लखनऊ: जीवन भर किसानों के लिए संघर्ष करने वाले किसान नेता स्व. चौधरी अजीत सिंह पिछले साल कोरोना से लड़ते हुए जिंदगी की जंग हार गए. उनके निधन से जहां किसानों को बड़ा नुकसान हुआ. वहीं देश की राजनीति में भी एक कोना खाली रह गया. बेहद ही शांत स्वभाव के चौधरी अजीत सिंह भले ही अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन देश की राजनीति में उनके योगदान को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता. 6 मई को राष्ट्रीय लोक दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे चौधरी अजीत सिंह की पहली पुण्यतिथि है. इस मौके पर उन्हें पूरा देश याद कर रहा है. चौधरी अजीत सिंह की पहली पुण्यतिथि पर उनकी जिंदगी के हर पहलू से आपको अवगत कराते हैं.
बिल गेट्स की कंपनी में नौकरी करने वाले पहले भारतीय
देश के किसानों ने अजित सिंह के पिता चौधरी चरण सिंह को 'किसान मसीहा' की उपाधि दी थी तो चौधरी अजीत सिंह को 'छोटे चौधरी' के नाम से जाना जाने लगा. छोटे चौधरी का किसानों के लिए संघर्ष का अंदाजा इसी बात से लगाया जाता है कि जीवन के आखिरी दिनों तक वे हर कदम पर किसानों के साथ खड़े नजर आए. जहां किसान आंदोलन में भी उनकी भूमिका सक्रिय रही.
मेरठ के भडोला में 12 फरवरी 1939 को पूर्व प्रधानमंत्री स्व. चौधरी चरण सिंह के घर में एक पुत्र का जन्म हुआ. चौधरी साहब ने बेटे का नाम रखा अजीत सिंह. अजित सिंह की प्रारंभिक शिक्षा मेरठ में हुई थी. इसके बाद लखनऊ यूनिवर्सिटी से बीएससी की डिग्री हासिल की. इसके बाद इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वे आईआईटी खड़गपुर गए, फिर अमेरिका के इलिनाइस इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से मास्टर ऑफ साइंस की पढ़ाई पूरी की. उन्होंने कभी भी राजनीति के क्षेत्र में आने के बारे में नही सोचा था. उनका पूरा फोकस अपने करियर पर ही था. गौरतलब है कि बिल गेट्स की आईबीएम कंपनी में नौकरी करने वाले अजित सिंह पहले भारतीय थे.
राष्ट्रीय लोकदल के नेता अनिल दुबे बताते हैं कि चौधरी अजीत सिंह ने अपने सियासी सफर का आगाज वर्ष 1986 से किया था. पिता का स्वास्थ्य खराब रहने के कारण उन्होंने सियासत में न चाहते हुए भी दस्तक दी थी. अपने पिता चौधरी चरण सिंह के नक्शेकदम पर चले 'छोटे चौधरी' किसानों के मुद्दों को लेकर जीवन भर सड़क से सदन तक उनकी आवाज बनते रहे. किसानों की समस्याओं का समाधान कराने में चौधरी अजित सिंह की बड़ी भूमिका रही.
साल 1986 में राजनीति के दरवाजे पर कदम रखने वाले चौधरी अजीत सिंह को राज्यसभा भेजा गया. इसके बाद साल 1987 से 1988 तक वह लोकदल (ए) और जनता पार्टी के अध्यक्ष भी रहे. वर्ष 1989 में उन्होंने अपनी पार्टी (लोकदल (ए) का विलय जनता दल में विलय कर दिया. इसके बाद वह जनता दल के महासचिव बन गए. पहली बार जब वर्ष 1989 में चौधरी अजीत सिंह ने लोकसभा में कदम रखा तो वीपी सिंह सरकार में केंद्रीय मंत्री बने. 1991 में फिर बागपत लोकसभा सीट से संसद में दाखिल हुए. इस बार पीवी नरसिम्हा राव की सरकार में उन्हें मंत्री बनाया गया. 1996 में कांग्रेस पार्टी के टिकट पर लोकसभा का चुनाव जीता और फिर संसद के अंदर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई. कुछ दिन बाद उन्होंने इस सीट के साथ ही कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया.
1997 में बनाई अपनी पार्टी, जीते और हारे भी
साल 1986 से लेकर 1996 तक यानी 10 साल चौधरी अजित सिंह विभिन्न पार्टियों के साथ रहे. संसद के अंदर पहुंचे. मंत्री भी बने, लेकिन साल 1997 में उन्होंने अपनी पार्टी राष्ट्रीय लोकदल की स्थापना की. 1997 के उपचुनाव में उन्हें बागपत की जनता का पूरा समर्थन मिला और वे यहां से पहली बार अपनी पार्टी से चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंच गए. हालांकि एक साल बाद ही जब लोकसभा चुनाव हुआ तो उन्हें जोरदार झटका भी लगा. 1998 में उनके सियासत का ऐसा भी स्याह दिन आया जब उन्हें हार का सामना करना पड़ गया, लेकिन चौधरी अजित सिंह हार मानने वालों में से नहीं थे. 1999 में फिर चुनाव जीतकर उन्होंने लोकसभा के दरवाजे पर दस्तक दे डाली.
हर सरकार में 'छोटे चौधरी' का था दखल
वर्ष 2001 से 2003 तक पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेई की सरकार में चौधरी अजित सिंह ने मंत्री पद हासिल किया. इस दौरान किसानों की तमाम समस्याओं का समाधान उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई से कराया. जिससे किसानों पर वे अपनी अलग ही छाप छोड़ने में सफल हुए. इसके बाद वर्ष 2011 में वे यूपीए के साथ चले गए. 2011 से 2014 तक मनमोहन सिंह की सरकार में मंत्री रहकर अपना कद ऊंचा किया.
ऐसे हुआ राष्ट्रीय लोकदल का हुआ गठन
कांग्रेस मंत्रिमंडल से इस्तीफा देने के बाद चौधरी चरण सिंह ने भारतीय क्रांति दल की स्थापना की थी. इसके बाद 1974 में उन्होंने इसका नाम बदलकर लोकदल कर दिया. 1977 में इस पार्टी का जनता पार्टी में विलय हो गया. 1980 में जब जनता पार्टी टूटी तो चौधरी चरण सिंह ने जनता पार्टी (एस) का गठन किया. 1980 में हुए लोकसभा चुनाव में इस दल का नाम बदलकर दलित मजदूर किसान पार्टी हो गया. इसी बैनर तले चुनाव मैदान में दस्तक दी. पार्टी में अंदरूनी विवाद के चलते हेमवती नन्दन बहुगुणा अलग हो गए और 1985 में चौधरी चरण सिंह ने लोकदल का गठन कर दिया. इसी बीच 1987 में चौधरी अजित सिंह के राजनीतिक हस्तक्षेप से पार्टी में फिर विवाद हो गया. अब लोकदल (अ) का गठन हुआ. इसके बाद 1988 में लोकदल (अ) का जनता दल में विलय हो गया. जब जनता दल में आपसी टकराव हुआ तो लोकदल (अ) और लोकदल (ब) बन गया. लोकदल (अ) यानी चौ.अजित सिंह का 1993 में कांग्रेस में विलय हो गया. चौधरी अजित सिंह ने एक बार फिर कांग्रेस से अलग होकर 1996 में किसान कामगार पार्टी बनाई. इसके बाद 1998 में चौ. अजित सिंह ने पार्टी का नाम राष्ट्रीय लोकदल रख दिया जो अब लगातार आगे बढ़ रही है.
चौधरी अजीत सिंह के बेटे चौधरी जयंत सिंह अब राष्ट्रीय लोकदल के मौजूदा राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और पार्टी को पहले ही की तरह शिखर पर पहुंचाने की कोशिश में जुटे हुए हैं.
जब गहरे दोस्त बन गए थे दुश्मन
साल 1989 का वह दौर था जब जनता दल की तरफ से चौधरी अजीत सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने की पूरी तैयारी कर चुके थे और मुलायम सिंह यादव को उपमुख्यमंत्री बनाने की तैयारी थी. सारी तैयारियां भी लगभग पूरी हो गई थीं, लेकिन इसी बीच दूसरे पक्ष ने मुलायम सिंह यादव को मुख्यमंत्री बनाने की पेशकश कर दी. यहीं पर शुरू हो गई जनता दल के दोनों नेताओं मुलायम और चौधरी अजीत सिंह के रिश्तों में दरार.
दरअसल, चौधरी अजीत सिंह दिल्ली की राजनीति कर रहे थे लेकिन नेताओं के बहकावे के चलते उनकी बातों में आ गए और मुख्यमंत्री पद का दावा करने लखनऊ पहुंच गए थे. इधर मुलायम सिंह यादव की पीठ पर भी नेताओं ने हाथ रख दिया. इसके बाद चौधरी अजित सिंह का मुख्यमंत्री बनने का सपना मुलायम सिंह यादव ने चकनाचूर कर दिया. मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए और मजबूरन चौधरी अजीत सिंह को खाली हाथ दिल्ली वापस लौटना पड़ा. इसके बाद इन दोनों नेताओं के बीच बड़ी दरार पड़ गई.
सिर्फ 5 वोटों से टूटा सीएम बनने का सपना
चौधरी अजीत सिंह की मुख्यमंत्री की ताजपोशी लगभग तय थी, लेकिन मुलायम सिंह यादव के अचानक सक्रिय हो जाने से उनका यह ख्वाब टूट गया. जनता दल के विधायकों की बैठक में हुए मतदान में चौधरी अजीत सिंह, मुलायम सिंह यादव के मुकाबले महज 5 वोट से पीछे रह गए और यही उनके मुख्यमंत्री न बन पाने का कारण बना.
राष्ट्रीय लोक दल के राष्ट्रीय सचिव अनिल दुबे बताते हैं कि चौधरी अजीत सिंह चार बार इस देश के मंत्री रहे हैं. जिन पदों पर भी वे रहे उन पदों पर रहते हुए इस देश के किसानों, नौजवानों और कमजोर वर्ग के लिए लगातार संघर्ष करते रहे. उनके लिए काम किया, उनका उत्थान किया. जब उद्योग मंत्री थे तो चीनी मिलें लगवाईं. कृषि मंत्री थे तो किसानों पर आयकर नहीं लगने दिया. जब भी उनको मौका मिला किसानों के भले के लिए काम करते रहे. जीवन पर्यंत किसानों के लिए लड़ते रहे. भूमि अधिग्रहण कानून की लड़ाई लड़ी. गन्ना किसानों की लड़ाई लड़ी. किसानों को गन्ने का मूल्य दिलाने के लिए लड़ाई लड़ी. आलू का समर्थन मूल्य दिलाने के लिए लड़ाई लड़ी. किसानों के लिए जीवन भर लड़ते रहे, सोचते रहे और उन्हीं के लिए सोचते-सोचते वह इस दुनिया को अलविदा कह गए. उनकी पहली पुण्यतिथि राष्ट्रीय लोक दल पूरे उत्तर प्रदेश में मना रही है. सभी जिलों में विचार गोष्ठी हो रही है. हवन पूजन हो रहा है. अस्पतालों में फल वितरण के साथ रक्तदान शिविर आयोजित किया गया है.
'चौधरी परिवार के योगदान को नहीं भुलाया जा सकता'
वरिष्ठ पत्रकार बृजेश शुक्ला बताते हैं कि चौधरी परिवार के योगदान की बात करूं तो वास्तव में उनके पिता चौधरी चरण सिंह का जो योगदान था उसे कोई भुला नहीं सकता. भारत की राजनीति में किसान नाम से जो बड़ा वर्ग तैयार हुआ है. उसे चौधरी साहब ने ही तैयार किया है. चौधरी अजीत सिंह उनके पुत्र थे. उनका अपने आप एक पारिवारिक पृष्ठभूमि में बड़ा महत्त्व रहा है. वह किसानों की लड़ाई लड़ते रहे. वह अपने पिता की ही तरह उनके हित की बात करते रहे हैं. कई बार भारत के कृषि मंत्री रहे हैं. उनके योगदान को भी कोई नहीं भुला सकता. बेहतर ढंग से किसानों का हित करने का प्रयास किया. मेरे ख्याल से पश्चिम उत्तर प्रदेश में चौधरी परिवार विशेष रूप से चरण सिंह जी, उनके पुत्र चौधरी अजीत सिंह और अब जयंत का जबरदस्त दबदबा है और ये दिखाई भी देता है.
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