लखनऊः लगातार खिसकती सियासी जमीन के बीच बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की मुखिया मायावती ने अगले वर्ष होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अकेले उतरने का फैसला कर राजनीतिक गलियारे में गर्मी बढ़ा दी है. क्योंकि वर्ष 2007 के बाद से बसपा का जनाधार लगातार कम होता जा रहा है. यही वजह है कि उनका किसी दल के साथ गठबंधन में ही चुनाव लड़ना तय माना जा रहा था. क्याोंकि, वर्ष 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में तो आश्चर्यजनक रूप से उन्होंने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन कर लिया था. यह बात और है कि चुनाव परिणाम के बाद बुआ-भतीजे (मायावती और अखिलेश यादव) की जोड़ी एक-दूसरे को हार का जिम्मेदार ठहराती नजर आई थी और चुनाव बाद यह गठबंधन टूट गया. इस बार मायावती ने जिस तरह पंजाब में शिरोमणि अकाली दल के साथ गठबंधन किया था, उसके बाद सभी को यूपी विधानसभा चुनाव के लिए मायावती के ऐलान का इंतजार भी था और संभावना भी जाहिर की जा रही थी कि वह किसी दल के साथ मिलकर चुनावी मैदान में उतरेंगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. सपा-बसपा के बीच वर्ष 1993 में यूपी विधानसभा चुनाव गठबंधन में लड़ा गया था, लेकिन गेस्ट हाउस कांड के बाद यह गठबंधन टूट गया था.
राजनीतिक गलियारे में बड़ा संदेश देने की कोशिश
अगले वर्ष होने वाले यूपी विधानसभा चुनाव में मायावती के 'एकला चलो रे' राजनीति के जानकार बड़ा कदम मान रहे हैं. राजनीतिक विश्लेषक व दलित चिंतक प्रोफेसर रविकांत कहते हैं कि मायावती के लिए चुनाव पूर्व गठबंधन कभी फायदेमंद नहीं रहा. वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान उन्होंने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन किया था, लेकिन अपेक्षित फायदा नहीं मिला. 1995 में चुनाव के बाद भाजपा के समर्थन से उनकी सरकार बनी थी. प्रो. रविकांत कहते हैं कि मायावती वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में अकेले चुनाव मैदान में उतरीं तो उन्हें सिर्फ 19 सीटें ही मिलीं थीं. बीजेपी के प्रतिशत सॉफ्ट कॉर्नर के चलते मुस्लिम वोट बैंक उनसे दूर हुआ और दलित वोट बैंक भी भारतीय जनता पार्टी के साथ काफी हद तक शिफ्ट हो गया.
बहुजन समाज पार्टी के महासचिव सतीशचंद्र मिश्रा कहते हैं कि हमारे कार्यकर्ता पूरी तरह से तैयार हैं और पूरे जोश में हैं. वह कहते हैं कि हमारी पार्टी की मुखिया मायावती ने अपने पार्टी संगठन को बूथ स्तर तक मजबूत करने और कैडर के लोगों को हर स्तर पर चुनाव के लिए अभी से तैयार रहने को कहा है. साथ ही उन्हें चुनाव में जीत का मूल मंत्र देने की रणनीति भी बनानी शुरू कर दी है. हम संगठन को धरातल से और मजबूत करने में जुट गए हैं और 2022 में पूर्ण बहुमत से सरकार बनाएंगे. पार्टी संगठन के बड़े नेताओं को अलग-अलग मंडल की जिम्मेदारी भी दी जा रही है.
इससे पहले भी नेताओं को जिम्मेदारी दी जा चुकी है
पार्टी नेता बताते हैं कि पार्टी कार्यकर्ताओं को 'बूथ जीतो' का मंत्र दिया जा रहा है. इसके साथ ही मायावती का अधिक फोकस 2007 के विधानसभा चुनाव की तरह सोशल इंजीनियरिंग पर भी है. सोशल इंजीनियरिंग के तहत वे अपने आधार वोट बैंक के साथ-साथ ब्राह्मणों को भी साधने की कोशिश करेंगी. पंचायत चुनाव में ब्राह्मणों को पंचायत सदस्य के टिकट प्रत्येक विधानसभा स्तर पर आरक्षित करने का काम किया था.
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सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले पर टिकटों का होगा वितरण
प्रो. रविकांत कहते हैं कि जहां तक मेरी समझ है कि बसपा विधानसभा चुनाव के लिए टिकटों के बंटवारे में भी सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला अपनाएगी, जिससे उनकी सत्ता में वापसी का मकसद पूरा हो सके. मायावती दलित, ब्राह्मण, अति पिछड़ा, मुस्लिम समीकरण को साधने पर जोर दे रही हैं. दलित, ब्राह्मण, अति पिछड़े, मुस्लिम बिरादरी के चेहरों को चुनाव मैदान में उतार कर सोशल इंजीनियर के सहारे सत्ता की कुर्सी पर काबिज होने का मायावती सपना देख रहीं हैं. मायावती ने जिस प्रकार से 2007 के विधानसभा चुनाव में सोशल इंजीनियर के फार्मूले को लागू किया था, ठीक वैसा ही कुछ वे 2022 के चुनाव में करना चाह रही हैं. यही कारण है उन्होंने यूपी में 'एकला चलो' की राह पर चलते हुए अकेले चुनाव मैदान में उतरने का फैसला किया है और उसी के अनुसार अपनी रणनीति बना रही हैं.
पुराने नेताओं को साथ लाना और जनाधार बढ़ाना है चुनौती
राजनीतिक विश्लेषक प्रो. रविकांत कहते हैं कि वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव में अकेले लड़ने के एलान के साथ ही मायावती के सामने कई तरह की चुनौतियां भी होंगी. मुख्य रूप से पार्टी के पुराने नेताओं को साथ लाना और संगठन को बूथ तक मजबूत करना और पार्टी का जनाधार बढ़ाना उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी. बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती हाल के कुछ वर्षों में लालजी वर्मा और रामअचल राजभर समेत पार्टी के अनेक बड़े नेताओं को बाहर का रास्ता दिखा चुकी हैं. ऐसे में उन नेताओं के बराबर पार्टी के कैडर वाले लोगों को महत्व देना और पार्टी संगठन को बूथ स्तर तक मजबूत करके वोट बैंक मजबूत करना यह बड़ी चुनौती रहेगी. देखना यह दिलचस्प होगा कि मायावती इस चुनौती को किस प्रकार से अवसर में बदलती हैं.
बसपा का पिछले कुछ विधानसभा चुनाव में प्रदर्शन
- 1991 में 386 सीटों पर चुनाव लड़ी और 12 जीती, वोट प्रतिशत 9.44
- 1993 में 164 पर चुनाव लड़ी और 67 जीती, वोट प्रतिशत 11.12
- 1996 में 296 सीटों पर चुनाव लड़ी और 67 जीती, वोट प्रतिशत 19.64
- 2002 में 401 पर चुनाव लड़ी और 98 जीती, वोट प्रतिशत 23.06
- 2007 में 403 सीटों पर चुनाव लड़ी और 206 जीती, वोट प्रतिशत 30.43
- 2012 में 403 सीटों पर चुनाव लड़ी और 80 जीती, वोट प्रतिशत 25.91
- 2017 में 403 पर चुनाव लड़ी और 19 जीती, वोट प्रतिशत 22.2
धुर विरोधी पार्टी सपा से समझौता भी फायदेमंद नहीं रहा
2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान मायावती ने एक बड़े राजनीतिक घटनाक्रम को अंजाम दिया. अपनी धुर विरोधी समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन का दांव चल दिया. गठबंधन में भले ही मायावती को अधिक सीट न मिली हों, लेकिन समाजवादी पार्टी का जो आधार वोट बैंक था, वह जरूर मायावती के साथ आया और 2019 के लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को 10 सीटों पर संतोष करना पड़ा. बसपा का मानना था कि सपा के साथ आने से उन्हें मुसलमान वोट नहीं मिला. चुनाव परिणाम के ठीक बाद मायावती ने फिर कभी सपा के साथ गठबंधन न करने की बात कही थी और इससे हुए सियासी नुकसान की बात भी कही थी.
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मायावती को संगठन मजबूती की चिंता तो नेताओं को संभालना है बड़ी मुश्किल
बहुजन समाज पार्टी 2022 के विधानसभा चुनाव को लेकर अपने संगठन को धरातल तक मजबूत करने को लेकर एक तरफ जहां सक्रिय हैं, वहीं कैसे अपनी पार्टी के नेताओं को बचाकर उनका चुनाव में उपयोग किया जा सके उसको लेकर उनका चिंतित होना भी स्वाभाविक है. बहुजन समाज पार्टी में लगातार उठापटक जारी है और पिछले काफी समय से नेता बसपा से दूर हो रहे हैं.
हंग एसेंबली की स्थिति में मायावती निभा सकती हैं बड़ी भूमिका
प्रो. रविकांत कहते हैं कि मुझे तो लगता है कि मायावती पोस्ट पोल की संभावनाएं देख रही हैं. हंग असेंबली के लिए स्थिति बने और उसमें मायावती को मुख्यमंत्री बनने का अवसर मिले. यह एक रणनीति हो सकती है चुनाव से पहले किसी दल के साथ गठबंधन न करने को लेकर. रविकांत कहते हैं कि मायावती 2007 के विधानसभा चुनाव की तरह सोशल इंजीनियरिंग के फार्मूले पर चुनाव लड़ें और उसी के अनुरूप टिकटों का बंटवारा करें, लेकिन यह जब होगा तब पता चलेगा. अपने आधार वोट बैंक दलित के साथ ब्राह्मण व अति पिछड़े कार्ड के सहारे चुनाव मैदान में जाने की कोशिश कर सकती हैं और दलित वोट बैंक है उसे संभालने की कवायद जरूर करेंगी.