फर्रुखाबाद: जिले की कपड़ा कारखानों में छपने वाले शॉल और दुपट्टे दशकों से देश-दुनिया में छाए हैं, लेकिन कोरोना के चलते विदेशी व्यापार भी पूरी तरह से चौपट हो गया. बाद में लॉकडाउन में मिली छूट के बाद अचानक कपड़ा छपाई व्यवसाय दो माह तक गुलजार हुआ. कारोबार बढ़ने से व्यवसायियों के चेहरे पर खुशी लौट आई, लेकिन सप्ताह भर से अचानक शॉल व दुपट्टे की मांग के साथ रेट भी गिर गया. साथ ही कपड़े का भाव भी कम हो गया है. इसके चलते व्यवसायियों को उधार माल बेचना पड़ रहा है.
शहर व आसपास के गांव में करीब 200 से अधिक कपड़ा छपाई कारखाने हैं. हालांकि प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से मात्र 7 कारखानों को ही संचालन की अनुमति है, लेकिन सभी कारखानों में काम चल रहा है. लॉकडाउन की घोषणा के बाद कारखाने बंद हो गए और स्टॉक भी फंस गया. देश-विदेश से आने वाले सभी आर्डर कैंसिल हो गए. इसके बाद कामगारों से रोजगार छिन गया. लॉकडाउन खत्म होने के बाद कारखाने तो खुले, लेकिन इन कारखानों की रौनक अब तक नहीं लौटी है.
लॉकडाउन के बाद शहर के कारखानों में छपने वाली शॉल व दुपट्टे की इस कदर मांग हुई कि वर्षों पहले छपे कपड़े तक बिक गए. कारखाना मालिकों को ऑर्डर का कपड़ा छापने में कई-कई दिन लग रहे थे. दो मीटर की शॉल का कपड़ा 43 रुपये में ई-रोड से आता था. इसकी बिक्री 65 से 67 रुपये में होती थी. वही कपड़ा अब अचानक 38 का रह गया है, जबकि छपाई की गई शॉल की कीमत 58 से 60 रुपये तक हो गई है. दुपट्टा भी 60 की जगह 44 से 45 रुपये तक बिक रहा है. मांग अचानक कम होने से कारखाना मालिकों को उधार माल बेचना पड़ रहा है.
कारखाना मालिक अजय सिंह ने बताया कि लॉकडाउन में सबसे ज्यादा परेशानी का सामना करना पड़ा है. माल की डिमांड लगभग खत्म सी हो गई है. बाजार में 10 प्रतिशत से अधिक महंगे दामों पर कपड़ा, केमिकल आदि मिल रहा है. कपड़े के रेट तो बढ़ गए, लेकिन बाजार में बिक्री घट गई है.
कपड़ा छपाई का उद्योग वर्ष 1703 से चल रहा है. हालांकि इसका आधुनिकीकरण 1875 में आरंभ हुआ. बता दें कि श्यामलाल और जुगल किशोर साध ने यहां इसकी शुरुआत की थी. सिल्क की साड़ी और लिहाफ की छपाई के लिए मशहूर फर्रुखाबाद में इटावा, मैनपुरी, एटा, शाहजहांपुर, हरदोई से लोग आकर नौकरी करते थे.
वर्ष 1960 में फर्रुखाबाद में वस्त्रों पर लकड़ी के छापों की मदद से हाथ से ही छपाई और रंगाई का कार्य होता था. 1960 के बाद यह कार्य स्क्रीन पर होने लगा और धीरे-धीरे ब्लॉक प्रिंटिंग का काम सिमटता जा रहा है. 1980 के बाद निर्यात व्यवसाय का विस्तार हुआ. जैसे-जैसे इस व्यवसाय का विस्तार होता गया, कच्चे माल की दिक्कतें भी बढ़ती गईं. ट्रांसपोर्ट सुविधा न होने के चलते व्यापारी यहां आने में सकुचाने लगे.
जिले के छपे हुए स्कार्फ, स्टॉल, बेडशीट, टेबल कवर, रजाई, साड़ी, ड्रेस मैटेरियल को विदेशों में निर्यात किया जाता है. इसके अलावा दिल्ली, हरियाणा, रोहतक, पानीपत, जयपुर, बाराबंकी आदि शहरों से भी बड़ी डिमांड आती है. शहर की छपाई कारखानों में 10 हजार से अधिक लोगों को कारोबार मिलता है. घरों में महिलाएं भी कपड़ों की फिनिशिंग और दुपट्टे में गांठे बांधने का काम करती हैं, जबकि छपाई, रंगाई और धुलाई के साथ अन्य मशीनी काम पुरुष करते हैं.