उदयपुर. जिला मुख्यालय से करीब 65 किलोमीटर दूर भगवान ऋषभदेव का मंदिर स्थित है. उदयपुर-अहमदाबाद मार्ग पर स्थित कस्बा ऋषभदेव (Rishabhdev town of Udaipur ) जैनों के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के नाम (Lord Rishabhdev first Tirthankara of Jains ) से प्रसिद्ध है. इस मंदिर में भगवान को केसर चढ़ाने की परंपरा है, क्योंकि यहां अन्य कोई भोग धारण नहीं होता. इस वजह से इन्हें केसरियाजी भी कहा जाता है. स्थानीय जानकारों की मानें तो यह मंदिर पहले कच्ची ईटों से बना था, जिसका 8वीं शताब्दी में पारेवा पत्थर से निर्माण कराया गया. इस मंदिर का निर्माण गुजरात के सोमनाथ के सोमपुरा कारीगरों ने किया गया था. वर्तमान में मंदिर देवस्थान विभाग राजस्थान के अधीन (Devasthan Department Rajasthan) है. मंदिर में जैन धर्म के अनुयायियों के अलावा भी अन्य समाज और धर्म के लोग दर्शन के लिए आते हैं.
आदिवासी समाज के लोग भी करते हैं इनकी आराधना: जैन समाज के अलावा आदिवासी समाज के लोगों का भी इस मंदिर के प्रति अटूटू आस्था है. ऋषभदेव विष्णु के आठवें अवतार के रूप में भी माने जाते हैं. यही कारण है कि आदिवासी समाज के लोग भी इनकी आराधना करते हैं. यह मेवाड़ के प्रमुख चार धामों में से एक है. वहीं, मंदिर में भगवान की काले रंग की प्रतिमा स्थापित है. जिसे आदिवासी भील, मीणा समुदाय के लोग कालिया बाबा कहते हैं.
साहित्यकार उपेंद्र अणु ने बताया कि उदयपुर से 65 किलोमीटर दूर ऋषभदेव का मंदिर स्थित है. मूल नायक प्रतिमा पर अत्यधिक केसर चढ़ाए जाने से इस मंदिर को केसरियाजी भी कहा जाता है. यह मंदिर पूरे भारतवर्ष में विख्यात है. ऐसे में देश के अलग-अलग कोनों से बड़ी संख्या में श्रद्धालु यहां पूजा-अर्चना के लिए आते हैं.
मंदिर का इतिहास: मान्यता है कि यह मंदिर दूसरी शताब्दी में कच्ची ईटों का बना था, जिसे 8वीं शताब्दी में पारेवा पत्थर से दोबारा बनाया गया. वहीं, मंदिर में विराजे भगवान ऋषभदेव को केसरियाजी के नाम से भी जाना जाता है. यहां भगवान ऋषभदेव की काली प्रतिमा स्थापित होने के कारण श्रद्धालु उन्हें कालिया बाबा भी कहते हैं.
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जानें क्या है मंदिर में पूजा की विधि: देवस्थान विभाग के गिरीश व्यास बताते हैं कि प्राचीनकाल में भारतीयों ने पूरे दिन को आठ भागों में विभक्त किया था. जिसे घड़ी की संज्ञा दी गई. ठीक इसी प्रकार आगे चलकर इसे चार भागों में बांटा गया, जिसे प्रहर कहा जाता है. इसी के आधार पर यहां जल घड़ी का निर्माण किया गया, जिसके अनुसार ही यहां पूजा की जाती है. उन्होंने बताया कि यह घड़ी एक लकड़ी के बक्से में तांबे के बड़े से भगौने में पानी भर कर रखा जाता है. जिसके अंदर पानी भरा जाता है. साथ ही इसके भीतर एक तांबे का कटोरा होता है. जिसमें एक छिद्र होता है, जो 24 मिनट में पारी से भर जाता है. जैसे ही यह कटोरा भरता है वैसे ही मंदिर का गार्ड घंटी बजाता है और समय का संकेत देता है. खास बात यह है कि यहां पिछले 1500 सालों से इस घड़ी के आधार पर पूजा की जाती है. भगवान केसरियाजी में जैन धर्म के अनुयायी ही नहीं, बल्कि यहां के आदिवासी भी उनकी पूजा करते हैं. हिंदू केसरियाजी को भगवान विष्णु के आठवें अवतार के रूप में पूजा करते हैं, जबकि जैन धर्म के लोग इन्हें अपना पहला तीर्थंकर मानते हैं. यहां श्वेतांबर के साथ ही दिगंबर संप्रदाय के लोग भी पूजा के लिए आते हैं.