सिरोही. देवाधिदेव महादेव की लीला अपरम्पार है. जटाधारी शिव इस संसार की मोह-माया से मुक्ति देकर अपने भक्तों का बेड़ापार करते हैं. अरावली पर्वत श्रृंखला में शिव के निवास का वर्णन स्वयं शिव पुराण और स्कन्द पुराण में मिलता है. जिसमें कहा गया है, कि शिव काशी के बाद विविध रूपों में माउंट आबू की अरावली पर्वत श्रृंखला में निवास करते है. इसलिए माउंट आबू को 'अर्धकाशी' के नाम से भी जाना जाता है.
महाशविरात्रि के अलावा श्रावण के पूरे माह में माउंट आबू में देश के सुदूरवर्ती भागों से देवाधिदेव महादेव के दर्शन के लिए श्रद्धालु आते हैं. पुराणों में उल्लेख है, कि इन पर्वत श्रृंखला में स्वयं शिव, अन्नत: रूप में विद्यमान हैं. यही कारण है, कि राजस्थान के सिरोही जिले में सर्वाधिक मठ-मंदिर पूरे जिले में विभिन्न स्थानों पर बने हुए हैं.
आखिर क्यों होती है यहां पर देवाधिदेव महादेव के अंगूठे की पूजा..?
स्कन्द पुराण के अनुसार ऋषि वशिष्ठ इन्ही अरावली पर्वत माला में एक गुफा में तपस्या किया करते थे. उनके पास एक गाय थी, जिसका नाम नन्दनी थी. स्कन्द पुराण में उल्लेख है, कि इन्द्र के वज्र के प्रहार से इस पर्वत श्रृंखला में एक ब्रह्म खाई बन गयी थी. स्वयं ऋषि वशिष्ठ भी इसी ब्रह्म खाई के पास ही बैठकर तपस्या करते थे. इसी स्थान पर ब्रह्म खाई होने से ऋषि वशिष्ठ की गाय नन्दिनी उस ब्रहृम खाई में रोजाना गिर जाती थी. रोजाना की इस समस्या से परेशान होकर ऋषि वशिष्ठ ने इस ब्रह्म खाई को भरने की ठानी. जिसके बाद ऋषि वशिष्ठ आग्रह पूर्वक पर्वतों के राजा हिमालय राज के पास पहुंचे.
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ऋषि वशिष्ठ के इस आग्रह को हिमालय राज ने जल्द ही स्वीकार कर अपने श्रेष्ठ पुत्र अरावली को इस ब्रह्म खाई को भरने के लिए भेजा. लेकिन अरावली इस खाई को नहीं भर पाया. जिसके बाद अरावली इसी स्थान पर पूर्ण रूप से लेट गया. इसी कारण अरावली पर्वत श्रृंखला विश्व में सर्वाधिक लम्बी पर्वत श्रृंखला मानी जाती है. जो पूरे राजस्थान प्रदेश के अलावा पंजाब के बॉर्डर पर भी दिखाई देती है.
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जब हिमालय राज के श्रेष्ठ पुत्र अरावली इस ब्रह्म खाई को पाट पाने में सफल नहीं हो पाए तो पुन: ऋषि की प्रार्थना पर हिमालय राज ने एक लंगड़े पर्वत नंदीराज को एक विशाल अवरूद्ध सर्प पर सवार कर इस स्थान पर भेजा. यहां पर आने के बाद में नंदीश्वर पर्वत भी इस ब्रह्म खाई में भीतर गहराई तक समाने लगा, तो चिन्तित होकर ऋष्ठि वशिष्ठ ने देवाधिदेव महादेव से इस ब्रह्म खाई को भरने की प्रार्थना की.
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ऋषि वशिष्ठ की करूण प्रार्थना की पुकार सुन महादेव ने काशी से ही अपने दाहिने पैर को फैलाकर अपने अंगूठे से इस नंदीश्वर पर्वत को अधर कर दिया. बाद में इस स्थान का नाम अचलेश्वर महादेव के नाम से विख्यात हो गया. आज इस स्थान को अचलगढ़ के रूप में जाना जाता है. शिव पुराण और स्कन्द पुराण में यह उल्लेख है कि, स्वयं शिव के साक्षात् अंगूठें के इस स्थान पर होने से ही यह पर्वत स्वयं देवाधिदेव महादेव के अंगूठें पर स्थिर अचाल और अचल है. इसलिए स्वयं शिव इस स्थान पर विराजमान है. कहा जाता है कि मन से की प्रार्थना को वे जल्द पूरा कर अपने भक्तो का कल्याण करते है.