लखनऊ: इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच (Allahabad High Court Lucknow Bench) ने एक आपराधिक मामले पर निर्णय देते हुए स्पष्ट किया है कि मजिस्ट्रेट को सेशन ट्रायल केस में भी जमानत देने की शक्ति है. न्यायालय ने कहा है कि दंड प्रक्रिया संहिता के प्रावधान मजिस्ट्रेट को सेशन ट्रायल केस में जमानत देने से नहीं रोकते.
यह निर्णय न्यायमूर्ति सुभाष विद्यार्थी की एकल पीठ ने राम प्रेम और पांच अन्य याचियों की जमानत याचिका पर पारित किया. याचियों की ओर से दलील दी गई कि वे लखनऊ के नगराम थाने में गैर इरादतन हत्या के प्रयास, मारपीट और गृह अतिचार इत्यादि आरोपों में दर्ज मामले में अभियुक्त हैं. कहा गया कि उन पर लगाई गई सभी धाराओं में अधिकतम सजा सात वर्ष की है. याचियों की ओर से यह भी दलील दी गई कि उनमें से चार अभियुक्त 6 मई 2021 से ही जेल में हैं.
मामले की सुनवाई के दौरान न्यायालय ने पाया कि अभियुक्तों को मजिस्ट्रेट कोर्ट और सत्र अदालत से जमानत से इंकार कर दिया गया. न्यायालय ने पाया कि मजिस्ट्रेट द्वारा अभियुक्तों के जमानत प्रार्थना पत्र को अस्वीकार करते हुए कहा गया कि चूंकि उन पर लगी धाराएं गैर जमानती हैं और सत्र अदालत द्वारा परीक्षण योग्य हैं. लिहाजा उन्हें जमानत नहीं दी जा सकती. न्यायालय ने मजिस्ट्रेट द्वारा जमानत प्रार्थना पत्र को खारिज किए जाने के उपरोक्त आधारों से असहमति प्रकट करते हुए कहा कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 437 जिसके तहत मजिस्ट्रेट को जमानत देने की शक्ति प्राप्त (magistrate can grant bail in session trial case) है. वह गैर जमानती मामलों में जमानत देने का ही प्रावधान करती है.
न्यायालय ने आगे कहा कि मजिस्ट्रेट के समक्ष जमानत के लिए आया मामला सत्र अदालत द्वारा परीक्षणीय है. इस आधार पर मजिस्ट्रेट द्वारा जमानत न देना भी वैध आधार नहीं है. न्यायालय ने धारा 437 को स्पष्ट करते हुए कहा कि मजिस्ट्रेट सिर्फ उन मामलों में जमानत नहीं दे सकता, जिनमें उम्र कैद अथवा मृत्यु की सजा का प्रावधान हो.
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