टोंक. शहर में आज भी गाड़िया लोहारों को कोई सी भी सरकारी मदद नहीं मिली है. यह लोग लोहे के समान बेचकर अपना और अपने परिवार का गुजारा करते हैं. कभी अपनी तकदीर पर आंसु बहाते हैं कभी सरकारी दफ्तरों पर अर्जी लगाते हैं, कभी प्रशासन से मकानों की गुहार लगाते हैं पर उनकी जिंदगी का सफर गाड़ी में बने घर से शुरू होता है और इसी घर में उनके सपने भी दफन होकर रहे जाते हैं.
सरकार भी इनके पुर्नवास के प्रति गंभीर नजर नहीं आती. यही वजह है कि गाड़िया लोहार आज भी कड़ी मेहनत कर लोहा के समान बनाकर बेचते हैं और अपने परिवार का पेट पालते हैं. आजादी के सालों बाद भी राजस्थान के गाड़िया लोहार एक अदद मकान के लिये भटकते नज़र आते हैं.
वहीं वह कहते हैं कि आज दिन तक हमे कोई भी मदद नहीं मिली है. गर्मी हो या बारिश, हमें काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है. कहते हैं कि महाराणा प्रताप ने जब चित्तौड़ को छोड़ जंगलों का रुख किया तो उन्हीं के साथ गाड़िया लुहारों के पूर्वजों ने भी अपने घर छोड़कर सोगन्ध खाई थी कि बिना चित्तौड़ को आजाद कराए वो कभी घर बनाकर नहीं रहेंगे. देश आजाद हुआ और कई सरकारें आकर चली गई. ऐसा नहीं है कि कोई योजनाएं इनके लिए नहीं दी गई लेकिन उन योजनाओं का आज तक इन गाड़िया लोहारों को कोई फायदा नहीं मिल सका है, यही कारण है कि इन्हें आज तक कोई घर की छत नसीब नहीं है.