वाराणसी : सनातन धर्म में पर्व और त्योहार हर महीने-हर दिन आयोजित होते रहते हैं लेकिन कई त्यौहार ऐसे हैं जो विशेष महत्व रखते हैं. ऐसे ही विशेष त्योहारों में से एक है वट सावित्री व्रत. सौभाग्य की कामना के साथ सुहाग की रक्षा के लिए किया जाने वाला यह व्रत सुहागिन महिलाओं के लिए बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है. शास्त्रों में वट वृक्ष को अपने आप में देवता का वृक्ष से कहते हैं जिसमें ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों का वास होता है. साल में एक बार जेष्ठ मास की कृष्ण पक्ष अमावस्या को वट सावित्री का व्रत करते हैं. क्या है इस व्रत का विधान और इससे जुड़ी कथा जानिए.
इस बारे में काशी के प्रख्यात ज्योतिष ज्योतिषाचार्य एवं श्रीकाशी विश्वनाथ मंदिर न्यास के सदस्य पंडित प्रसाद दीक्षित ने ईटीवी भारत से खास बातचीत की. उन्होंने बताया कि शास्त्र सम्मत है कि वट देव वृक्ष हैं. वट वृक्ष के मूल में भगवान ब्रह्मा, मध्य में भगवान विष्णु एवं अग्रभाग में देवा दी देव महादेव का वास माना जाता है. ऐसी मान्यता है कि देवी सावित्री वट वृक्ष में प्रतिष्ठित रहती हैं. ऐसी कथा है कि श्री कृष्ण ने बाल रूप में मार्कंडेय ऋषि का प्रथम दर्शन दिया था. प्रयागराज में गंगा के तट पर बेनी माधव के निकट अक्षयवट प्रतिष्ठित है. भक्त शिरोमणि तुलसीदास ने संगम स्थित इसी अक्षय वट को तीर्थराज का क्षेत्र कहां है. इसी प्रकार तीर्थों में पंचवटी का भी विशेष महत्व है. 5 वटों से युक्त स्थान को पंचवटी के नाम से जाना जाता है. कुम्भजमुनि के परामर्श से भगवान श्री राम सीता एवं लक्ष्मण के साथ वनवास काल में इसी स्थान पर निवास किया था.
वैज्ञानिक रूप से भी यदि देखा जाए तो वटवृक्ष का अपना विशेष महत्व माना जाता है. वट वृक्ष की औषधि के रूप में उपयोगिता से सभी परिचित हैं. जैसे वटवृक्ष दीर्घकाल तक अक्षय बना रहता है. उसी प्रकार दीर्घायु अक्षय सौभाग्य तथा निरंतर अभ्युदय की प्राप्ति के लिए वट वृक्ष की पूजा अर्चना की जाती है. पंडित प्रसाद दीक्षित का कहना है कि इसी वटवृक्ष के नीचे सावित्री ने अपने पति को पुनर्जीवित किया था. तब से यह व्रत सावित्री के नाम से किया जाता है. जेष्ठ मास व्रतों में वट सावित्री व्रत सबसे प्रभावी व्रत माना जाता है. इसमें वट वृक्ष की पूजा की जाती है.
महिलाएं अपने अखंड सौभाग्य एवं कल्याण के लिए यह व्रत करती हैं. सौभाग्यवती महिलाएं श्रद्धा के साथ जेष्ठ मास कृष्ण पक्ष की अमावस्या को उपवास करतीं हैं. उपवास के बाद प्रतिपदा करना चाहिए. अमावस्या को एक बांस की टोकरी में सप्तधान्य पर ब्रह्मा और ब्रह्म सावित्री तथा दूसरी टोकरी में सत्यवान एवं सावित्री की प्रतिमा स्थापित कर वट के समीप यथा विधि पूजन करना चाहिए.
पंडित प्रसाद दीक्षित का कहना है कि इस पूजन के साथ ही यम देवता का पूजन भी विधि विधान से करना चाहिए. पूजन के अनंतर स्त्रियां वट की पूजा भी करतीं हैं. उसके मूल में जल देने के साथ उसे सींचने का विधान है. वट की परिक्रमा करते हुए 108 बार या यथाशक्ति उसमें सूत लपेटा जाता है. नमो वैवस्वत इस मंत्र से वटवृक्ष की प्रदक्षिणा करनी चाहिए. साथ ही सावित्री को अर्घ्य देना चाहिए और वट वृक्ष का चिंतन करते समय प्रार्थना करनी चाहिए.
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पंडित जी ने बताया कि चने पर रुपया रखकर बायना के रूप में अपनी सास को देकर उनसे आशीर्वाद लिया जाता है. सुहागिन महिलाओं के लिए यह व्रत महत्वपूर्ण है, इसलिए सौभाग्य पिटारी और पूजा सामग्री किसी योग्य ब्राह्मण को दी जाती है. इसमें सिंदूर, दर्पण, काजल, मेहंदी, चूड़ी, माथे की बिंदी, हिंगुल, साड़ी स्वर्ण आभूषण इत्यादि वस्तुएं एक बांस की टोकरी में रखकर आराधना करते हुए देवी सावित्री का ध्यान करके उनसे अपने सौभाग्य की रक्षा की कामना करते हुए इस सौभाग्य पिटारी को किसी ब्राह्मण को दान देना चाहिए. सौभाग्यवती स्त्रियों का भी पूजन इस दिन करना विशेष फलदाई माना जाता है. कुछ महिलाएं केवल अमावस्या को एक दिन व्रत रखतीं हैं. इसमें सावित्री सत्यवान की कथा का श्रवण भी किया जाता है.
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