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'तमिलनाडु और उसके लोग, दोनों ही पीड़ित', सुप्रीम कोर्ट ने मांगा स्पष्टीकरण - SC SEEKS CLARITY ON BILLS

बेंच ने पूछा, जब फाइलें राष्ट्रपति के पास भेजी जाती हैं, तो राष्ट्रपति से क्या अपेक्षा की जाती है? राज्यपाल द्वारा विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजने का आधार क्या है.

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सुप्रीम कोर्ट (IANS)
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By Sumit Saxena

Published : Feb 4, 2025, 10:58 PM IST

नई दिल्ली: राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने में राज्यपाल आरएन रवि द्वारा देरी के खिलाफ तमिलनाडु सरकार द्वारा दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को कहा कि तमिलनाडु के लोग और राज्य सरकार दोनों ही पीड़ित हैं, क्योंकि बहुत सारे विधेयक लंबित हैं. सुप्रीम कोर्ट 6 फरवरी को मामले की सुनवाई जारी रखेगा.

तमिलनाडु का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता मुकुल रोहतगी ने राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने में राज्यपाल आरएन रवि द्वारा की गई देरी के खिलाफ जोरदार ढंग से तर्क दिया. यह मामला जस्टिस जे बी पारदीवाला और आर महादेवन की दो न्यायाधीशों वाली बेंच के समक्ष आया. जस्टिस पारदीवाला ने कहा, "लोग पीड़ित हैं, राज्य पीड़ित है. बहुत सारे विधेयक लंबित हैं…" इस मोड़ पर, तमिलनाडु के राज्यपाल का प्रतिनिधित्व कर रहे अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी ने कहा कि, कुछ भी लंबित नहीं है.

रोहतगी ने कहा कि, कानून के तहत अगर राज्य विधानसभा विधेयक पारित करती है, तो राज्यपाल उस पर पुनर्विचार करने के लिए कह सकते हैं और अगर पुनर्विचार के बाद उसी विधेयक की पुष्टि होती है, और संविधान के अनुच्छेद 200 का हवाला देते हुए कहा कि राज्यपाल के पास सहमति देने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा.

रोहतगी ने कहा, "क्योंकि यह हमारा संवैधानिक ढांचा है. अगर वह ऐसा नहीं करते हैं तो लोकतंत्र की पूरी व्यवस्था विफल हो जाती है...विधानसभा और संसद आबादी की मांगों को जानते हैं. वे उनकी मांगों को ध्यान में रखते हुए कुछ कानून पारित करते हैं...इसलिए, संविधान बहुत स्पष्ट है कि अगर राज्यपाल पहले दौर में सहमति नहीं देते हैं.उन्हें दूसरे दौर में सहमति देनी होगी."

उन्होंने जोर देकर कहा कि 13 जनवरी, 2020 से 28 अप्रैल, 2023 की अवधि के लिए 12 विधेयक राज्यपाल को भेजे गए थे. रोहतगी ने कहा, "उन्होंने नवंबर 2021 में कार्यभार संभाला…" पीठ ने पूछा कि कितने विधेयक लंबित हैं? रोहतगी ने कहा, "बारह में से दो विधेयक राष्ट्रपति के विचारार्थ भेजे गए...और 10 पुनर्विचार के लिए वापस (विधानसभा को) भेजे गए. उन्हें विधानसभा द्वारा फिर से अधिनियमित किया गया, जो उनके दृष्टिकोण की पुनरावृत्ति है.

कानून के अनुसार, उनके पास अपनी सहमति देने के अलावा कोई विकल्प नहीं है...वे दस विधेयक भी राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेजे गए हैं." पीठ ने पूछा, विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजने का आधार क्या है? यदि विधेयक राष्ट्रपति को भेजे जाते हैं तो सही या गलत, क्या अपेक्षित है? और, क्या आप राज्यपाल द्वारा विधेयकों को राष्ट्रपति को भेजने की इस कार्रवाई को चुनौती दे सकते हैं?

रोहतगी ने कहा कि उनके मुवक्किल को उन 10 विधेयकों के बारे में शिकायत है, जिन्हें विधानसभा द्वारा पुनः अधिनियमित किया गया था, और उन्होंने जोर दिया कि अनुच्छेद 200 के अनुसार, राज्यपाल को इन 10 विधेयकों पर अपनी सहमति देनी चाहिए थी. पीठ ने रोहतगी से सवालों की बौछार कर दी, "यदि फाइलें राष्ट्रपति को भेजी गई हैं, तो अब राहत क्या है?

बेंच ने पूछा, जब फाइलें राष्ट्रपति के पास भेजी जाती हैं, तो राष्ट्रपति से क्या अपेक्षा की जाती है? राज्यपाल द्वारा विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजने का आधार क्या है, कोई पैमाना तो होना चाहिए? राज्यपाल निर्णय क्यों नहीं ले पाते? संविधान में ऐसी स्थिति की परिकल्पना की गई है कि राज्यपाल किसी स्थिति में इसे राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं, राज्यपाल को इसे राष्ट्रपति के पास भेजने के लिए क्या विचार करना चाहिए?”

राष्ट्रपति के पास विधेयक भेजे जाने के बाद की प्रक्रिया के बारे में विस्तार से बताते हुए रोहतगी ने कहा कि राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद द्वारा सलाह दी जाती है, और राष्ट्रपति स्वयं निर्णय नहीं ले सकते तथा उन्हें मंत्रिपरिषद से सहायता और सलाह लेनी होती है. पीठ ने पूछा, "आज, आप यह घोषणा चाहते हैं कि जब विधेयकों को फिर से राज्यपाल के पास भेजा जाता है, तो उन्हें इसे कहीं भी भेजने का कोई अधिकार नहीं है?”

रोहतगी ने कहा, "एक घोषणा, मेरे प्रभु, क्योंकि वे सहमति को रोक नहीं सकते। संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत उनकी सहमति को मंजूरी दी गई मानी जाती है…हम गतिरोध की स्थिति में काम नहीं कर सकते, और 3-4 साल बीत चुके हैं." जस्टिस पारदीवाला ने आगे पूछा कि यदि विधेयक दोबारा उनके पास भेजा जाता है और वे इससे संतुष्ट नहीं होते हैं तो क्या उपाय है? रोहतगी ने कहा कि उनके पास कोई विकल्प नहीं है.

एजी ने जोर देकर कहा कि राज्यपाल की मंजूरी की आवश्यकता वाले सभी विधेयकों पर पहले ही विचार किया जा चुका है. वर्तमान में कोई भी विधेयक मंजूरी के लिए लंबित नहीं है. उन्होंने आगे कहा कि, सुप्रीम कोर्ट ने कुलपतियों (वीसी) की नियुक्ति के संबंध में नोटिस जारी नहीं किया है और बताया कि मामले में यूजीसी को एक पक्ष के रूप में शामिल नहीं किया गया है, जिससे विस्तृत जवाब देना मुश्किल हो जाता है.

तमिलनाडु सरकार का प्रतिनिधित्व करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक सिंघवी ने बेंच के समक्ष दलील दी कि, कुलपतियों की नियुक्ति के संबंध में राज्यपाल द्वारा मंजूरी देने से इनकार करने से विश्वविद्यालय प्रशासन प्रभावित हुआ है. राज्य सरकार का प्रतिनिधित्व करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता पी विल्सन ने राज्यपाल की कार्रवाई की आलोचना की. सुनवाई के अंत में, विधेयकों पर सहमति के संबंध में राज्य सरकार और राज्यपाल के बीच गतिरोध के बारे में, पीठ ने कहा कि वह इस मुद्दे पर जनहित में निर्णय करेगी. सुप्रीम कोर्ट में अगली सुनवाई 6 फरवरी को होगी.

ये भी पढ़ें: विदेशियों के डिपोर्ट में देरी पर SC ने असम सरकार से पूछा- क्या किसी 'मुहुर्त' का इंतजार है

नई दिल्ली: राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने में राज्यपाल आरएन रवि द्वारा देरी के खिलाफ तमिलनाडु सरकार द्वारा दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को कहा कि तमिलनाडु के लोग और राज्य सरकार दोनों ही पीड़ित हैं, क्योंकि बहुत सारे विधेयक लंबित हैं. सुप्रीम कोर्ट 6 फरवरी को मामले की सुनवाई जारी रखेगा.

तमिलनाडु का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता मुकुल रोहतगी ने राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने में राज्यपाल आरएन रवि द्वारा की गई देरी के खिलाफ जोरदार ढंग से तर्क दिया. यह मामला जस्टिस जे बी पारदीवाला और आर महादेवन की दो न्यायाधीशों वाली बेंच के समक्ष आया. जस्टिस पारदीवाला ने कहा, "लोग पीड़ित हैं, राज्य पीड़ित है. बहुत सारे विधेयक लंबित हैं…" इस मोड़ पर, तमिलनाडु के राज्यपाल का प्रतिनिधित्व कर रहे अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी ने कहा कि, कुछ भी लंबित नहीं है.

रोहतगी ने कहा कि, कानून के तहत अगर राज्य विधानसभा विधेयक पारित करती है, तो राज्यपाल उस पर पुनर्विचार करने के लिए कह सकते हैं और अगर पुनर्विचार के बाद उसी विधेयक की पुष्टि होती है, और संविधान के अनुच्छेद 200 का हवाला देते हुए कहा कि राज्यपाल के पास सहमति देने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा.

रोहतगी ने कहा, "क्योंकि यह हमारा संवैधानिक ढांचा है. अगर वह ऐसा नहीं करते हैं तो लोकतंत्र की पूरी व्यवस्था विफल हो जाती है...विधानसभा और संसद आबादी की मांगों को जानते हैं. वे उनकी मांगों को ध्यान में रखते हुए कुछ कानून पारित करते हैं...इसलिए, संविधान बहुत स्पष्ट है कि अगर राज्यपाल पहले दौर में सहमति नहीं देते हैं.उन्हें दूसरे दौर में सहमति देनी होगी."

उन्होंने जोर देकर कहा कि 13 जनवरी, 2020 से 28 अप्रैल, 2023 की अवधि के लिए 12 विधेयक राज्यपाल को भेजे गए थे. रोहतगी ने कहा, "उन्होंने नवंबर 2021 में कार्यभार संभाला…" पीठ ने पूछा कि कितने विधेयक लंबित हैं? रोहतगी ने कहा, "बारह में से दो विधेयक राष्ट्रपति के विचारार्थ भेजे गए...और 10 पुनर्विचार के लिए वापस (विधानसभा को) भेजे गए. उन्हें विधानसभा द्वारा फिर से अधिनियमित किया गया, जो उनके दृष्टिकोण की पुनरावृत्ति है.

कानून के अनुसार, उनके पास अपनी सहमति देने के अलावा कोई विकल्प नहीं है...वे दस विधेयक भी राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेजे गए हैं." पीठ ने पूछा, विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजने का आधार क्या है? यदि विधेयक राष्ट्रपति को भेजे जाते हैं तो सही या गलत, क्या अपेक्षित है? और, क्या आप राज्यपाल द्वारा विधेयकों को राष्ट्रपति को भेजने की इस कार्रवाई को चुनौती दे सकते हैं?

रोहतगी ने कहा कि उनके मुवक्किल को उन 10 विधेयकों के बारे में शिकायत है, जिन्हें विधानसभा द्वारा पुनः अधिनियमित किया गया था, और उन्होंने जोर दिया कि अनुच्छेद 200 के अनुसार, राज्यपाल को इन 10 विधेयकों पर अपनी सहमति देनी चाहिए थी. पीठ ने रोहतगी से सवालों की बौछार कर दी, "यदि फाइलें राष्ट्रपति को भेजी गई हैं, तो अब राहत क्या है?

बेंच ने पूछा, जब फाइलें राष्ट्रपति के पास भेजी जाती हैं, तो राष्ट्रपति से क्या अपेक्षा की जाती है? राज्यपाल द्वारा विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजने का आधार क्या है, कोई पैमाना तो होना चाहिए? राज्यपाल निर्णय क्यों नहीं ले पाते? संविधान में ऐसी स्थिति की परिकल्पना की गई है कि राज्यपाल किसी स्थिति में इसे राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं, राज्यपाल को इसे राष्ट्रपति के पास भेजने के लिए क्या विचार करना चाहिए?”

राष्ट्रपति के पास विधेयक भेजे जाने के बाद की प्रक्रिया के बारे में विस्तार से बताते हुए रोहतगी ने कहा कि राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद द्वारा सलाह दी जाती है, और राष्ट्रपति स्वयं निर्णय नहीं ले सकते तथा उन्हें मंत्रिपरिषद से सहायता और सलाह लेनी होती है. पीठ ने पूछा, "आज, आप यह घोषणा चाहते हैं कि जब विधेयकों को फिर से राज्यपाल के पास भेजा जाता है, तो उन्हें इसे कहीं भी भेजने का कोई अधिकार नहीं है?”

रोहतगी ने कहा, "एक घोषणा, मेरे प्रभु, क्योंकि वे सहमति को रोक नहीं सकते। संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत उनकी सहमति को मंजूरी दी गई मानी जाती है…हम गतिरोध की स्थिति में काम नहीं कर सकते, और 3-4 साल बीत चुके हैं." जस्टिस पारदीवाला ने आगे पूछा कि यदि विधेयक दोबारा उनके पास भेजा जाता है और वे इससे संतुष्ट नहीं होते हैं तो क्या उपाय है? रोहतगी ने कहा कि उनके पास कोई विकल्प नहीं है.

एजी ने जोर देकर कहा कि राज्यपाल की मंजूरी की आवश्यकता वाले सभी विधेयकों पर पहले ही विचार किया जा चुका है. वर्तमान में कोई भी विधेयक मंजूरी के लिए लंबित नहीं है. उन्होंने आगे कहा कि, सुप्रीम कोर्ट ने कुलपतियों (वीसी) की नियुक्ति के संबंध में नोटिस जारी नहीं किया है और बताया कि मामले में यूजीसी को एक पक्ष के रूप में शामिल नहीं किया गया है, जिससे विस्तृत जवाब देना मुश्किल हो जाता है.

तमिलनाडु सरकार का प्रतिनिधित्व करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक सिंघवी ने बेंच के समक्ष दलील दी कि, कुलपतियों की नियुक्ति के संबंध में राज्यपाल द्वारा मंजूरी देने से इनकार करने से विश्वविद्यालय प्रशासन प्रभावित हुआ है. राज्य सरकार का प्रतिनिधित्व करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता पी विल्सन ने राज्यपाल की कार्रवाई की आलोचना की. सुनवाई के अंत में, विधेयकों पर सहमति के संबंध में राज्य सरकार और राज्यपाल के बीच गतिरोध के बारे में, पीठ ने कहा कि वह इस मुद्दे पर जनहित में निर्णय करेगी. सुप्रीम कोर्ट में अगली सुनवाई 6 फरवरी को होगी.

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