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जरदोजी कारोबारियों ने चीन को दिया जोरदार झटका, कहा- चीनी कच्चे माल का नहीं करेंगे इस्तेमाल

यूपी के फर्रुखाबाद जिले में बनने वाले जरदोजी के लहंगे, साड़ियों और दुपट्टे में बड़े पैमाने पर चीन के कच्चे माल का प्रयोग किया जाता है. लेकिन गलवान घाटी में भारत और चीन सेना के बीच हिंसक झड़प के बाद यहां के कारोबारियों ने चीनी कच्चे माल के स्थान पर स्वदेशी सामान ही इस्तेमाल करने का फैसला किया है. ऐसे में जरी का काम करने वाले कारीगर स्वेदशी कच्चे माल का विकल्प तलाश रहें.

zardozi business
फर्रुखाबाद जरदोजी कारोबार.
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Published : Jun 23, 2020, 12:14 PM IST

Updated : Jun 23, 2020, 2:26 PM IST

फर्रुखाबादः जिले में तैयार होने वाले जरदोजी के लहंगें, सूट, साड़ी और दुपट्टों की देश और विदेश में भी मांग रहती है, लेकिन आज के समय में जरदोजी कारोबार चीन के कच्चे माल पर निर्भर है. अब चीन से तनातनी के बाद जरदोजी कारोबारी स्वदेशी माल को अपनाने की तैयारी में हैं. हालांकि स्वदेशी कच्चा माल महंगा जरूर पड़ रहा है. मगर चीनी कच्चे माल के और भी विकल्प ढूंढे जा रहे हैं.

स्वदेशी बूंदे से तैयार किया जाएगा लहंगा.

जरदोजी का यह है मतलब
जरदोजी फारसी शब्द है. जिसका मतलब है सोने, चांदी के तारों को जरी के साथ सिलना. इस सिलाई को ही जरदोजी कहते हैं. जरदोजी एक प्रकार की कढ़ाई होती है. इसे लहंगा, साड़ी, सूट के कपड़े, ड्रेस मैटीरियल्स आदि में भी किया जाता है. जरदोजी का काम बहुत ही कलात्मक तथा धैर्य का होता है. इस काम में बड़ी तादात में मुस्लिम सम्प्रदाय के लोग (कलाकार) काम करते हैं.

जिले में 1962 से शुरू हुआ जरदोजी का काम
जानकारों के मुताबिक तो जनपद में सबसे पहले उस्ताद काले खां ने 1962 में जरदोजी का कारखाना लगाया था. 1975 आते-आते कई लोग जरदोजी के काम में पारंगत हो गए. इसके बाद धीरे-धीरे जरदोजी का काम बढ़ता चला गया जो आज देश-विदेशों तक अपनी छाप बनाए हुए है. जरी के काम में सबसे पहले बटर पेपर पर पैंसिल से डिजाइन बनाते है. उसके बाद गुदाई और छपाई की जाती है. जिसके बाद कपड़े पर जरदोजी का काम चालू होता है.

करीब 50 हजार कारीगर कारोबार से जुड़े
फर्रुखाबाद शहर और देहात इलाकों में करीब 50 हजार से अधिक कारीगर जारदोजी कारोबार से जुड़े हैं. इनके परिवार के लगभग ढाई लाख लोगों की रोजी-रोटी जरदोजी के काम पर टिकी हैं. इनमें 80 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम कारीगर शामिल हैं.

विदेशों तक फैला है कारोबार, 350-400 करोड़ का सलाना टर्नओवर
जरदोजी व्यापार मंडल के जिला अध्यक्ष हाजी मुजफ्फर हुसैन रहमानी ने बताया कि जिले में 500 से अधिक छोटे-बड़े कारखाने हैं, जिनमें से 210 रजिस्टर्ड कारखाने है. उन्होंने बताया कि करीब 350-400 करोड़ रुपये सलाना टर्नओवर है, लेकिन लाॅकडाउन की वजह से इस वक्त 30 प्रतिशत काम बचा है. जरदोजी कारोबार विदेशों पर निर्भर है. हुसैन रहमानी ने बताया कि जरदोजी का विदेशी बाजार इंडोनेशिया, दुबई, सऊदी अरब, यूके, कनाडा, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया समेत कई देशों तक फैला हुआ है. इसके साथ ही शादी-विवाह के मौके पर भी इसकी मांग काफी रहती है.

चीन के मुकाबले सूरत बना कपड़ों का हब
कोरोबारियों ने बताया कि चाइना से लहंगों के लिए आने वाला कपड़ा काफी महंगा मिलता था. अब सूरत और मुंबई में कपड़े की काफी बड़ी मंडी हो गई है. इसका तोड़ सूरत की मंडी ने निकाल लिया है.

चाइनीज कपड़ों के दामरुपये प्रति मीटर सूरत के कपड़ों के दाममीटर प्रति रुपये
शामू शाॅटन 900 रुपये शामू शाॅटन50-60 रुपये
क्रेप 800 रुपये आर्ट सिल्क50-60 रुपये
चाइना सिल्क750 रुपयेआर्ट जारजेट 75 रुपये
इम्पोटेड नेट 110 रुपयेनेट 22 से 30 रुपये
जाॅरजेट 750 रुपये

स्वदेशी माल अपनाने की तैयारी
जरदोजी में प्रति माह लगभग 40 लाख का चीनी कच्चा माल इस्तेमाल होता है. लहंगों में जो बादाम बूंदा, मोती और जरकन का इस्तेमाल होता था. वह चाइना से आता था, लेकिन अब चीन से आने वाले सितारे, क्रिस्टल, चांदला और मोती को ना कहकर कारोबारी स्वदेशी माल को अपनाने की तैयारी में है. कारोबारियों का कहना है कि अब बादाम बूंदा यहीं तैयार कराएंगे और यह चीन से सस्ता भी पड़ेगा, लेकिन जरकन चाइना में 300 रुपये पैकेट मिलता है. जो यहां पर एक हजार रुपये में पड़ता है.

इसी तरह जो मोती चीन में 150-200 रुपये प्रति पैकेट मिलती है, वो मुंबई में 400 रुपये में मिलती है और क्वालिटी भी चाइना की अच्छी होती है. अब अगर भारत का जरकन और पल्स लहंगों में इस्तेमाल किया जाता है तो कास्ट बीस प्रतिशत तक बढ़ जाएगी. ऐसे में सरकार को सस्ते दामों में अच्छी क्वालिटी की जरकन और पल्स उपलब्ध कराना चाहिए.

ट्रेल लहंगों की बढ़ी डिमांड
जरदोजी व्यवसायी ने बताया कि इग्लैंड, कनाडा आदि देशों से ट्रेल लहंगों की मांग बढ़ती जा रही है. ट्रेल लहंगा का आर्डर लंबाई के हिसाब से मिलता है. ट्रेल की आगे की लंबाई लगभग 62 इंच और पीछे की लंबाई 85 इंच होती है. इसका पिछला हिस्सा काफी लंबा होता है, जो फर्श पर रगड़ते हुए चलता है. इसको बनाने के लिए पहले खाका तैयार होता है. उसके बाद बेलवेट के कपड़े पर आरी और स्टोन वर्क, जरी, दबका, नक्शी, सिक्वेंस लगाया जाता है. इस एक लहंगे को एक माह के समय में दस से बारह कारीगर मिलकर बनाते है. एक ट्रेल लहंगे में पचास हजार से लेकर एक लाख तक की लागत आती है.

जरदोजी उद्योग पर भी पड़ी कोरोना की मार
जरदोजी व्यापार मंडल के जिलाध्यक्ष हाजी मुजफ्फर हुसैन ने बताया कि वैश्विक महामारी कोविड-19 की मार विश्वविख्यात जरदोजी उद्योग पर भी पड़ा है. कारोबारियों को लॉकडाउन के कारण काफी नुकसान झेलना पड़ रहा है. हाल यह है कि विदेशी और स्वदेशी आर्डर न मिल पाने से करोड़ों के जरदोजी लहंगे कारखानों में धूल फांक रहे हैं, जो लहंगे बनकर पार्टियों के पास पहुंच गए उनका पेमेंट अटका है.

फर्रुखाबादः जिले में तैयार होने वाले जरदोजी के लहंगें, सूट, साड़ी और दुपट्टों की देश और विदेश में भी मांग रहती है, लेकिन आज के समय में जरदोजी कारोबार चीन के कच्चे माल पर निर्भर है. अब चीन से तनातनी के बाद जरदोजी कारोबारी स्वदेशी माल को अपनाने की तैयारी में हैं. हालांकि स्वदेशी कच्चा माल महंगा जरूर पड़ रहा है. मगर चीनी कच्चे माल के और भी विकल्प ढूंढे जा रहे हैं.

स्वदेशी बूंदे से तैयार किया जाएगा लहंगा.

जरदोजी का यह है मतलब
जरदोजी फारसी शब्द है. जिसका मतलब है सोने, चांदी के तारों को जरी के साथ सिलना. इस सिलाई को ही जरदोजी कहते हैं. जरदोजी एक प्रकार की कढ़ाई होती है. इसे लहंगा, साड़ी, सूट के कपड़े, ड्रेस मैटीरियल्स आदि में भी किया जाता है. जरदोजी का काम बहुत ही कलात्मक तथा धैर्य का होता है. इस काम में बड़ी तादात में मुस्लिम सम्प्रदाय के लोग (कलाकार) काम करते हैं.

जिले में 1962 से शुरू हुआ जरदोजी का काम
जानकारों के मुताबिक तो जनपद में सबसे पहले उस्ताद काले खां ने 1962 में जरदोजी का कारखाना लगाया था. 1975 आते-आते कई लोग जरदोजी के काम में पारंगत हो गए. इसके बाद धीरे-धीरे जरदोजी का काम बढ़ता चला गया जो आज देश-विदेशों तक अपनी छाप बनाए हुए है. जरी के काम में सबसे पहले बटर पेपर पर पैंसिल से डिजाइन बनाते है. उसके बाद गुदाई और छपाई की जाती है. जिसके बाद कपड़े पर जरदोजी का काम चालू होता है.

करीब 50 हजार कारीगर कारोबार से जुड़े
फर्रुखाबाद शहर और देहात इलाकों में करीब 50 हजार से अधिक कारीगर जारदोजी कारोबार से जुड़े हैं. इनके परिवार के लगभग ढाई लाख लोगों की रोजी-रोटी जरदोजी के काम पर टिकी हैं. इनमें 80 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम कारीगर शामिल हैं.

विदेशों तक फैला है कारोबार, 350-400 करोड़ का सलाना टर्नओवर
जरदोजी व्यापार मंडल के जिला अध्यक्ष हाजी मुजफ्फर हुसैन रहमानी ने बताया कि जिले में 500 से अधिक छोटे-बड़े कारखाने हैं, जिनमें से 210 रजिस्टर्ड कारखाने है. उन्होंने बताया कि करीब 350-400 करोड़ रुपये सलाना टर्नओवर है, लेकिन लाॅकडाउन की वजह से इस वक्त 30 प्रतिशत काम बचा है. जरदोजी कारोबार विदेशों पर निर्भर है. हुसैन रहमानी ने बताया कि जरदोजी का विदेशी बाजार इंडोनेशिया, दुबई, सऊदी अरब, यूके, कनाडा, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया समेत कई देशों तक फैला हुआ है. इसके साथ ही शादी-विवाह के मौके पर भी इसकी मांग काफी रहती है.

चीन के मुकाबले सूरत बना कपड़ों का हब
कोरोबारियों ने बताया कि चाइना से लहंगों के लिए आने वाला कपड़ा काफी महंगा मिलता था. अब सूरत और मुंबई में कपड़े की काफी बड़ी मंडी हो गई है. इसका तोड़ सूरत की मंडी ने निकाल लिया है.

चाइनीज कपड़ों के दामरुपये प्रति मीटर सूरत के कपड़ों के दाममीटर प्रति रुपये
शामू शाॅटन 900 रुपये शामू शाॅटन50-60 रुपये
क्रेप 800 रुपये आर्ट सिल्क50-60 रुपये
चाइना सिल्क750 रुपयेआर्ट जारजेट 75 रुपये
इम्पोटेड नेट 110 रुपयेनेट 22 से 30 रुपये
जाॅरजेट 750 रुपये

स्वदेशी माल अपनाने की तैयारी
जरदोजी में प्रति माह लगभग 40 लाख का चीनी कच्चा माल इस्तेमाल होता है. लहंगों में जो बादाम बूंदा, मोती और जरकन का इस्तेमाल होता था. वह चाइना से आता था, लेकिन अब चीन से आने वाले सितारे, क्रिस्टल, चांदला और मोती को ना कहकर कारोबारी स्वदेशी माल को अपनाने की तैयारी में है. कारोबारियों का कहना है कि अब बादाम बूंदा यहीं तैयार कराएंगे और यह चीन से सस्ता भी पड़ेगा, लेकिन जरकन चाइना में 300 रुपये पैकेट मिलता है. जो यहां पर एक हजार रुपये में पड़ता है.

इसी तरह जो मोती चीन में 150-200 रुपये प्रति पैकेट मिलती है, वो मुंबई में 400 रुपये में मिलती है और क्वालिटी भी चाइना की अच्छी होती है. अब अगर भारत का जरकन और पल्स लहंगों में इस्तेमाल किया जाता है तो कास्ट बीस प्रतिशत तक बढ़ जाएगी. ऐसे में सरकार को सस्ते दामों में अच्छी क्वालिटी की जरकन और पल्स उपलब्ध कराना चाहिए.

ट्रेल लहंगों की बढ़ी डिमांड
जरदोजी व्यवसायी ने बताया कि इग्लैंड, कनाडा आदि देशों से ट्रेल लहंगों की मांग बढ़ती जा रही है. ट्रेल लहंगा का आर्डर लंबाई के हिसाब से मिलता है. ट्रेल की आगे की लंबाई लगभग 62 इंच और पीछे की लंबाई 85 इंच होती है. इसका पिछला हिस्सा काफी लंबा होता है, जो फर्श पर रगड़ते हुए चलता है. इसको बनाने के लिए पहले खाका तैयार होता है. उसके बाद बेलवेट के कपड़े पर आरी और स्टोन वर्क, जरी, दबका, नक्शी, सिक्वेंस लगाया जाता है. इस एक लहंगे को एक माह के समय में दस से बारह कारीगर मिलकर बनाते है. एक ट्रेल लहंगे में पचास हजार से लेकर एक लाख तक की लागत आती है.

जरदोजी उद्योग पर भी पड़ी कोरोना की मार
जरदोजी व्यापार मंडल के जिलाध्यक्ष हाजी मुजफ्फर हुसैन ने बताया कि वैश्विक महामारी कोविड-19 की मार विश्वविख्यात जरदोजी उद्योग पर भी पड़ा है. कारोबारियों को लॉकडाउन के कारण काफी नुकसान झेलना पड़ रहा है. हाल यह है कि विदेशी और स्वदेशी आर्डर न मिल पाने से करोड़ों के जरदोजी लहंगे कारखानों में धूल फांक रहे हैं, जो लहंगे बनकर पार्टियों के पास पहुंच गए उनका पेमेंट अटका है.

Last Updated : Jun 23, 2020, 2:26 PM IST
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