लखनऊ: पिछले 5 सालों के दौरान बदले श्रम कानूनों ने उत्तर प्रदेश में मजदूरों की हालत बेहद दयनीय कर दी है. न्यूनतम मजदूरी से अधिक बड़ा सवाल मजदूरों के सामने अन्य कल्याण योजनाओं को लागू करवाने का है. मसलन ,फैक्ट्रियों में उनकी सुरक्षा से जुड़े प्रावधानों को इतना कमजोर कर दिया गया है कि वह किसी भी अदालत में लड़ाई नहीं लड़ सकते.
उत्तर प्रदेश में कुल कारखानों की तादाद महज 25000 बताई जाती है, जबकि प्रदेश की आबादी 22 करोड़ से भी अधिक है. ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि पंजीकृत कारखानों की तादाद कहीं ज्यादा है, जहां पर लोग काम कर रहे हैं, लेकिन सरकारी तंत्र में उनकी गिनती नहीं होने की वजह से उन्हें श्रमिकों के कल्याण से जुड़ी योजनाओं का फायदा नहीं मिल रहा है.
श्रमिक नेता उमाशंकर मिश्रा कहते हैं कि पिछले 5 सालों के दौरान फैक्ट्री मजदूरों को भी सरकार ने बंधुआ मजदूरों से भी बदतर स्थिति में पहुंचा दिया है. श्रम कल्याण कानूनों को शिथिल किया गया है और जिन संस्थानों में स्थाई प्रकृति की मजदूरी है. वहां भी ठेके पर कर्मचारियों से काम कराया जा रहा है और इसे आउटसोर्सिंग का नाम दे दिया गया है. इसमें मजदूरों का शोषण बढ़ा है.
वरिष्ठ पत्रकार के विक्रम राव भी मौजूदा हालत को अच्छा नहीं बता रहे हैं. उनके अनुसार जिस तरह से सरकारी काम कर रहे हैं. उसमें मजदूरों के लिए अपने रोजगार को बचाए रखना सबसे बड़ी चुनौती हो गया है. सरकारों के नकारात्मक रवैया की वजह से मीडिया संस्थानों में भी हालात बिगड़े हुए हैं. वहीं दूसरी ओर सरकारी अधिकारी प्रावधानों की चर्चा करते हैं जो कारखानों में श्रमिकों के हित को ध्यान में रखते हुए लागू किए गए हैं.
उप निदेशक कारखाना धर्मेंद्र प्रताप सिंह तोमर बताते हैं कि श्रमिकों के कल्याण के लिए जो कानून बनाए गए हैं. उनका पालन कराया जा रहा है. उनके साथ कोई भी हादसा होने पर मुआवजे का भी प्रावधान है.