गोरखपुर: स्वच्छता अभियान को लेकर भले ही करोड़ों के अभियान चलाए जा रहे हों, फिल्में बन रही हों, फिरभी व्यवस्था में सुधार की उम्मीद नजर आती नहीं दिख रही. खासकर तब जब सरकारी अमले से संचालित होने वाले इस अभियान में ही लापरवाही बरती जा रही हो तो इसकी सफलता पर और भी सवाल खड़े होते हैं. बात करें गोरखपुर की तो मौजूदा समय में यह सीएम सिटी का तमगा लिए हुए है. लेकिन इसके जिस भी चौराहे पर सार्वजनिक शौचालय/टॉयलेट बने हुए हैं, वह गंदगी से पटे हैं. महिलाओं के लिए अलग से जो शौचालय हैं उनमें दरवाजे भी नहीं हैं. इनकी सफाई को लेकर भी नगर निगम प्रशासन सतर्क नहीं है. यही वजह है कि तमाम कमियों को दर्शाते हुए ऐसे टॉयलेट्स खुलेआम भरी भीड़ के बीच लोगों के लिए शर्मिंदगी और दुर्गंध का कारण बन रहे हैं.
बात करें नगर निगम के अधीन शहर में संचालित होने वाले सामुदायिक शौचालयों की तो पुरुषों के लिए इसकी संख्या 576 है और महिलाओं के लिए यह 423. जबकि यूरिनल 110 हैं. लेकिन व्यवस्था बद से बदतर है. यूरिनल में पानी का इंतजाम नहीं है, जिससे इसके उपयोगकर्ता को कई तरह के इंफेक्शन होने की आशंका बनी रहती है. वहीं पंचायती राज के आंकड़ों को अगर शामिल किया जाए तो जिले में कुल 6 लाख 50 हजार टॉयलेट बनाए गए हैं. इनकी सफाई के लिए कुल 3052 कर्मचारी तैनात किए गए हैं और 1248 सामुदायिक टॉयलेट हैं, फिर भी स्वच्छता अभियान इसपर खरा नहीं उतर रहा, जबकि इसके लिए करीब 700 करोड़ रुपए खर्च हुए हैं.
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शहर का व्यस्ततम बाजार गोलघर हो या इंदिरा बाल बिहार तिराहा. यूनिवर्सिटी चौक हो या जिला अस्पताल के दोनों तरफ के हिस्से. कलेक्ट्रेट और कमिश्नर आने वाले लोगों के लिए बनाए गए शौचालय सब व्यवस्था को बेपर्दा और इसको प्रयोग करने वालों को भी बेपर्दा करते हैं. जबकि जिम्मेदारों का इधर से भी बराबर गुजरना होता है. लेकिन वह ऐसी व्यवस्थाओं पर नजर नहीं दौड़ाते. यहां तक की ईटीवी भारत के सवालों का जवाब देना भी इस विषय पर नगर आयुक्त या नगर स्वास्थ्य अधिकारी उचित नहीं समझते. वह इस पर सिर्फ खामोश रहना ही अच्छा मानते हैं। उनकी नजर में जितने सफाई कर्मी हैं वह अपनी ड्यूटी निभा रहे हैं. गंदगी फैलाने का काम लोग ही करते हैं. जबकि वास्तविकता यह है कि इन शौचालयों में गंदगी फैलने के कारण इसके संचालन में व्यवस्था का अभाव है.
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