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कूड़े के ढेर पर देश का 'भविष्य', सरकार से उम्मीद की आस - फर्रुखाबाद में बहुत से बच्चे नहीं जाते स्कूल

यूपी के फर्रुखाबाद में बहुत से ऐसे बच्चे हैं, जो स्कूल जाने की उम्र में कूड़ा बीन रहे हैं. इन बच्चों के परिजनों का कहना है कि सरकारी सुविधा नहीं मिलने के कारण उनका जीवन यापन मुश्किल हो गया है, ऐसे में बच्चों को स्कूल कैसे भेजें.

कूड़े के ढेर पर बचपन.
कूड़े के ढेर पर बचपन.
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Published : Aug 26, 2021, 7:16 PM IST

फर्रुखाबादः जिस उम्र में बस्ते का बोझ उठाना चाहिए, उस उम्र में बच्चे कबाड़ ढो रहे हैं. जिले की व्यवस्तम सड़कों के किनारे कंधे पर स्कूली बैग की जगह कबाड़ का भार उठाते बच्चे दिखते हैं. यह बच्चे कभी स्कूल नहीं गये. दूसरे बच्चों को स्कूल जाते देख इन बच्चों का स्कूल जाने का मन तो करता है लेकिन गरीबी इनको स्कूल जाने नहीं देती. यह मासूम बच्चे रोज सुबह से रात तक कबाड़ा बीनकर उसे बेंचते है और 2 वक्त की रोटी का इंतजाम करते है. शहर में ऐसे सैकड़ों मासूम बच्चे हैं जो अपने परिवार गरीबी और मजबूरी के चलते दो वक्त की रोटी कमाने के कूड़े के ढेर पर नजर आते हैं. मतदान का अधिकार होने के बाद भी इन बच्चों और उनके परिजनों को उनका मूल अधिकार आज तक नहीं मिल सका है.

कूड़े के ढेर पर बचपन.

इसी तरह मसेनी पर रहने वाले एक गरीब परिवार टूटी झोपड़ी में रहकर गुजारा करता है. इनकी झोपड़ी अब बारिश में टपक भी रही है. इस परिवार के बच्चे से लेकर बड़े तक कचरे से कबाड़ बीनते हैं. दिनभर कबाड़ एकत्रित करने के बाद बेंचकर अपना पेट पालते हैं. यहां रहे बच्चों को स्कूल तो जाना है लेकिन मजबूरी के चलते ये पेट भरने के लिए कूड़ा उठा रहे हैं.

कबाड़ बीनने वाले लोगों ने बताया कि दिनभर कबाड़ बीनकर बेचने से 100 या 200 रुपये मिलते हैं, जो पेट भरने के लिए ही कम पड़ते हैं. इतने पैसों में बच्चों को पढाएं या खाना खिलाएं, क्योंकि महंगाई बहुत बढ़ गई है. एक दो बार प्रयास किया कि बच्चों का एडमिशन करवा दें लेकिन कोई एडमिशन के लिए तैयार ही नहीं होता है. वह लोग कहते हैं कि कभी ये लाओ तो कभी वो लाओ. हमारे पास तो केवल आधार कार्ड ही है और हमारे पास कुछ भी नहीं है.

इसे भी पढ़ें-प्राथमिक विद्यालय का छज्जा व बीम भरभराकर गिरा, युवती की मौत

राशन कार्ड था वह भी हम लोगों का काट दिया गया है. पहले राशन कार्ड सरकारी लाभ मिल जाता था अब वह भी नहीं मिल रहा है. कोरोना काल में कुछ लोग राहत सामग्री जरूर देने आए उससे कुछ राहत जरूर मिली थी. कबाड़ बीनने वालों ने बताया कि हम लोगों से कोई काम भी नहीं करवाता था. कूड़ा बीनने जाते थे तो लोग मारते थे. जैसे तैसे कर्जा लेकर कोरोना काल में समय काटा है. अब उसका कर्ज भर रहे हैं.

कबाड़ा बीनने वालों ने बताया कि अगर सरकार उन्हें आवास दे दे तो उन्हें पनाह मिल जाएगी. हम लोगों के पास छत नहीं है, रोड पर कई तरीके के लोग निकलते हैं. लोग हमारी मड़ैया में घुसकर जाते हैं और हमारी पुलिस भी नहीं सुनती है. हम लोग दिनभर कबाड़ बेचने के बाद सौ दो रुपये के बीच ही कमा पाते है. जिससे खाना ही हो पाता है.

फर्रुखाबादः जिस उम्र में बस्ते का बोझ उठाना चाहिए, उस उम्र में बच्चे कबाड़ ढो रहे हैं. जिले की व्यवस्तम सड़कों के किनारे कंधे पर स्कूली बैग की जगह कबाड़ का भार उठाते बच्चे दिखते हैं. यह बच्चे कभी स्कूल नहीं गये. दूसरे बच्चों को स्कूल जाते देख इन बच्चों का स्कूल जाने का मन तो करता है लेकिन गरीबी इनको स्कूल जाने नहीं देती. यह मासूम बच्चे रोज सुबह से रात तक कबाड़ा बीनकर उसे बेंचते है और 2 वक्त की रोटी का इंतजाम करते है. शहर में ऐसे सैकड़ों मासूम बच्चे हैं जो अपने परिवार गरीबी और मजबूरी के चलते दो वक्त की रोटी कमाने के कूड़े के ढेर पर नजर आते हैं. मतदान का अधिकार होने के बाद भी इन बच्चों और उनके परिजनों को उनका मूल अधिकार आज तक नहीं मिल सका है.

कूड़े के ढेर पर बचपन.

इसी तरह मसेनी पर रहने वाले एक गरीब परिवार टूटी झोपड़ी में रहकर गुजारा करता है. इनकी झोपड़ी अब बारिश में टपक भी रही है. इस परिवार के बच्चे से लेकर बड़े तक कचरे से कबाड़ बीनते हैं. दिनभर कबाड़ एकत्रित करने के बाद बेंचकर अपना पेट पालते हैं. यहां रहे बच्चों को स्कूल तो जाना है लेकिन मजबूरी के चलते ये पेट भरने के लिए कूड़ा उठा रहे हैं.

कबाड़ बीनने वाले लोगों ने बताया कि दिनभर कबाड़ बीनकर बेचने से 100 या 200 रुपये मिलते हैं, जो पेट भरने के लिए ही कम पड़ते हैं. इतने पैसों में बच्चों को पढाएं या खाना खिलाएं, क्योंकि महंगाई बहुत बढ़ गई है. एक दो बार प्रयास किया कि बच्चों का एडमिशन करवा दें लेकिन कोई एडमिशन के लिए तैयार ही नहीं होता है. वह लोग कहते हैं कि कभी ये लाओ तो कभी वो लाओ. हमारे पास तो केवल आधार कार्ड ही है और हमारे पास कुछ भी नहीं है.

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राशन कार्ड था वह भी हम लोगों का काट दिया गया है. पहले राशन कार्ड सरकारी लाभ मिल जाता था अब वह भी नहीं मिल रहा है. कोरोना काल में कुछ लोग राहत सामग्री जरूर देने आए उससे कुछ राहत जरूर मिली थी. कबाड़ बीनने वालों ने बताया कि हम लोगों से कोई काम भी नहीं करवाता था. कूड़ा बीनने जाते थे तो लोग मारते थे. जैसे तैसे कर्जा लेकर कोरोना काल में समय काटा है. अब उसका कर्ज भर रहे हैं.

कबाड़ा बीनने वालों ने बताया कि अगर सरकार उन्हें आवास दे दे तो उन्हें पनाह मिल जाएगी. हम लोगों के पास छत नहीं है, रोड पर कई तरीके के लोग निकलते हैं. लोग हमारी मड़ैया में घुसकर जाते हैं और हमारी पुलिस भी नहीं सुनती है. हम लोग दिनभर कबाड़ बेचने के बाद सौ दो रुपये के बीच ही कमा पाते है. जिससे खाना ही हो पाता है.

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