फर्रुखाबाद: आज बेटियां दुनिया के साथ कदम से कदम मिलाकर कामयाबी की इबारत लिख रही हैं. शहर में कई ऐसी बेटियां हैं, जो शक्ति का जीवंत प्रतीक हैं और प्रेरणा की मूरत. ये वही बेटियां हैं, जिनकी जिंदगी में कितने भी संघर्ष के दिन आएं, लेकिन वह कदम पीछे नहीं हटाती हैं. हम बात कर रहे हैं फतेहगढ़ के मोहल्ला ग्वालटोली के रहने वाले सच्चिदानंद कठेरिया की बेटियां अर्चना, प्रिया और संध्या की.
बता दें कि अर्चना, प्रिया और संध्या तीनों हॉकी खिलाड़ी हैं. इनके पिता सच्चिदानंद कठेरिया ठेला चलाकर परिवार का गुजर बसर कर रहे हैं तो हुनरमंद अर्चना, प्रिया और संध्या हॉकी में जौहर दिखाते हुए आगे बढ़ रही हैं. तीनों बहनें अपनी प्रतिभा के दम पर प्रदेश में ऑल इंडिया हॉकी टूर्नामेंट में मेडल जीत चुकी हैं. इन बेटियों को सामाजिक बंदियों से भी गुजरना पड़ा, लेकिन इनका हौसला नहीं डिगा और ये आगे बढ़ रही हैं. इनका सपना राष्ट्रीय महिला हॉकी टीम में शामिल होकर प्रदेश व देश का नाम रोशन करने का है.
रोजाना शाम को तीनों बहनें स्वर्गीय ब्रह्मदत्त द्विवेदी स्टेडियम में 3:30 बजे से अभ्यास करना शुरू कर देती हैं. घर की आर्थिक स्थिति ठीक न होने के बावजूद इनका जज्बा कम नहीं हुआ है. प्रिया पीडी महिला डिग्री कॉलेज से परास्नातक कर चुकी हैं तो अर्चना एमए प्रथम वर्ष में हैं. ईटीवी भारत से बातचीत में प्रिया और अर्चना ने बताया कि 2016 से उन्होंने हॉकी खेलना शुरू किया. अब तक प्रदेश स्तरीय हॉकी टूर्नामेंट में लखनऊ, गोरखपुर, इटावा, बांदा और हरदोई में प्रतिभाग कर चुकी हैं. इटावा में वर्ष 2017 व हरदोई में 2018 में इन्होंने सिल्वर मेडल जीते. 2018 में चंडीगढ़ व 2019 में पटियाला में हुए ऑल इंडिया सीनियर हॉकी टूर्नामेंट में प्रतिभाग किया.
प्रिया और अर्चना ने बताया कि जब उन लोगों ने हॉकी खेलना शुरू किया तो मोहल्ला वालों के साथ ही नाते रिश्तेदारों ने भी पापा को ताने देना शुरू कर दिया कि बेटियां बड़ी हो गई हैं. हॉकी खेलना इन्हें शोभा नहीं देता है. इनकी शादी कर देनी चाहिए. मोहल्ला वालों और नाते रिश्तेदारों के ताने सुनकर पापा भी टूट गए और शादी की सोचने लगे, लेकिन उन्होंने जब पापा को समझाया और खेल के क्षेत्र में आगे बढ़ने की बात कही तो वह मान गए.
कभी नहीं मिली कोई सुविधा
प्रिया और अर्चना बताती हैं कि हॉकी खेलने के दौरान जूते, स्टिक गेंद आदि के लिए किसी प्रकार की कोई मदद नहीं मिली. बाहर जब टूर्नामेंट खेलने जाते थे तो पापा पैसे देते थे. उसी में से रुपये बचा कर और स्कॉलरशिप से खेल सामग्री खरीदते थे. मदद के लिए कोई आगे नहीं आया. हालांकि प्रिया और अर्चना का कहना है कि अब जिंदगी में संघर्ष के कितने दिन भी आएं, उन्हें हॉकी स्टिक से शॉट बनाकर राष्ट्रीय फलक पर निशाना साधना है.