गोरखपुर: भारत के इतिहास में 26 जुलाई की तिथि 'कारगिल विजय दिवस' के रूप में मनाई जाती है. देश को यह अवसर तब मिला जब तमाम हमारे वीर सैनिकों ने, मां भारती की सेवा में अपने प्राणों की आहुति देते हुए दुश्मन की सेना का छक्के छुड़ाकर भारत का तिरंगा कारगिल की चोटी पर फहराया था. इस दिवस पर ऐसे रणबांकुरों को लोग श्रद्धांजलि और नमन करते हैं, जिन्होंने कारगिल विजय को अपनी अदम्य साहस, नेतृत्व से अमर बना दिया. ऐसे ही रणबांकुरों में एक थे गोरखपुर के लेफ्टिनेंट गौतम गुरुंग, जो दुश्मन के रॉकेट के हमले में घायल होने के बाद, अपने आठ साथियों को बचाने में शहीद हो गए थे.
ब्रिगेडियर पिता के इस जवान बेटे की शहादत को यादकर लोगों की आंखें नम हो जाती हैं. शहादत की पूर्व संध्या पर कैंडल जलाकर सेना से जुड़े हुए अधिकारी और भारत- नेपाल मैत्री संघ के लोग, इन्हें याद करते हैं तो, शहर के कूड़ाघाट तिराहे पर स्थापित इनकी प्रतिमा पर लोग माल्यार्पण व श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं. मौजूदा समय में इनके पिता और परिवार के लोग देहरादून में निवास करते हैं. जब इनकी शहादत हुई तो इनके पिता ब्रिगेडियर पीएस गुरुंग गोरखपुर में ही तैनात थे. उन्होंने अपने बेटे का शव बतौर ब्रिगेडियर रिसीव किया और फिर एक पिता के रूप में उन्होंने बेटे को मुखाग्नि दी थी.
अंत्येष्टि स्थल पर बहन ने बांधी थी अंतिम बार राखीः 5 अगस्त 1999 को हुई इस शहादत को लोग आज भी लोग भूले नहीं हैं. जब गौतम गुरुंग का पार्थिव शरीर गोरखपुर पहुंचा था तो उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए कई किलोमीटर लंबा जाम लग गया था. पुलिस प्रशासन को बैरिकेटिंग कराकर इनके अंतिम संस्कार की प्रक्रिया को पूर्ण करना पड़ा था. रक्षाबंधन के दिन गुरुंग का शव यहां आया था और जब इनकी इकलौती बहन अपने भाई की कलाई पर राखी बांधने अंत्येष्टि स्थल पर पहुंची तो यह दृश्य देखकर लोगों का कलेजा फट गया था और आंखें नम हो गई थीं.
इकलौते पुत्र थे गौतमः भारत नेपाल मैत्री संघ के अध्यक्ष अनिल गुप्ता बताते हैं कि अमर शहीद लेफ्टिनेंट गौतम गुरुंग अपनी पीढ़ी के तीसरी संतान थे जो सेना की सेवा कर रहे थे. वह नेपाल के मूल निवासी थे. उनका जन्म 23 अगस्त 1973 को हुआ था. उन्हें अपने पिता ब्रिगेडियर पीएस गुरुंग की बटालियन 34 में ही कमीशन प्राप्त हुआ था. 6 मार्च 1997 को गोरखा राइफल्स में कमीशन प्राप्त किए थे. गौतम गुरुंग की पहली नियुक्ति जून 1998 में जम्मू कश्मीर के तंगधार सेक्टर में हुई थी. 4 अगस्त 1999 को कारगिल युद्ध के बाद दुश्मन सेना की तरफ से इनके बंकर पर रॉकेट लांचर से हमला हो गया, जिसमें इनके कई साथी फंस गए और ये भी घायल हो चुके थे. लेकिन, इन्होंने अपने साथियों को बचाने की अदम्य साहस दिखाया.
पांच अगस्त 1999 को गौतम ने ली थी अंतिम सांसः कमर के नीचे पूरी तरह से छलनी हो चुके थे. फिर भी अपनी जान की परवाह किए बगैर साथियों को बचाने में लगे रहे. घायल अवस्था में उन्हें बेस कैंप लाया गया लेकिन, 5 अगस्त की सुबह वह शहीद हो गए. यह खबर जैसे ही गोरखपुर पहुंची तो लोग सिहर उठे. लेकिन, देश की सेना में प्राणों की आहुति देने पर लोगों ने इस लाल को सलाम भी किया. गौतम अपनी माता पिता के इकलौते पुत्र थे.
गौतम के पिता युवाओं को करते हैं सेना में भर्ती होने के लिए प्रेरितः हालांकि यह घटना कारगिल विजय के ठीक 10 दिन बाद घटी थी, लेकिन इसको उसी घटनाक्रम से जोड़कर देखा जाता है, जिसमें पाकिस्तान की बौखलाई सेना अपनी नापाक हरकत को अंजाम देती रही. 25 साल की उम्र में गौतम शहीद हो गए थे. 15 अगस्त 1999 को उन्हें राष्ट्रपति के आर नारायणन द्वारा मरणोपरांत सेना मेडल से सम्मानित किया गया. बेटे की शहादत को याद करते हुए उनके पिता देहरादून में रहकर आज भी युवाओं को सेना में जाने के लिए प्रेरित करते हैं और ट्रेनिंग देते हैं.