लखनऊ : वर्ष 2070 तक जलवायु परिवर्तन के कारण भारतीय तट पर तटवर्ती रक्षकों के रूप में काम करने वाले मैंग्रोव काफी कम हो जाएंगे. मैनग्रोव के सर्वाइकल के लिए जरूरी अनुकूल वातावरण में तेजी से गिरावट के कारण लगभग 50% भारतीय मैंग्रोव विशेष रूप से दक्षिण व पूर्वी भारत के तटों पर कम हो जाएंगे. यह तथ्य बीरबल साहनी पुरावनस्पति संस्थान (बीएसआईपी) में हुए एक शोध में सामने आया है.
देश के दक्षिण-पश्चिम और दक्षिण-पूर्व में फैले मैंग्रोव जिन पर चार राज्यों कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल व आंध्र प्रदेश के तटीय इलाकों में मौजूद मैंग्रोव के पौधों पर ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक असर देखने को मिलेगा. जिसके कारण इन राज्यों के तटरेखा जलमग्न हो जाएगी तथा अन्य क्षेत्रों की तुलना में समुद्र तट पर मैंग्रोव नष्ट हो जाएगा. देश के कुछ क्षेत्रों जैसे चिल्का और सुंदरवन के साथ ईस्ट कोस्ट द्वारका एंड पोरबंदर क्षेत्रों में इसका कम असर देखने को मिलेगा. इन तटीय क्षेत्रों पर देश के दूसरे तटीय क्षेत्रों में विकसित हुए मैंग्रोव पर वातावरण में परिवर्तन का कम असर देखने को मिलेगा.
बीरबल साहनी पुरावनस्पति संस्थान (Birbal Sahni Institute of Palaeography) की वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. ज्योति श्रीवास्तव (Senior Scientist Dr. Jyoti Srivastava) के नेतृत्व में पांच अनुसंधानकर्ताओं की एक टीम ने दो मैंग्रोव प्रजातियों अर्थात रेजोफोरा मुक्रोनाटा और एवसेंनिया अफसोनालिस (Rhizophora mucronata and Evsenia afsonalis) पर शोध किया है. डॉक्टर ज्योति श्रीवास्तव ने बताया कि मैंग्रोव किए यह दोनों प्रजाति भारतीय समुद्री तटों पर सबसे अधिक मात्रा में पाई जाती हैं. हमारे अध्ययन में हमने भारतीय समुद्र तटों पर मुख्य रूप से पाए जाने वाली दो मैंग्रोव प्रजातियों को लिया और इसके बाद हमने पिछले, वर्तमान और भविष्य के जलवायु परिवर्तन के परिदृश्य में इन पौधों की प्रजातियों के वितरण का खाका तैयार किया. वैज्ञानिकों ने सबसे पहले उपलब्ध मैंग्रोव जीवाश्मों के सभी अभिलेखों को एकत्रित किया. जिसमें लगभग 6,000 वर्ष पहले की दो प्रजातियों के पराग अभिलेखों का संग्रह था, ताकि पता चल सके कि ये प्रजातियां कैसे जीवित रहीं और उनका वितरण कैसा रहा.
वैज्ञानिकों ने विगत जलवायु के आंकड़ों की सहायता से इन दोनों प्रजातियों वितरण का प्रारूप बनाया और अनेक तकनीकों द्वारा इसे सत्यापित किया. रिसर्च के दौरान मॉडल प्रोजेक्शन और पिछले रिकॉर्ड के आधार पर पाया गया कि दोनों मैंग्रोव जाति ने भारतीय समुद्र तट में तुलनात्मक रूप से विस्तृत वितरण किया था और अच्छी तरह से विकसित हो रही थी. इसके बाद टीम ने इसकी तुलना गोदावरी, कावेरी तथा महानदी डेल्टा के साथ मैंग्रोव क्षेत्रों में किए गए क्षेत्रीय सर्वेक्षणों के जरिए की. जलवायु परिवर्तन की स्थिति के मद्देनजर वर्तमान और पिछले आंकड़ों का विश्लेषण करने के बाद वैज्ञानिकों ने पाया कि वर्तमान समय में मैंग्रोव नुकसान हो रहा है. इसके आधार पर बीएसआईपी की टीम ने भविष्य में होने वाले कई जलवायु परिवर्तन परिदृश्य आंकड़ें का इस्तेमाल करते हुए भविष्य में मैनग्रोव वितरण की कल्पना की. जिसमें दर्शाया गया था कि 2070 में बड़े हुए ग्लोबल वार्मिंग के कारण लगभग 50% मैंग्रोव का समुद्र तट से विलुप्त हो जाएगा या वहां से स्थानांतरित हो जाएगा.
डॉ ज्योति श्रीवास्तव (Dr. Jyoti Srivastava) ने बताया कि वर्तमान समय की तुलना में मैंग्रोव में गिरावट का कारण तापमान में वृद्धि के साथ वर्षण में गिरावट है. तापमान घटने से तट रेखा पर पानी की अत्यधिक खारा होने लगता है जिससे मैनग्रोव अति संवेदनशील हो जाते हैं. "हमने इन दो मैंग्रोव प्रजातियों को अनुसंधान के लिए ले लिया क्योंकि वे सबसे प्रबल प्रजातियों में से हैं. जो हमारे तटीय रेखा को प्राकृतिक आपदाओं जैसे चक्रवात और सुनामी के दौरान नष्ट होने से बचाती हैं. यदि बढ़ते हुए ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के कारण उनकी कमी हो गई तो प्राकृतिक अवसंरचना, जो हमारे तटीय क्षेत्रों और गांवों के लिए रक्षा करती है, बह जाएगी. ऐसे में ये मैंग्रोव भी सामाजिक-आर्थिक महत्व के हैं, क्योंकि ये तटीय क्षेत्रों के लोगों को काफी प्राकृतिक सुविधाएं मुहैया कराती हैं. बीएसआईपी के अध्ययन में मैंग्रोव के संरक्षण और प्रबंधन के बारे में जानकारी दी गई है.
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