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यादों में अटल हैं वाजपेयी...

25 दिसंबर को भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती है. आज अटल बिहारी जीवित होते तो 96 साल के होते. 25 दिसंबर 1924 में जन्में वाजपेयी हमारे बीच नहीं हैं मगर लखनऊवासियों की यादों में वह आज भी अटल हैं.

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यादों में अटल हैं वाजपेयी
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Published : Dec 25, 2020, 1:02 AM IST

लखनऊ :अटल बिहारी वाजपेयी, भारतीय राजनीति का ऐसा नाम, जो न सिर्फ अपने उसूलों पर अटल रहे, बल्कि अपने समकालीन राजनेताओं को भी वैचारिक वैमनस्यता को दूर रख सरल और उदार राजनीति की सीख दी. अटल बिहारी भारतीय राजनीति के उन चुने हुए कद्दावर राजनेताओं में शुमार रहे, जिन्हें सभी ने सराहा. क्या पक्ष और क्या विपक्ष, जिसने अटल को जाना, जिसने उनकी राजनीति को समझा, वह उनका मुरीद बन गया.

यादों में अटल हैं वाजपेयी

भारत के 11वें प्रधानमंत्री अटल बिहारी ने सड़क से संसद तक की राजनीति 5 दशकों तक की . इन दशकों में कई ऐसे मौके आए, जिसे उन्होंने अपने ओजस्वी वाणी से यादगार बना दिया. 27 मई 1996 के विश्वास प्रस्ताव हो या 1980 में भारतीय जनता पार्टी की स्थापना के दौरान दिया गया भाषण हो. उनकी हर लाइन भारत की राजनीति के लिए सही भविष्यवाणी ही साबित हुई. इस महान शख्सियत का उत्तरप्रदेश से गहरा नाता रहा. वर्ष 1952 में अटल बिहारी वाजपेयी ने पहली बार लखनऊ लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा, पर सफलता नहीं मिली. वे उत्तरप्रदेश की एक लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में उतरे थे, जहां उन्हें हार का सामना करना पड़ा था.

अटल बिहारी वाजपेयी को पहली बार लोकसभा चुनाव में सफलता 1957 में मिली थी. 1957 में भारतीय जनसंघ ने उन्हें तीन लोकसभा सीटों लखनऊ, मथुरा और बलरामपुर से उम्मीदवार बनाया. लखनऊ में वह चुनाव हार गए, मथुरा में तो उनकी ज़मानत जब्त हो गई, लेकिन बलरामपुर से चुनाव जीतकर वह लोकसभा पहुंचे. इसके बाद वह ग्वालियर से सांसद बने. मगर वक्त का पहिया घूमा. 1991 में अटल बिहारी दोबारा लखनऊ पहुंचे. आम चुनाव में लखनऊ से शानदार जीत दर्ज की. इसके बाद तो अटल जब तक चुनावी राजनीति में रहे. लखनवी ही रहे. 1996 में अटल लखनऊ और गांधीनगर दोनों सीटों से विजयी हुए. मगर जब सीट चुनने की बारी आई तो लखनऊ को चुना. उन्होंने गांधीनगर से इस्तीफा दे दिया. वह लगातार 1991 से 2009 तक लखनऊ से सांसद रहे. दसवीं लोकसभा से 15 वीं लोकसभा तक.

जिस क्षेत्र के सांसद अटल जैसे राजनेता रहे हों, वहां उनके प्रशंसक होंगे ही. आज बीजेपी के पदाधिकारी, (जो कभी पार्टी के कार्यकर्ता रहे) अटलजी के साथ हर मुलाकात को संजोकर रखना चाहते हैं.

लखनऊ की तहजीब से मेल खाती थी अटल की शख्सियत

"लखनऊ की जो मान्यता पूरे विश्व में है, वही शैली मुझे अटल बिहारी वाजपेयी में नजर आती थी. जिस विनम्रता से, जिस शालीनता से, जितने प्यार और स्नेह से वो लोगों और कार्यकर्ताओं से मिलते थे और लोगों का दिल जीत लिया करते थे. उसका परिणाम मोहसिन रजा आपके सामने है. मैं उनके विचारों से प्रभावित होकर भाजपा के लिए काम करना शुरू किया. वह मेरे राजनीतिक गुरु थे. उनका व्यक्तित्व लखनऊ की शैली से बिल्कुल मैच करता हुआ था, इसलिए आज हम अटल जी को बहुत मिस करते हैं."

- मोहसिन रजा, अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री, उत्तर प्रदेश

अटल की भाव भंगिमा को समझना आसान नहीं था. भाजपा के प्रवक्ता हीरो वाजपेयी पूर्व प्रधानमंत्री से जुड़ा एक वाकया बताते हैं.

"अटल जी प्रधानमंत्री रहते राजभवन आए. हमारे यहां के विधायकों, अध्यक्ष, महामंत्री से मिलना था. जब तक अटलजी नहीं पहुंचे थे तब तक राज भवन में बैठे सभी लोगों ने बहुत चर्चाएं कीं. जब तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह, लालजी टंडन, कलराज मिश्र, ओम प्रकाश सिंह और अपने निजी सहयोगी शिव कुमार के साथ अटल जी राजभवन पहुंचे तो वे सभी लोग चुप हो गए. राजनाथ जी ने मुझसे सबका परिचय कराने को कहा. तब मैंने सिर्फ अपना (उस समय के नगर महामंत्री) का परिचय कराया. अटल जी के पैरों के बगल में बैठ गया. फोटो खींची गई, काम खत्म हो गया. अटल जी ने कहा ठीक और चल दिए. इसके बाद यह सब लोग मुझसे लड़ने लगे कि मेरा परिचय क्यों नहीं कराया. कहने का मतलब यह है कि अटल जी की भाव भंगिमा थी, वह अपने इशारों में, अपनी आंखों से बहुत कुछ बात कर लिया करते थे."

- हीरो वाजपेयी, बीजेपी प्रवक्ता

वरिष्ठ पत्रकार पी एन द्विवेदी उन्हें एक जर्नलिस्ट के तौर पर याद करते हैं, जिन्होंने लखनऊ से राष्ट्रधर्म और पांचजन्य जैसे पत्रिका का संपादन किया.

"अटल जी बहुत लगन से काम करते थे. कई बार साइकिल पर ही पत्रिका लेकर चारबाग पहुंच जाते थे. अटल जी जनसंघ से संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ जम्मू कश्मीर गए. इसी के साथ धीरे-धीरे उनका पदार्पण राजनीति में शुरू हुआ. 1953 की बात है. उस समय जम्मू एवं कश्मीर में बाहर का व्यक्ति नहीं जा सकता था. उसे परमिशन लेनी पड़ती थी. उस परमिट व्यवस्था का विरोध करते हुए तत्कालीन जनसंघ के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी वहां गए थे. एक पत्रकार की हैसियत से अटल बिहारी वाजपेयी भी उनके कार्यक्रम का कवरेज करने गए थे. वहां जम्मू-कश्मीर में मुखर्जी गिरफ्तार हो गए. गिरफ्तारी के बाद अटलजी जब वापस आने लगे तब मुखर्जी ने कहा कि जाइए! पूरी दुनिया को बता दीजिए कि परमिट व्यवस्था का विरोध करते हुए मैं श्रीनगर पहुंच गया हूं. वहां से अटल जी आए. इसके बाद राजनीतिक कैरियर शुरू हो गया."

पी एन द्विवेदी, वरिष्ठ पत्रकार

आज देश अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती मना रहा है. हम इस तेजस्वी व्यक्तित्व के लिए इतना ही कहेंगे कि अटल के लखनऊ में लोग आज भी याद करते हैं लखनऊ के अटल को. एक अपना सा नेता. जो पूरे देश का हो गया.

लखनऊ :अटल बिहारी वाजपेयी, भारतीय राजनीति का ऐसा नाम, जो न सिर्फ अपने उसूलों पर अटल रहे, बल्कि अपने समकालीन राजनेताओं को भी वैचारिक वैमनस्यता को दूर रख सरल और उदार राजनीति की सीख दी. अटल बिहारी भारतीय राजनीति के उन चुने हुए कद्दावर राजनेताओं में शुमार रहे, जिन्हें सभी ने सराहा. क्या पक्ष और क्या विपक्ष, जिसने अटल को जाना, जिसने उनकी राजनीति को समझा, वह उनका मुरीद बन गया.

यादों में अटल हैं वाजपेयी

भारत के 11वें प्रधानमंत्री अटल बिहारी ने सड़क से संसद तक की राजनीति 5 दशकों तक की . इन दशकों में कई ऐसे मौके आए, जिसे उन्होंने अपने ओजस्वी वाणी से यादगार बना दिया. 27 मई 1996 के विश्वास प्रस्ताव हो या 1980 में भारतीय जनता पार्टी की स्थापना के दौरान दिया गया भाषण हो. उनकी हर लाइन भारत की राजनीति के लिए सही भविष्यवाणी ही साबित हुई. इस महान शख्सियत का उत्तरप्रदेश से गहरा नाता रहा. वर्ष 1952 में अटल बिहारी वाजपेयी ने पहली बार लखनऊ लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा, पर सफलता नहीं मिली. वे उत्तरप्रदेश की एक लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में उतरे थे, जहां उन्हें हार का सामना करना पड़ा था.

अटल बिहारी वाजपेयी को पहली बार लोकसभा चुनाव में सफलता 1957 में मिली थी. 1957 में भारतीय जनसंघ ने उन्हें तीन लोकसभा सीटों लखनऊ, मथुरा और बलरामपुर से उम्मीदवार बनाया. लखनऊ में वह चुनाव हार गए, मथुरा में तो उनकी ज़मानत जब्त हो गई, लेकिन बलरामपुर से चुनाव जीतकर वह लोकसभा पहुंचे. इसके बाद वह ग्वालियर से सांसद बने. मगर वक्त का पहिया घूमा. 1991 में अटल बिहारी दोबारा लखनऊ पहुंचे. आम चुनाव में लखनऊ से शानदार जीत दर्ज की. इसके बाद तो अटल जब तक चुनावी राजनीति में रहे. लखनवी ही रहे. 1996 में अटल लखनऊ और गांधीनगर दोनों सीटों से विजयी हुए. मगर जब सीट चुनने की बारी आई तो लखनऊ को चुना. उन्होंने गांधीनगर से इस्तीफा दे दिया. वह लगातार 1991 से 2009 तक लखनऊ से सांसद रहे. दसवीं लोकसभा से 15 वीं लोकसभा तक.

जिस क्षेत्र के सांसद अटल जैसे राजनेता रहे हों, वहां उनके प्रशंसक होंगे ही. आज बीजेपी के पदाधिकारी, (जो कभी पार्टी के कार्यकर्ता रहे) अटलजी के साथ हर मुलाकात को संजोकर रखना चाहते हैं.

लखनऊ की तहजीब से मेल खाती थी अटल की शख्सियत

"लखनऊ की जो मान्यता पूरे विश्व में है, वही शैली मुझे अटल बिहारी वाजपेयी में नजर आती थी. जिस विनम्रता से, जिस शालीनता से, जितने प्यार और स्नेह से वो लोगों और कार्यकर्ताओं से मिलते थे और लोगों का दिल जीत लिया करते थे. उसका परिणाम मोहसिन रजा आपके सामने है. मैं उनके विचारों से प्रभावित होकर भाजपा के लिए काम करना शुरू किया. वह मेरे राजनीतिक गुरु थे. उनका व्यक्तित्व लखनऊ की शैली से बिल्कुल मैच करता हुआ था, इसलिए आज हम अटल जी को बहुत मिस करते हैं."

- मोहसिन रजा, अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री, उत्तर प्रदेश

अटल की भाव भंगिमा को समझना आसान नहीं था. भाजपा के प्रवक्ता हीरो वाजपेयी पूर्व प्रधानमंत्री से जुड़ा एक वाकया बताते हैं.

"अटल जी प्रधानमंत्री रहते राजभवन आए. हमारे यहां के विधायकों, अध्यक्ष, महामंत्री से मिलना था. जब तक अटलजी नहीं पहुंचे थे तब तक राज भवन में बैठे सभी लोगों ने बहुत चर्चाएं कीं. जब तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह, लालजी टंडन, कलराज मिश्र, ओम प्रकाश सिंह और अपने निजी सहयोगी शिव कुमार के साथ अटल जी राजभवन पहुंचे तो वे सभी लोग चुप हो गए. राजनाथ जी ने मुझसे सबका परिचय कराने को कहा. तब मैंने सिर्फ अपना (उस समय के नगर महामंत्री) का परिचय कराया. अटल जी के पैरों के बगल में बैठ गया. फोटो खींची गई, काम खत्म हो गया. अटल जी ने कहा ठीक और चल दिए. इसके बाद यह सब लोग मुझसे लड़ने लगे कि मेरा परिचय क्यों नहीं कराया. कहने का मतलब यह है कि अटल जी की भाव भंगिमा थी, वह अपने इशारों में, अपनी आंखों से बहुत कुछ बात कर लिया करते थे."

- हीरो वाजपेयी, बीजेपी प्रवक्ता

वरिष्ठ पत्रकार पी एन द्विवेदी उन्हें एक जर्नलिस्ट के तौर पर याद करते हैं, जिन्होंने लखनऊ से राष्ट्रधर्म और पांचजन्य जैसे पत्रिका का संपादन किया.

"अटल जी बहुत लगन से काम करते थे. कई बार साइकिल पर ही पत्रिका लेकर चारबाग पहुंच जाते थे. अटल जी जनसंघ से संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ जम्मू कश्मीर गए. इसी के साथ धीरे-धीरे उनका पदार्पण राजनीति में शुरू हुआ. 1953 की बात है. उस समय जम्मू एवं कश्मीर में बाहर का व्यक्ति नहीं जा सकता था. उसे परमिशन लेनी पड़ती थी. उस परमिट व्यवस्था का विरोध करते हुए तत्कालीन जनसंघ के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी वहां गए थे. एक पत्रकार की हैसियत से अटल बिहारी वाजपेयी भी उनके कार्यक्रम का कवरेज करने गए थे. वहां जम्मू-कश्मीर में मुखर्जी गिरफ्तार हो गए. गिरफ्तारी के बाद अटलजी जब वापस आने लगे तब मुखर्जी ने कहा कि जाइए! पूरी दुनिया को बता दीजिए कि परमिट व्यवस्था का विरोध करते हुए मैं श्रीनगर पहुंच गया हूं. वहां से अटल जी आए. इसके बाद राजनीतिक कैरियर शुरू हो गया."

पी एन द्विवेदी, वरिष्ठ पत्रकार

आज देश अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती मना रहा है. हम इस तेजस्वी व्यक्तित्व के लिए इतना ही कहेंगे कि अटल के लखनऊ में लोग आज भी याद करते हैं लखनऊ के अटल को. एक अपना सा नेता. जो पूरे देश का हो गया.

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