तब उनके संपर्क में आईं. उन्होंने उनसे अपनी इच्छा जाहिर की. उन्होंने उनका फॉर्म भरवाया. उस समय उनकी शादी को करीब 12 साल बीत चुके थे.

नतीजे से पहले मिला जीवन का सबसे बड़ा झटका : पुष्पलता अग्रवाल ने बताया कि उनका बीए का पहला साल ही औरैया में बीता. फिर से पति का ट्रांसफर कानपुर हो गया. वे लोग इटावा शिफ्ट हो गए. इटावा में ससुराल में रहकर के स्नातक की पढ़ाई पूरी करना आसान नहीं था. इसी बीच आशा विश्नोई ने इटावा में एक प्रोफेसर चक्रपाणि और वीरेंद्र कुमार स्नातक से मिलवाया. उन लोगों ने घर पर आकर मेरी मदद की और उनका ग्रेजुएशन पूरा हुआ क्योंकि संयुक्त परिवार था. घर में जगह कम थी बच्चे बड़े हो रहे थे. इसलिए वह लोग किराए के मकान में शिफ्ट हो गए.

इटावा में के.के डिग्री कॉलेज के पास घर था. चक्रपाणि घर पर आकर उन्हें संस्कृत पढ़ाने लगे. इस तरह से उन्होंने वहां संस्कृत से पीजी भी कर लिया. स्नातक का रिजल्ट आने से पहले ही एक बड़ा हादसा हुआ. सबसे बड़ी बेटी निरुपमा की असमय मृत्यु हो गई. उसे फूड प्वाइजनिंग हो गई थी. निरुपमा के जाने से बिल्कुल ही टूट गई. नीरू के कहने पर ही दोबारा पढ़ाई शुरू की थी. जीवन जैसे बदल गया था. पति के अधिकारी उस बच्ची की मृत्यु के बाद मिलने आए. उन्होंने उनकी जो हालत देखी तो उन्होंने लखनऊ शिफ्ट होने का सुझाव दिया. आश्वासन दिया कि थोड़े दिन के बाद में लखनऊ ट्रांसफर करवा देंगे और वे लोग लखनऊ आ गए.

1983 में लखनऊ में रखा कदम : नीरू के जाने से वह पूरी तरह टूट गईं थीं लेकिन फिर उन तीनों चारों बच्चों के लिए खुद को खड़ा किया. खुद को संभल लिया. जब लखनऊ आईं तो काफी विपरीत परिस्थितियां थीं. पति कानपुर से अप डाउन करते थे. तनख्वाह बहुत अधिक नहीं थी. ससुराल की पूरी जिम्मेदारियां थीं. यहां आने पर बेटियों के दाखिले के लिए उन्हें काफी परेशानी हुई. बड़ी वाली बेटी ने इटावा से 9th किया था और लखनऊ में उसे सीधे 10th क्लास में दाखिला कराना. उसे तो यशोदा कॉलेज में प्रवेश मिल गया. लेकिन बाकी दोनों बेटियों को बाद में काफी मुश्किलें हुई. तब मुझे लगा कि राजाजीपुरम में कक्षा 9 से आगे का अच्छा स्कूल नहीं है. यहां से स्कूलों बनाने का विचार मन में आया.

यह भी पढ़ें- अवैध बालू खनन करते पकड़ा गया पट्टेदार, 38 लाख का जुर्माना

मकाने की किश्तें भरने के लिए किराए पर रही
पुष्पलता अग्रवाल बताती हैं कि 1982 में बेटी की डेथ हुई थी अक्टूबर में और 83 में हम लोग लखनऊ आ गए हैं. पहले से ही आवास विकास में एक प्लॉट बुक थ. वह प्लॉट में राजाजीपुरम में अलॉट हुआ एफसीआई से लोन लिया अपने जेवर भेजें कुछ पुरानी बचत थी और जो इटावा में छोटा सा प्लाट खरीद लिया था. उसी को बेचकर यहां मकान बनाया. घर में दो बेडरूम और एक ड्राइंग रूम था. तीन कमरे का घर जब बनाया तो लोन की किस्त देनी थी. लोन की किस्त देने की गुंजाइश नहीं थी तो हम ₹400 कराए के घर में रहते थे. यह मकान ₹1000 के किराए पर उठा दिया. आसपास दूर-दूर तक उस समय कोई मकान नहीं था. किराएदार एक महीने के बाद ही घर छोड़ कर चले गए. उन्होंने 3 महीने का एडवांस भी दिया था. उन्होंने अपना घर छोड़ दिया और यहां तक कि उन्हें एडवांस भी वापस नहीं मांगा.

ऐसे हुई स्कूल की शुरुआत : पुष्पलता अग्रवाल बताती हैं कि जब किराएदार चले गए तो फिर से टू लेट का बोर्ड लगा दिया. अब स्कूल वाले मकान किराए पर मांगने के लिए आते थे. रिश्तेदारों ने कहा कि अगर आप स्कूल को दे देंगे तो कभी खाली नहीं रहेगा. तभी विचार आया कि अपना कुछ काम भी करना है. राजाजीपुरम में स्कूलों की कमी लग रही है तो क्यों ना इस घर में स्कूल ही शुरु कर देगा? तब स्कूल खोलने का फैसला लिया गया. विद्यालय खुलने के लिए सोसाइटी बनाई. पहले स्कूल का नाम भी नीरू के नाम पर ही करने जा रहे थे, लेकिन मन में विचार आया कि नीरू कानपुर में सेंट जोसेफ स्कूल में पढ़ती थी. उसे अपना पहला स्कूल बेहद प्यारा था. बस उसी के नाम पर इसका नाम भी सेंट जोसेफ रख दिया.

5 बच्चों से हुई शुरुआत : 14 अप्रैल 1987 का वो दिन था जब पहली बार स्कूल में दाखिले हुए. उन्होंने कहा कि उन्हें डेढ़ सौ बच्चों के दाखिले की उम्मीद थी. लेकिन 5 छात्रों से ही शुरुआत हुई. पर जगदीश गांधी जी के संघर्ष को देखकर मुझे भी हौंसला मिला. फिर खुद को संभाला. इस पूरे संघर्ष में उनका कई लोगों ने साथ दिया. उनके सहयोग से यह सब संभव हुआ.

युवाओं के लिए संदेश : पुष्पलता अग्रवाल बताती हैं कि अगर आपका इरादा सही है, उद्देश अच्छा है, नियत साफ है तो सफलता निश्चित रूप से मिलेगी. आपने जो लक्ष्य निर्धारित किया है और उस लक्ष्य की ओर बढ़ चुके हैं तो कभी पीछे नहीं हटना चाहिए. एक विश्वास, पूरी ईमानदारी और मेहनत लगन निष्ठा के साथ जब आप उस कार्य के लिए आगे बढ़ेंगे तो सफलता निश्चित रूप से मिलेगी.

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लखनऊ: 16 साल की उम्र में शादी हो गई. पढ़ने की चाहत थी लेकिन दिल में दबी रह गई. ससुराल में आर्थिक तंगी हुई तो दूसरों के कपड़े सिले. 18 साल की उम्र में पहली बेटी पैदा हुई. इसी बेटी के कहने पर शादी के 12 साल के बाद पढ़ाई दोबारा शुरू की. ये कहानी है बुंदेलखण्ड के एक छोटे से गांव की एक बेटी की जिसने अपने संघर्ष के बल पर न केवल अपना जीवन सुधारा बल्कि लाखों लोगों के लिए प्रेरणादायक भी बनीं.

सेंट जोसेफ ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस

ETV Bharat की इस खास पेशकश में आज हम आपकी मुलाकात सेंट जोसेफ ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस की संस्थापिका पुष्पलता अग्रवाल से कराएंगे जिन्होंने बेटी के कहने पर अपनी जिंदगी की नई शुरूआत की. कुछ सपनों के साथ 1980 के दशक में लखनऊ में कदम रखा. पति का साथ न मिलने के बावजूद हौंसले, लगन और दृढ़ इच्छ शक्ति के बल पर एक छोटे से स्कूल सेंट जोसेफ ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस की नींव रखी. आज वह पौधा वटवृक्ष बन चुका है. आलम यह है कि इस स्कूल की छह शाखाएं हैं जिनमें 11 हजार से ज्यादा बच्चे पढ़ रहे हैं. ETV Bharat से खास बातचीत में सेंट जोसेफ ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस की संस्थापिक पुष्पलता अग्रवाल ने अपने संघर्षों और सफलता के कुछ आयम पहलुओं को साझा किया है.

16 साल की उम्र में शादी, खर्च चलाने के लिए की सिलाई
पुष्पलता अग्रवाल बताती हैं कि उनके जीवन का सफर उतार चढ़ाव वाला रहा है. बुंदेलखण्ड के झांसी जिले में मौरानीपुर में 16 साल कैसे गुजर गए पता ही नहीं चला. वहां एक अलग माहौल था. 1965 में शादी हुई. उस समय 16 साल की थी. यहां से सबकुछ बदल गया. पति एफसीआई में सरकारी नौकरी करते थे. 175 रुपये तनख्वाह थी. पुणा में रहते थे. महंगाई इतनी की घर चलाना भी मुश्किल. पूना पहुंची. वहां, बड़ी बेटी नीरू पैदा हुई. उस समय उम्र 18 साल से भी कम थी.

यहां पर सिलाई का काम शुरू किया. बच्चों और महिलाओं के कपड़े सिला करती थी. दिन अच्छे कटने लगे थे. अपने हाथ में भी पैसा रहता था. उसके बाद हम लोग कानपुर का आ गए. यहां चार साल के समय में दो बेटियां हुई. सास बहुत नाराज थीं. वो चाहती थीं लड़का हो. तीन बच्चे पालना भी मुश्लिक था लेकिन लड़का चाहिए था. फिर पति के ट्रांसफर के बाद वह अमृतसर गए और 2 साल बाद बेटा हो गया. तीन बेटियां और एक बेटा था. बाद में एक बेटी और हुई. 5 बच्चे हो चुके थे. ऐसे में परिवार का भरण पोषण और मुश्किल होता गया. पंजाब जाकर मकान मालिक के साथ पार्टनरशिप में एक बुनाई मशीन खरीदी. 10 दिन तक बुनाई की ट्रेनिंग ली. जीजा जी ने कारखानों वालों से मिलवाया. कारखाने वालों ने स्वेटर बनाने का काम दिया. इस तरह से संघर्ष की कहानी आगे बढ़ने लगी.

ऐसे 12 साल बाद दोबारा शुरू हुई पढ़ाई : पुष्पलता अग्रवाल ने बताया कि शादी के ढाई साल बाद ससुर की मृत्यु हो चुकी थी. बड़े वाले जेठ ने सरकारी नौकरी छोड़कर बिजनेस करने का फैसला लिया लेकिन बिजनेस सफल नहीं हुआ. देवर बीमार थे. ननद शादी के लिए बैठी थी. जिम्मेदारियां काफी थीं. तो अमृतसर से इटावा ट्रांसफर करा लिया गया. इटावा में ससुराल है. इटावा आने पर बुनाई का काम छूट गया. इटावा ऐसी जगह नहीं जहां महिलाओं को कोई कार्य मिले. बच्चों के खर्चे वैसे ही थे तो उन्होंने वहां महिलाओं को बुनाई की ट्रेनिंग देनी शुरू कर दी. जिंदगी की गाड़ी अच्छे से आगे बढ़ने के लिए.

हालांकि उसी समय हमारा ट्रांसफर औरैया हो गया. जब वह औरैया पहुंचीं तो उनकी पढ़ने की बहुत इच्छा थी. घर के सामने ही डिग्री कॉलेज था. प्रोफेसर आशा विश्नोई तब उनके संपर्क में आईं. उन्होंने उनसे अपनी इच्छा जाहिर की. उन्होंने उनका फॉर्म भरवाया. उस समय उनकी शादी को करीब 12 साल बीत चुके थे.

नतीजे से पहले मिला जीवन का सबसे बड़ा झटका : पुष्पलता अग्रवाल ने बताया कि उनका बीए का पहला साल ही औरैया में बीता. फिर से पति का ट्रांसफर कानपुर हो गया. वे लोग इटावा शिफ्ट हो गए. इटावा में ससुराल में रहकर के स्नातक की पढ़ाई पूरी करना आसान नहीं था. इसी बीच आशा विश्नोई ने इटावा में एक प्रोफेसर चक्रपाणि और वीरेंद्र कुमार स्नातक से मिलवाया. उन लोगों ने घर पर आकर मेरी मदद की और उनका ग्रेजुएशन पूरा हुआ क्योंकि संयुक्त परिवार था. घर में जगह कम थी बच्चे बड़े हो रहे थे. इसलिए वह लोग किराए के मकान में शिफ्ट हो गए.

इटावा में के.के डिग्री कॉलेज के पास घर था. चक्रपाणि घर पर आकर उन्हें संस्कृत पढ़ाने लगे. इस तरह से उन्होंने वहां संस्कृत से पीजी भी कर लिया. स्नातक का रिजल्ट आने से पहले ही एक बड़ा हादसा हुआ. सबसे बड़ी बेटी निरुपमा की असमय मृत्यु हो गई. उसे फूड प्वाइजनिंग हो गई थी. निरुपमा के जाने से बिल्कुल ही टूट गई. नीरू के कहने पर ही दोबारा पढ़ाई शुरू की थी. जीवन जैसे बदल गया था. पति के अधिकारी उस बच्ची की मृत्यु के बाद मिलने आए. उन्होंने उनकी जो हालत देखी तो उन्होंने लखनऊ शिफ्ट होने का सुझाव दिया. आश्वासन दिया कि थोड़े दिन के बाद में लखनऊ ट्रांसफर करवा देंगे और वे लोग लखनऊ आ गए.

1983 में लखनऊ में रखा कदम : नीरू के जाने से वह पूरी तरह टूट गईं थीं लेकिन फिर उन तीनों चारों बच्चों के लिए खुद को खड़ा किया. खुद को संभल लिया. जब लखनऊ आईं तो काफी विपरीत परिस्थितियां थीं. पति कानपुर से अप डाउन करते थे. तनख्वाह बहुत अधिक नहीं थी. ससुराल की पूरी जिम्मेदारियां थीं. यहां आने पर बेटियों के दाखिले के लिए उन्हें काफी परेशानी हुई. बड़ी वाली बेटी ने इटावा से 9th किया था और लखनऊ में उसे सीधे 10th क्लास में दाखिला कराना. उसे तो यशोदा कॉलेज में प्रवेश मिल गया. लेकिन बाकी दोनों बेटियों को बाद में काफी मुश्किलें हुई. तब मुझे लगा कि राजाजीपुरम में कक्षा 9 से आगे का अच्छा स्कूल नहीं है. यहां से स्कूलों बनाने का विचार मन में आया.

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मकाने की किश्तें भरने के लिए किराए पर रही
पुष्पलता अग्रवाल बताती हैं कि 1982 में बेटी की डेथ हुई थी अक्टूबर में और 83 में हम लोग लखनऊ आ गए हैं. पहले से ही आवास विकास में एक प्लॉट बुक थ. वह प्लॉट में राजाजीपुरम में अलॉट हुआ एफसीआई से लोन लिया अपने जेवर भेजें कुछ पुरानी बचत थी और जो इटावा में छोटा सा प्लाट खरीद लिया था. उसी को बेचकर यहां मकान बनाया. घर में दो बेडरूम और एक ड्राइंग रूम था. तीन कमरे का घर जब बनाया तो लोन की किस्त देनी थी. लोन की किस्त देने की गुंजाइश नहीं थी तो हम ₹400 कराए के घर में रहते थे. यह मकान ₹1000 के किराए पर उठा दिया. आसपास दूर-दूर तक उस समय कोई मकान नहीं था. किराएदार एक महीने के बाद ही घर छोड़ कर चले गए. उन्होंने 3 महीने का एडवांस भी दिया था. उन्होंने अपना घर छोड़ दिया और यहां तक कि उन्हें एडवांस भी वापस नहीं मांगा.

ऐसे हुई स्कूल की शुरुआत : पुष्पलता अग्रवाल बताती हैं कि जब किराएदार चले गए तो फिर से टू लेट का बोर्ड लगा दिया. अब स्कूल वाले मकान किराए पर मांगने के लिए आते थे. रिश्तेदारों ने कहा कि अगर आप स्कूल को दे देंगे तो कभी खाली नहीं रहेगा. तभी विचार आया कि अपना कुछ काम भी करना है. राजाजीपुरम में स्कूलों की कमी लग रही है तो क्यों ना इस घर में स्कूल ही शुरु कर देगा? तब स्कूल खोलने का फैसला लिया गया. विद्यालय खुलने के लिए सोसाइटी बनाई. पहले स्कूल का नाम भी नीरू के नाम पर ही करने जा रहे थे, लेकिन मन में विचार आया कि नीरू कानपुर में सेंट जोसेफ स्कूल में पढ़ती थी. उसे अपना पहला स्कूल बेहद प्यारा था. बस उसी के नाम पर इसका नाम भी सेंट जोसेफ रख दिया.

5 बच्चों से हुई शुरुआत : 14 अप्रैल 1987 का वो दिन था जब पहली बार स्कूल में दाखिले हुए. उन्होंने कहा कि उन्हें डेढ़ सौ बच्चों के दाखिले की उम्मीद थी. लेकिन 5 छात्रों से ही शुरुआत हुई. पर जगदीश गांधी जी के संघर्ष को देखकर मुझे भी हौंसला मिला. फिर खुद को संभाला. इस पूरे संघर्ष में उनका कई लोगों ने साथ दिया. उनके सहयोग से यह सब संभव हुआ.

युवाओं के लिए संदेश : पुष्पलता अग्रवाल बताती हैं कि अगर आपका इरादा सही है, उद्देश अच्छा है, नियत साफ है तो सफलता निश्चित रूप से मिलेगी. आपने जो लक्ष्य निर्धारित किया है और उस लक्ष्य की ओर बढ़ चुके हैं तो कभी पीछे नहीं हटना चाहिए. एक विश्वास, पूरी ईमानदारी और मेहनत लगन निष्ठा के साथ जब आप उस कार्य के लिए आगे बढ़ेंगे तो सफलता निश्चित रूप से मिलेगी.

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