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छह माह में अब अखिलेश यादव को मिलेगी छठी शिकस्त!

समाजवादी पार्टी (सपा) के मुखिया अखिलेश यादव ने विधान परिषद चुनाव में आदिवासी समाज से आने वालीं कीर्ति कोल को चुनावी रण में उतारा है. राजनीति के जानकार अखिलेश यादव के इस फैसले को उनकी एक और सियासी गलती बता रहे हैं.

अखिलेश यादव
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Published : Aug 1, 2022, 9:55 PM IST

लखनऊ : बीते छह माह से समाजवादी पार्टी (सपा) के मुखिया अखिलेश यादव का हर सियासी दांव पेंच मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के सामने नाकाम साबित हो रहा है. फिर भी सपा मुखिया अपनी किसी भी नाकामी से कोई सबक नहीं सीख रहे हैं. अब उन्होंने विधान परिषद चुनाव में संख्या बल ना होते हुए भी आदिवासी समाज से आने वालीं कीर्ति कोल को चुनावी रण में उतारकर अपनी एक और शिकस्त तय कर दी है. आदिवासी समुदाय की कीर्ति कोल ने सोमवार को अपना नामांकन भी दाखिल कर दिया है. नामांकन के समय सपा मुखिया मौजूद नहीं थे. राजनीति के जानकार अखिलेश यादव के इस फैसले को उनकी एक और सियासी गलती बता रहे हैं.


गौरतलब है राज्य विधान परिषद की दो रिक्त सीटों पर उपचुनाव हो रहा है. जिन दो सीटों पर उपचुनाव होने हैं, इसमें पहली सीट का कार्यकाल 30 जनवरी 2027 तक है, जो सपा के सीनियर नेता अहमद हसन के निधन के चलते खाली हुई थी. दूसरी सीट का कार्यकाल 5 मई 2024 तक है, यह भाजपा के जयवीर सिंह के इस्तीफे के चलते खाली हुई है. दोनों ही सीटों की अलग-अलग अधिसूचना जारी हुई है. ऐसे में सामान्य बहुमत से इन पर फैसला होगा. 11 अगस्त को इन दोनों सीटों के लिए मतदान होना है. एक एमएलसी सीटें जीतने के लिए कम से कम 200 विधायकों का वोट चाहिए. इस लिहाज से भाजपा की दोनों सीटों पर जीत तय है.


जानकारों के अनुसार, बीते विधानसभा चुनाव में सपा की हार हुई. आजमगढ़ और रामपुर लोकसभा की सीटों पर हुए उपचुनावों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने यह दोनों सीटें सपा से छीन लीं. फिर राष्ट्रपति चुनाव में सीएम योगी की सियासत से कुछ सपा विधायकों ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के पक्ष में वोट दे दिया. यही नहीं इस छह माह में सपा के सहयोगी रहे महान दल, सुभासपा और प्रसपा जैसे दलों ने अखिलेश से नाता तोड़ लिया. यह छह सियासी झटके खाने के बाद अब अखिलेश को सपा को मजबूत करने पर ध्यान देना चाहिए. ऐसा ना करके वह विधान परिषद चुनाव में संख्या बल ना होते हुए भी आदिवासी समुदाय की कीर्ति कोल को चुनावी रण में उतारकर अपनी छठी शिकस्त तय कर रहे हैं.

इसे भी पढ़ें : मंत्रियों के प्रभार वाले मंडल बदले, जानिए किसे कौन से मंडल और जिले की मिली जिम्मेदारी?

अखिलेश के इस फैसले से ना तो आदिवासी समुदाय में सपा का आधार बढ़ेगा और ना ही सपा पर लगे आदिवासी विरोधी होने की तोहमत हटेगी जो राष्ट्रपति चुनाव के दौरान पार्टी पर लगी थी. सपा नेता भी अब यह कहने लग गए हैं.
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लखनऊ : बीते छह माह से समाजवादी पार्टी (सपा) के मुखिया अखिलेश यादव का हर सियासी दांव पेंच मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के सामने नाकाम साबित हो रहा है. फिर भी सपा मुखिया अपनी किसी भी नाकामी से कोई सबक नहीं सीख रहे हैं. अब उन्होंने विधान परिषद चुनाव में संख्या बल ना होते हुए भी आदिवासी समाज से आने वालीं कीर्ति कोल को चुनावी रण में उतारकर अपनी एक और शिकस्त तय कर दी है. आदिवासी समुदाय की कीर्ति कोल ने सोमवार को अपना नामांकन भी दाखिल कर दिया है. नामांकन के समय सपा मुखिया मौजूद नहीं थे. राजनीति के जानकार अखिलेश यादव के इस फैसले को उनकी एक और सियासी गलती बता रहे हैं.


गौरतलब है राज्य विधान परिषद की दो रिक्त सीटों पर उपचुनाव हो रहा है. जिन दो सीटों पर उपचुनाव होने हैं, इसमें पहली सीट का कार्यकाल 30 जनवरी 2027 तक है, जो सपा के सीनियर नेता अहमद हसन के निधन के चलते खाली हुई थी. दूसरी सीट का कार्यकाल 5 मई 2024 तक है, यह भाजपा के जयवीर सिंह के इस्तीफे के चलते खाली हुई है. दोनों ही सीटों की अलग-अलग अधिसूचना जारी हुई है. ऐसे में सामान्य बहुमत से इन पर फैसला होगा. 11 अगस्त को इन दोनों सीटों के लिए मतदान होना है. एक एमएलसी सीटें जीतने के लिए कम से कम 200 विधायकों का वोट चाहिए. इस लिहाज से भाजपा की दोनों सीटों पर जीत तय है.


जानकारों के अनुसार, बीते विधानसभा चुनाव में सपा की हार हुई. आजमगढ़ और रामपुर लोकसभा की सीटों पर हुए उपचुनावों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने यह दोनों सीटें सपा से छीन लीं. फिर राष्ट्रपति चुनाव में सीएम योगी की सियासत से कुछ सपा विधायकों ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के पक्ष में वोट दे दिया. यही नहीं इस छह माह में सपा के सहयोगी रहे महान दल, सुभासपा और प्रसपा जैसे दलों ने अखिलेश से नाता तोड़ लिया. यह छह सियासी झटके खाने के बाद अब अखिलेश को सपा को मजबूत करने पर ध्यान देना चाहिए. ऐसा ना करके वह विधान परिषद चुनाव में संख्या बल ना होते हुए भी आदिवासी समुदाय की कीर्ति कोल को चुनावी रण में उतारकर अपनी छठी शिकस्त तय कर रहे हैं.

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अखिलेश के इस फैसले से ना तो आदिवासी समुदाय में सपा का आधार बढ़ेगा और ना ही सपा पर लगे आदिवासी विरोधी होने की तोहमत हटेगी जो राष्ट्रपति चुनाव के दौरान पार्टी पर लगी थी. सपा नेता भी अब यह कहने लग गए हैं.
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