प्रतापगढ़. आदिवासी बाहुल्य प्रतापगढ़ जिले के आदिवासी समुदाय में होली का अपना विशेष स्थान है. रबी की फसल कटाई के साथ ही नया धान आने की खुशी में यह समुदाय इस पर्व को फसली उत्सव के रूप में भी मनाता है और इसकी शुरूआत होती है होली के दूसरे दिन से दशमी पर्व तक. पूरे जिले में आदिवासी समुदाय गैर नृत्य कर अपनी खुशी जाहिर करता है. दशमी के दिन नयी फसल से बाटी और चूरमे के प्रसाद के साथ इसका समापन होता है.
गैर नृत्य का नाम सुनते ही राजस्थान की संस्कृति की याद ताजा हो जाती हैं. विशेष रूप से मेवाड़ में इसका अपना ही महत्व है. पारंपरिक वाद्ययंत्रों की धुन पर तलवार और डंडे के साथ किए जाने वाला यह एक नृत्य ही नहीं बल्कि एकता और शौर्य का प्रतीक भी है. प्रतापगढ़ जिले के धरियावद उपखंड के मुंगाणा कस्बे और प्रतापगढ़ के बारावरदा और मधुरा तालाब में भी गैर नृत्य का कार्यक्रम हुआ. इस कार्यक्रम में जिले के साथ ही डूंगरपुर और बांसवाड़ा से भी बड़ी संख्या में आदिवासी समुदाय के लोग नृत्य करने पहुंचे.
गैर नृत्य को लेकर युवाओं में भी खासा उत्साह नजर आया. युवाओं का कहना है कि यह नृत्य आदिवासी संस्कृति को आगे बढ़ाने और देश के सामने रखने का एक प्रयास है. आदिवासी संस्कृति प्रकृति से जुड़ी हुई है और इसी के सहारे विश्व का कल्याण किया जा सकता है. गैर नृत्य केवल संस्कृति का प्रतीक नहीं है. यह एकता और शौर्य का भी परिचायक है. धुलंडी से शुरू होने वाले इस नृत्य से पहले आदिवासी समुदाय होली के सामने पंचों की मौजूदगी में अपने पुराने झगड़ों का समाधान करते हैं. इसके साथ ही साल भर के दौरान हुई गमी को भुलाने और नये कार्य की शुरूआत करते है.